मां-बाप हैं फुटबॉल नहीं –   शुभ्रा बैनर्जी  : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi: प्रज्ञा की आंख लगी ही थी कि जिठानी सावित्री जी का फोन आया”प्रज्ञा,स्वीटी के पास जा रहें हैं,हम।उसे डॉक्टर ने बेड रेस्ट की सलाह दी है।”प्रज्ञा सोचने लगी अभी तो आंठवा महीना ही लगा है,अभी से दीदी जाएंगी बेटी के पास।नानी बनने का सुख भी अलौकिक होता है।एक महीने बाद ही पता चला कि बेटी हुई है,स्वीटी की।

सावित्री जी का बेटा भी इंदौर में ही निजी कंपनी में नौकरी करता था।बेटी और दामाद भी नौकरी पेशा थे।बेटी ने अभी-अभी नया घर लिया था।जीजी बेटी के पास ही रुकीं।बेटे को भी रुकना पड़ा बहन के घर पर। वर्क फ्राम होने की वजह से ,घर से ही काम करता था वह।कुछ दिनों में ही जीजी को समझ आया कि बेटी के दो कमरों के घर में इतने लोगों का साथ रहना नामुमकिन है। आनन-फानन में उसी कॉलोनी में दूसरा घर किराए पर लेना पड़ा।उनका अपना घर खाली पड़ा था दूसरे शहर।

अब घर लिया तो बाकी चीजों की ज़रूरत भी पड़ने लगी।जेठ जी का समय कटता न था,तो टी वी लिया।फ्रिज, कुर्सियां, मेज़, पर्दे सभी नया लेना पड़ा।बच्ची दो महीने की हो चुकी तो जीजी ने अपने घर जाने का मन जैसे बनाया,बेटी बोली”मां, प्राइवेट जॉब है।अब और छुट्टी नहीं मिलेगी,तो गुड़िया को कौन देखेगा?”नातिन की ममता ने नाना-नानी को रोक लिया।

अब बेटी मां के पास गुड़िया को रखकर सुबह काम पर जाती और शाम को लौटकर ले जाती।साल भर होने को आ रहे थे।अब जीजी को अपने खाली पड़े घर की चिंता सताने लगी।जब भी जाने की बात करते,कुछ न कुछ नया झमेला हो जाता।अब जीजी का शरीर भी ज़वाब देने लगा था।अपनी औलाद की संतान को पालने में आत्मिक सुख तो बहुत था,पर थकावट बढ़ती जा रही थी।प्रज्ञा से कभी – कभार अपनी तकलीफ़ साझा कर कहतीं”अब शरीर नहीं चलता रहे छोटी

आजकल के बच्चों को संभालना मुश्किल है बहुत। कंप्यूटर युग के बच्चें हैं,शांत बैठते ही नहीं।हमारा घर भी खाली पड़ा है।”प्रज्ञा उनकी अनकही वेदना समझ कर बोली”जीजी दामाद जी के मम्मी पापा को कुछ दिनों के लिए बुलवा लो,और आप अपने घर जाकर हो आओ कुछ दिन।”जीजी को यह सलाह बहुत ही अच्छी लगी।बेटी के सास-ससुर झट राजी हो गए।

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आखिर वे दादा -दादी थे।जीजी उनके हांथों बच्ची सौंपकर अपने घर आई ही थी कि बेटी का फोन आना शुरू हो गया”मां, मम्मी जी तो गुड़िया को संभाल ही नहीं पातीं।इतना ज्ञान देतीं हैं कि गुस्सा आने लगता है।उनके तौर तरीके अलग हैं।मैं तो अब और बर्दाश्त नहीं कर सकती।”जीजी ने अपनी समधन की बुराई करते हुए बताया था यह सब।प्रज्ञा को बुरा लगा बहुत।

सास-ससुर अब बर्दाश्त नहीं हो रहे।पहले तो शादी करने के लिए उनकी तारीफों के पुल बांधते नहीं थकती थी।अरे चार-चार बच्चे उनके भी हैं,कैसे नहीं संभाल पाएंगी गुड़िया को।जीजी ने बाद में रहस्योद्घाटन किया कि बेटी को बहुत सारा काम करके जाना पड़ता है। टोका-टाकी से चिढ़ रही है,तो दामाद ने भी अपने सास-ससुर से आग्रह किया वापस आ जाने के लिए।

जीजी फिर से चलीं गईं बेटी के पास।रात को अधिकतर बेटी दामाद को खिलाकर ही भेजती थीं जीजी।औलाद को तकलीफ़ हो यह मां कैसे सह सकती है।

अब गुड़िया दो साल की हो गई।बेटी दामाद विदेश घूमने जाने का प्रोग्राम बना रहे थे।बेटी पापा से बोली”इस बार आप दोनों की शादी की वर्ष गांठ हम बाहर मनाएंगे।पापा हमारी तरफ़ से आप दोनों को यह उपहार‌ होगा।”गद्गगद होकर जीजी और जेठ जी गए बेटी -दामाद के साथ।मॉल में घूमते हुए जीजी के पैर में मोच आ गई तो उनका घूमने-फिरने का कार्यक्रम रद्द हो गया।

