मां के आंसुओं का हिसाब – शुभ्रा बैनर्जी : Moral Stories in Hindi

भुलक्कड़ मां

रीना अब नौकरी कर रही थी पुणे में।बचपन से तरस गई थी,परिवार के साथ कहीं घूमने जाने को। गर्मियों की दो महीने की लंबी छुट्टियों में हर बार पहाड़ ही जाते थे भाई-बहन मां के साथ।मां बारिश होने पर बड़े गर्व से पहाड़ों से गिरने वाले झरने भी दिखाती थी,खुशी से झूमते हुए कहती”देखा ,नानी के घर नदी,पहाड़,झरने सब हैं।तुम लोगों का पर्वतीय पर्यटन तो हो ही जाता है।”

रीना और राजा मुंह बनाकर कुछ दिन‌ रहकर वापस दादी के घर आ जाते।समय ही सब कुछ तय करता है।पापा को छुट्टियां नहीं मिलतीं थीं पहले,फिर छुट्टियां मिले तो बजट नहीं बन पाता था।कुछ सालों में दादा जी पैरालिसिस की बीमारी में दस साल बिस्तर में‌ ही रहे।दादी के साथ मिलकर उनकी सेवा मां ने ही की थी।कभी घिन नहीं‌ आई उनको लैटरिंग,पेशाब साफ करने में।फिर पापा बीमार पड़े।ऐसा पड़े कि सात साल के अंदर चले भी गए।घूमने के सबसे शौकीन थे जो,वो पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते कहीं नहीं जा पाए।

अब इस बार भाई (राजा)से पहले ही कह दिया था “दादा,मैं मम्मी को लेकर जाऊंगी कुछ दिनों के लिए।तुम यहां दादी को संभाल लेना।काम वाली आंटी ज्यादा देर रुक जाएगी।बेटे को भी मां के लिए बदलाव सही लगा,तो हां कह दिया।वैसे बेटे (घर पर रहने वाले) मम्मी के बिना घर में‌ टिकना चाहते नहीं।जाने वाले दिन सुधा ने बाई को सब काम समझा कर बता दिया था।वो थीं भी समझदार।पर सास को अकेली छोड़कर जाते समय पता नहीं‌ क्यों आंखें नम हो गई।रीना ने कनखियों से देखा। फ्लाइट में पहली बार बैठकर डर तो लगा,पर साथ वाली एक सीट पूरे समय खाली थी।सुधा ने कहा ही दिया रीना से”तेरे पापा चल रहें हैं हमारे साथ।मुझे डर लगता है ,तभी साथ में आकर बैठें‌ हैं।तुझे भी ऐसा लगता है क्या?”,रोते हुए सुधा ने रीना की तरफ देखा,तो उसने हां कहा।

शाम को सुधा रीना के साथ पुणे पहुंच गई ।ऐसा पहली बार हुआ था।हर बार वह हमारे साथ जाती थी कहीं भी।अब बिटिया बड़ी हो चुकी थी।कमाने लगी थी।सुधा के आने जाने ,मंदिरों‌ के दर्शन करवाने का खर्च उसने अपने ऊपर  लिया था।ऐसा नहीं था कि सुधा के पास पैसे नहीं थे,पर बेटी कुछ खर्च करने दे ही नहीं रही थी।

शाम को खाने का बिल देना चाहा,तो मना कर दिया रीना ने।बड़े चाव से मां की पसंद की चीजें खरीद कर लाती  रोज़,और रोज़ ही मॉल ले जाती।वहां भी खूब खर्च।सुधा ने तो अब मना कर दिया था।

अगले दिन सुबह मंदिर दर्शन के लिए जाना तय हुआ था।सुबह ही निकलना था।सुधा ने दवाई का डिब्बा कहां रखा था ,याद ही नहीं आ रहा था।चलती गाड़ी में ही चार से पांच बार पूछ चुकी थी।रीना के लिए यह अप्रत्याशित था।बोली”मम्मी,मिल जाएगा।गाड़ी रुकने दीजिए,देख लेंगे।शांति से बैठिए

अब आप।रास्ते में रुक-रुक खाना खाने के लिए भी रीना ने सुधा से पैसे नहीं लिए।अब तो सुधा की आंखों में आंसू आ गए।वो भी रेस्टोरेंट में बैठे।बुरा भी लग रहा था।कारण कुछ भी नहीं पर रोना आ रहा था।वापस आने के बाद गुस्से से पूछा उसने”रोने क्यों लगीं थीं आप?कुछ ग़लत शब्द भी नहीं बोली मैं।इतने सालों में‌ तुम्हारे अच्छे से दर्शन हो गाए,फिर भी तुम दुखी क्यों थी ?बताओ‌ ना।”,

