एक बार की बात है, दो डाकुओं ने बहुत उत्पात मचाया हुआ था। वे हमेशा काले कपड़ों में रहते, चेहरों पर भी काली नकाबें लगाते। कोई उन्हें पहचान ही न पाता। और वैसे भी पहचानने का कोई सवाल नहीं था, अँधेरे में उनकी गरजदार आवाज सुनकर लोगों की आधी जान तो पहले ही निकल जाती थी। उन डाकुओं के कारण रात को यात्रा करना बहुत खतरनाक हो गया था।
लेकिन फिर भी जरूरी काम से लोग यात्राएँ करते और डाकुओं के शिकार बन जाते। डाकुओं को पकड़ने के बहुत प्रयत्न किए गए, लेकिन वे इतने चालाक और फुर्तीले थे कि किसी के हाथ नहीं आए। आज यहाँ दिखाई देते, तो अगली रात पचास मील दूर जाकर लूटपाट मचा देते। डाकुओं का ठिकाना एक पहाड़ी की गुप्त गुफा में था। वे अपनी लूट का माल वहीं रखते थे।
एक रात की बात है, दोनों डाकू काले कपड़ों में, हथियारों से लैस होकर झाड़ियों के पीछे घात लगाए बैठे थे। एकाएक किसी बच्चे के रोने की आवाज आई। दोनों अचरज से इधर-उधर ताकने लगे। मामला उनकी समझ में नहीं आ रहा था। रोने की आवाज तेज होती जा रही थी। डाकू ज्यादा देर तक झाड़ियों के पीछे छिपे न रह सके, वे सड़क पर निकल आए।
उन्होंने देखा कि सड़क पर एक छोटी लड़की चली आ रही है, दोनों इधर-उधर देखते रहे, कहीं कोई धोखा न हो। लेकिन वह नन्ही लड़की अकेली ही थी। दोनों डाकू कभी नहीं डरे थे, बल्कि दुनिया ही उनसे थर्राती थी, लेकिन इस समय उन्हें कुछ-कुछ डर लग रहा था। धीरे-धीरे लड़की पास आ गई। वह रो रही थी।
“ऐ लड़की, कहाँ जाती है?” एक डाकू जोर से बोला।
लड़की चुप। उसने रोना बंद कर दिया और टुकुर-टुकुर ताकने लगी।
“मुन्नी, तेरा घर कहाँ है?” दूसरे डाकू ने अपनी आवाज को भरसक मीठी बनाने की कोशिश करते हुए कहा।
“वहाँ!” लड़की ने अँधेरे में संकेत किया।
“तो इधर कहाँ जा रही है?”
1
“माँ के पास!” लड़की बोली।
“माँ कहाँ है?”
“भगवान् के पास!” लड़की फिर रो पड़ी, “वह कभी नहीं आती। काकी मुझे खूब मारती है। मैं तो माँ के पास जाऊँगी।”
दोनों डाकुओं के मन पत्थर की तरह कड़े हो गए थे। लेकिन न जाने क्यों, लड़की की बात सुनकर उनकी आँखों में आँसू आ गए |
“चलो, हम तुम्हें माँ के पास ले चलें!” डाकुओं ने कहा, तो लड़की हँस पड़ी। उसे हँसते देखकर डाकू भी मुस्कराए। लड़की को गोद में लेने के लिए वे आपस में छीना-झपटी करने लगे और फिर उसे लेकर अपनी गुफा की तरफ चल दिए। आज उन्होंने लूटमार का विचार छोड़ दिया था। उनकी गुफा अंदर से बहुत आरामदेह थी। भला उन्हें किस चीज की कमी थी!
डाकुओं ने लड़की को नरम बिछौने पर लिटा दिया। एक जना उसे सोती न देख कर यों ही कुछ गुनगुनाने लगा-शायद जीवन में पहली बार। आखिर लड़की सो गई।
वह सुबह उठी तो भौंचक्की रह गई। हर तरफ इतना सामान था कि बस…लड़की उस विशाल गुफा में इधर-उधर बेरोकटोक घूमती-फिरती रही। कभी यह संदूक खोल कर देखती, तो कभी वह सामान उठाती। दोनों डाकू छिपे-छिपे उसे देख रहे थे। वे लड़की के सामने आने से डर रहे थे। अगर उन्हें देखते ही लड़की माँ के पास जाने को मचल गई तो क्या होगा!
