“सुबह का समय था। सूरज की हल्की किरणें खिड़की से अंदर झांक रही थीं। माँ अपने छोटे बेटे को निहारते हुए मुस्कुरा रही थी।
बेटा, जो शायद अभी-अभी चलना सीख रहा था, छोटे-छोटे कदमों से कमरे के एक कोने से दूसरे कोने तक जा रहा था।
उसके पैरों की थोड़ी लड़खड़ाहट और संतुलन बनाने की कोशिशें देखने लायक थीं। माँ हर पल उसकी तरफ ध्यान लगाए हुए थी,
जैसे किसी अनमोल खजाने की पहरेदारी कर रही हो। बेटा बीच-बीच में ठोकर खाता, और फिर खुद को संभालकर खड़ा हो जाता।
माँ उसके हर ठोकर पर अपनी जगह से हल्की सी उठती, लेकिन अगले ही पल वह बच्चे की मुस्कान देख आराम से बैठ जाती।
उसकी आँखों में बेटे के भविष्य के सपने झलक रहे थे – वो कैसे धीरे-धीरे अपने पैरों पर खड़ा होगा, कैसे दौड़ेगा, कैसे जिंदगी की राहों पर आगे बढ़ेगा।
एक पल ऐसा भी आया जब बेटा माँ की ओर भागा, उसकी छोटी-छोटी हथेलियाँ हवा में फैलाए हुए।
माँ ने उसे अपनी बाहों में थाम लिया, जैसे वो उसकी दुनिया हो। उस पल में जैसे समय ठहर गया हो
– माँ की ममता, बेटे की मासूमियत, और उनके बीच का वो अनकहा प्रेम जो शब्दों से परे था। फिर बेटा माँ की गोद से नीचे उतरा और एक बार फिर से अपनी यात्रा पर निकल पड़ा।
हर कदम उसके लिए एक नई जीत थी, और माँ के लिए हर कदम एक नई खुशी। यह दृश्य शायद साधारण था, पर उसमें एक गहरी मधुरता छिपी थी – एक माँ और उसके बेटे का साथ, जहां हर क्षण अनमोल था।”
– संजय निगम