बात कई वर्ष पहले की है….. मेरे घर के सामने कुछ दूरी पर एक परिवार रहने आया….पति- पत्नी दस वर्ष का बेटा और गोद में बेटी। चूकि हम लोगों के घर बहुत छोटे-छोटे थे और कॉलोनी में अभी बहुत कम ही लोग रहते थे तो शाम होते ही सभी लोग घर के बाहर कुर्सी डाल कर बैठ जाते थे। मैं भी अपने दोनों बच्चों को लेकर उनको पढ़ाने बैठ जाती थी और साथ में रात के खाने की तैयारी भी कर लेती थी। मैं अक्सर देखती थी कि शाम होते ही दोनों पति-पत्नी घर के घर के बाहर पड़ी कुर्सियों पर बैठ जाते थे और आपस में बातें करते रहते थे। मैं अक्सर देखती थी कि उनके साथ कोई न कोई महिला अवश्य रहती थी जो कि उसकी बेटी को गोद में लिए रहती थी और उसके घर का सारा काम भी वही करती थी मैं सोचती थी कि उसको कितना आराम मिलता है और यहां मैं सुबह से लेकर रात तक घर और बाहर की जिम्मेदारियों को निभाने के कारण पूरा दिन व्यस्त रहती हूं….एक पल को भी खुद के लिए समय नहीं मिलता है!!! क्योंकि मेरे पति सुबह नौ बजे चले जाते थे और रात के दस बजे ही घर आते थे तो घर और बाहर दोनों की जिम्मेदारियों को मैं ही निभाती थी। कभी-कभी उन्हें देखकर मैं मन ही मन सोचती थी कि काश मुझे भी कभी ऐसा आराम मिल जाए खैर चाहने से क्या होता है…होता तो वही है जो ऊपर वाला चाहता है।
एक दिन वह महिला धीरे- धीरे चलते हुए मेरे पास आई मैंने उन्हें बिठाया और फिर बातों का सिलसिला चल पड़ा। बातों ही बातों में उन्होंने बताया कि वह गांव से शहर अपना इलाज कराने आई हैं उन्हें दिल की बीमारी है जिसमें काफी पैसा खर्च हो चुका है अब उन्हें पेसमेकर लगा हुआ है बिटिया भी गोद में है। बीमारी की वजह से वह ज्यादा शारीरिक श्रम नहीं कर पाती हैं इसलिए उनके साथ कभी उनकी बड़ी भाभी कभी छोटी भाभी और कभी बहन कोई ना कोई साथ में अवश्य रहता है क्योंकि अब इलाज के लिए हमें यही रहना होगा तो बेटे का यही पास के स्कूल में एडमिशन करवाया है। आपको मैंने बच्चों को पढ़ाते हुए देखा है तो क्या आप मेरे बच्चे को भी ट्यूशन पढ़ा देंगी। मैंने उनकी परिस्थितियों को देखते हुए हां कह दिया उनके जाने के बाद उनके बारे में जानने के बाद मन ही मन सोचने लगी कभी भी किसी के बारे में बिना जाने ही अपने मन में कोई भी धारणा बना लेना कितना गलत होता है उनसे मिलने के बाद उनके बारे में जानने के बाद मुझे बहुत दुख हुआ कि वह कितनी लाचार और बेबस है कभी-कभी जो दिखता है वह होता नहीं है आज मुझे अपनी सोच पर पछतावा हो रहा था कि मैं कितना गलत उनके बारे में सोचती थी।
किरन विश्वकर्मा
लखनऊ