लेकिन आखिर कब तक यह लुका-छिपी चल सकती थी। लड़की को भूख लग रही होगी, और भी कई काम करने थे। दोनों डाकू झिझकते हुए लड़की के पास जा खड़े हुए|
वही हुआ। लड़की मचल उठी, “माँ के पास ले चलो मुझे!” दोनों डाकू परेशान हो उठे। आखिर बात टालने के लिए बोले, “कल चलेंगे, वह जगह बहुत दूर है।”
लड़की बहुत मुश्किल से चुप हुई। अगली रात भी दोनों डाकू लूटमार करने के लिए नहीं निकल सके।इस तरह कई दिन बीत गए। दोनों डाकू गुफा में ही रहकर लड़की को बहलाते रहे। हर दिन कह देते कि कल तुम्हें माँ के पास ले चलेंगे। पर उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि वे इस तरह लड़की को कब तक भुलावे में डालते रह सकेंगे।
एक दिन लड़की बोली, “मेरा मन नहीं लगता। मेरी बहन को बुला दो।”
“बहन कहाँ है?” एक डाकू ने पूछा।
2
“माँ के पास!”
अब यह पूछना बेकार था कि माँ कहाँ है? यह नई समस्या थी।
दोनों सोचते रहे। गुफा में घूम-घूम कर देखते रहे। पहली बार उन्होंने अनुभव किया, गुफा में इतनी अधिक धन-दौलत इकट्ठी हो गई है कि उसे सँभालना संभव नहीं है।
“आखिर इसका क्या होगा?” एक डाकू ने कहा।
“हम तो बस लूट-लूट कर लाते रहेंगे!” दूसरा बोला।
“और एक दिन मर जाएँगे।”
तभी वह लड़की वहाँ आ गई। उसकी आँखों में आँसू थे। सुबकती हुई बोली, “मुझे माँ के पास ले चलो, नहीं तो मेरी बहन को लाओ।”
दोनों डाकू हड़बड़ा गए। “अच्छा लाते हैं, बस तुम रोओ नहीं।” वे लड़की को रोती नहीं देख सकते थे। न जाने मन कैसा हो जाता था!
दोनों सोचते रहे, सोचते रहे। फिर एक निश्चय किया और निकल पड़े। एक अनाथालय में गए और उसकी उम्र की एक लड़की ले आए। वे दोनों लड़कियाँ जल्दी ही आपस में घुलमिल गईं।
“अगर इस दूसरी लड़की ने भी अपनी बहन की माँग पेश कर दी तो?” एक डाकू ने अपने साथी से कहा।
“तो हम फिर अनाथालय जाएँगे।”
“तो अनाथालय को यहीं उठा लाएँगे।” दूसरे ने उत्साह से कहा।
“यहाँ इस जंगल में!”
“नहीं, हम कहीं और चले चलेंगे।”
“हाँ, अब यहाँ मन नहीं लगता।”
“पैसे के लिए खून-खराबा ठीक नहीं।”
“पैसा बहुत है।”
“इतना कि हम जीवन भर खर्च करते रहें, तब भी खत्म न हो!”
“हम डाके डालते हैं, तो ऐसी ही नन्ही-मुन्नियां की माँएँ भगवान् के पास चली जाती हैं!”
बस, उन्होंने योजना बना ली। एक खुली जगह में बहुत बड़ा मकान बनवाया और बहुत सारे अनाथ बच्चों को वहाँ ले आए। उनके लिए हर तरह की सुविधाएँ जुटाईं। अब बच्चों की देखभाल में ही उनका इतना समय निकल जाता कि उन दोनों को याद भी न रहा कि वे कभी डाके डाला करते थे|
मुन्नी अब काफी बड़ी हो गई थी। उसे पता चला गया था कि माँ भगवान् के पास से वापस नहीं आ सकती।
दोनों डाकू अनाथ बच्चों को ढूँढ़-ढूँढ़ कर लाते जा रहे थे। दिन गुजरे, बच्चे बड़े हुए, परिवार वाले बने। अब कोई अनाथ नहीं था। उस मकान के सब तरफ बस्ती बस गई थी। वे दोनों डाकू भी अब न रहे, केवल उनकी कहानी रह गई है!
(समाप्त )