समय से पहले ही वापस आना पड़ा।पैर में मोच आने की खबर सुनकर प्रज्ञा ने इतवार देखकर जीजी को फोन लगाया,लग नहीं रहा था।जीजी ने फोन काटा भी नहीं था अज्ञानता वश,तभी प्रज्ञा को वास्तविकता का पता चल पाया।बेटी मां पर किसी बात से चिल्लाते हुए बोल रही थी”मां,जितनी तुम्हारी उम्र नहीं हुई,उससे ज्यादा बूढ़ी होने लगी है तुम।

पापा को देखो,अभी भी कितने चुस्त-दुरुस्त हैं।तुम वजन भी कम नहीं करतीं और घुटनों के दर्द का रोना भी बंद नहीं होता।बाली जाकर भी हम घूम नहीं पाए, तुम्हारी लापरवाही की वज़ह से।अपनी बेटी के लिए काम नहीं कर पा रही तो बहू के साथ कैसे निभाओगी?दो बज रहे हैं,अभी तक खाना भी नहीं बनाया तुमने।

इससे अच्छी तो मेरे सास थी,भले ज्यादा कुछ नहीं बनातीं थीं पर समय से बना लिया करतीं थीं।तुम गुड़िया को कितने दिनों से पार्क भी नहीं ले गई।”इससे ज्यादा सुनने की हिम्मत अब नहीं थी,प्रज्ञा के पास।फोन काटने से पहले जान बूझकर जीजी से कहा”बाद में करती हूं फोन।”

बेटे -बेटी को जब बताया तो वो बोले”मां आपको ऐसे नहीं सुनना चाहिए था उनकी बातें।”प्रज्ञा ने कहा”मैं क्यों डरूं,जब करने और कहने से बच्चे नहीं डरते,तब बड़े सुनने से क्यों डरें।”अपनी बेटी और बेटे के सामने आज प्रज्ञा ने यह शपथ ले ही ली कि चाहे जो हो जाए वह बच्चों की मर्जी के हिसाब से कहीं नहीं रहेगी।अरे सारी ज़िंदगी तो हमने निकाल दी उन्हें पढ़ाने-लिखाने,स्थापित करने,शादी करने में।

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अब बुढ़ापे में मां-बाप को भी आराम कर जरूरत होती है।नाती पोते को संभालना पुण्य है पर अपने तरीके से अपने घर में।दूसरों के घर में ,दूसरों के हिसाब से रहना सहज नहीं होता।बेटी को अपनी मां इसलिए चाहिए ताकि साधिकार हुकुम चला सके,सास से तो नहीं कह पाएगी।

बाहर घूमने ले जाने में भी खुद का स्वार्थ है,बच्चे की देखभाल हो जाएगी।बाप रे!इतनी भाग-दौड़ कहां हो पाती है बुढ़ापे में।प्रज्ञा ने साफ -साफ कह ही दिया”देखो यह सच है कि मैं और तुम्हारे पापा ज्यादा कहीं घूमने नहीं जा पाए, मजबूरियों की वजह से,पर हमें टूर का उपहार देने की जरूरत नहीं।हमें तुमसे किसी उपहार की जरूरत नहीं बस सम्मान और सुरक्षा चाहिए। इस्तेमाल हमने कभी नहीं किया रिश्तों का तो यही उम्मीद भी करेंगें कि हमें भी इस्तेमाल मत करना।

हम दोनों लड़-झगड़कर साथ में खुश रह देंगें,अपनी शर्तों पर,हम पर अपनी मर्जी मत थोपना कभी,मैं सह नहीं पाऊंगी।मुझे इस बात का संतोष हमेशा रहेगा कि मैं अच्छी बेटी,बहन,भाभी,बहू और मां बनी।अगर अच्छी दादी या नानी नहीं बन पाई तो कोई अफसोस न होगा।”प्रज्ञा बोलते हुए रोने लगी थी,बेटी घबराकर तुरंत बोली”मम्मी,चुप हो जाओ ना।मैं कभी तुम्हें नहीं बुलाऊंगी अपने बच्चे की देखभाल करने।

तुम अपनी खुशी से आना ,बस।”प्रज्ञा ने तुरंत आंसू पोंछते हुए बेटे की तरफ देखा तो वह भी तपाक से बोला”हां!हां तुम बहुत ख़तरनाक दादी होगी।हमें जैसे डांटकर और मारकर हिटलर की तरह पाला है,मेरे बच्चों को मत पालना तुम मां।”उनकी बात सुनकर प्रज्ञा हंसने लगी और बोली”बेटा , मां-बाप सांस भी देतें हैं तो अपने बच्चों की सलामती की दुआ के साथ।

उम्र होने से शरीर तो कमजोर हो ही जाता है, मान-सम्मान का बोध भी बढ़ जाता है। तुम्हारी जरूरत में हम काम न आए ,ऐसा कभी नहीं हो सकता ।बस इतना याद रखना हम मां-बाप हैं फुटबॉल नहीं।हमें जरूरत के हिसाब से यहां -वहां ले जाने का अधिकार नहीं है तुम्हें।”

आज प्रज्ञा के मन से बहुत बड़ा बोझ उतर गया था।

शुभ्रा बैनर्जी

SPT

1 thought on “मां-बाप हैं फुटबॉल नहीं –   शुभ्रा बैनर्जी  : Moral stories in hindi”

  1. वर्तमान स्थिति के यथार्थ को चित्रित करती हुई..कहानी
    अति सुन्दर ,👌

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