सुधा भी मुंह पर बात करने वालों में‌ थी।पर अभी बेटी को परेशान नहीं करना चाहती थी।सुबह सुबह नौकरी पर निकल जाती थी वह,पीछे सुधा घर के काम कर लेती थी।अब पानी बहुत कम रहता था टंकी में। मांओं का काम करना तो मानो टंकी का पूरा पानी खतम।आते ही एक दिन कहने लगी”मम्मी,इस घर में पानी कम आता है।यहां आपके वहां जैसा दिनभर पानी नहीं रहता।अपने घर में‌ खूब बर्बाद किया करो पानी,यहां नहीं।”,बेटी की बातें सीधे दिल में‌ जाकर चुभी थीं।बच्चों के पास आने

से बच्चे,तादाद से ज्यादा ध्यान रखने लगते हैं ,तो मां का ही आत्मविश्वास खोखला होने लगता है।मंहगीं साड़ियां,गिफ्ट ,डिनर ,मॉल‌ के लिए मां को बेटी का सानिध्य नहीं चाहिए होता है।उनसे कुछ लेते भी शर्मिंदगी महसूस होती है।पूरी जिंदगी,यह कर्तव्य पति ने उठाया था।शायद इसीलिए रीना ,सारे शौक पूरे करना चाहती थी मां के।पर मां भी तो स्वाभिमानी कम नहीं थी।बेटी की बातों में अलग तेवर

देखकर ,एक दिन सुधा ने सीधे कहा “देख रीना,तूने अपनी मेहनत से यह मुकाम पाया है।तू गलत मत समझना,पर तेरे व्यवहार में पैसे कमाने का रौब आ गया है।तुझे पता है ना,मुझे रौब दिखाने वाले बिल्कुल भी पसंद नहीं।मैं  केवल एक आदमी का रौब ही सही हूं अब तक,जो मेरै जीवनसाथी थे।अब ना मैं तेरा ,ना तेरै भाई का रौब  सह पाऊंगी।मुझे आज तक कोई  बंधन में‌ नहीं‌ बांध पाया।मैं

निश्छलता के साथ औरों के लिए भी कुछ खरीदना चाहती हूं,पर तुझे बताकर,तू ही सब कर रही है।प्लीज़ मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए।औलाद होकर माता -पिता का सहारा बनने से ज्यादा जरूरी है,उनके भावों को समझो।”

सुधा की बात सुनकर रीना ने भी अपनी भड़ास निकाली”अच्छा ,दादा जब तुम्हारे लिए कुछ भी लाता है,करता है,तुम्हें बहुत प्यार आता है उस पर।अब जब मैं इस लायक बन पाई‌ हूं,तो तुम्हें‌ ये सब अच्छा नहीं लगता?, बात-बात पर रोना जरूरी है क्या?तुम्हारे आंसुओं का हिसाब रखने लगूं ना,तो एक युग बीत जाएगा।कहां से आती है बाढ़ तुम्हारी आंखों में?

दादा से पूछूंगीं वह कैसे हैंडल करता है तुम्हें,बाप रे‌ धन्य हो।”

सुधा ने आराम से कहा”बेटा ,मां के आंसुओं का हिसाब रखना ही बेवकूफी है।कौन से खुशी के,कौन से दुख के,कौन से अपमान के,कौन से स्वाभिमान,कौन से अपमान के,यह समझना बड़ा मुश्किल है।जब तू मां बनेंगी ना ,तब समझेगी।

अगली सुबह ही रीना आकर सुधा से लिपट कर सो गई। धार-धार रोते हुए कहा”मां ,सच ही कहा है तुमने।मां के आंसुओं का ना अर्थ हम समझ सकतें हैं,और‌ ना उनका व्याकरण।तुम्हें खुद‌ भी याद है‌ कितनी बार रोई हो तुम?

सुधा ने समझाया “मन के आंसू खुले आसमान की तरह होते हैं।मन भर कर निकल आतें हैं।तुम बच्चों को तो रोने नहीं देखतीं,ख़ुद छिप -छिप कर रोती रहती हो।तुम्हारे आंसू श्राप नहीं‌ बन जाएंगे हमारे लिए!!!!”

सुधा ने समझाया”यही तो खूबी है मां होने की।हम बुढ़ापे में भूलने लग जातें हैं।कितना भी रो लिए हों,बाद में सब डिलीट हो जाता है दिमाग से।मांगें भुलक्कड़ होतीं हैं ये।मां के आंसुओं का हिसाब रखने के लिए,तुझे और भाई को सात जन्म लेने पड़ेंगे।हम शायद रोकर अपने मरते हुए बीमार स्वाभिमान को पुनर्जीवित कर लेते हैं।तू मेरे आंसुओं का क्या हिसाब रखेगी।जिस दिन खुद मां बनेंगी,तब सब समझ जाएगी।

शुभ्रा बैनर्जी 

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