बड्डे बिस्तर पर पड़े हैं, जैसे हड्डियों का ढांचा हो। पुराने बंगले के पीछे नौकरों के लिए बने मकान में दो मकान को जोड़कर बनाए हुए जर्जर घर मे। किसी जमाने मे ये बंगला इस गांव की अधिकांश जमीन इन्ही की हुआ करती थी। तालाब खेत खलिहान सब। किसी जमाने मे अंग्रेजो ने किसी बात पर नम्बरदार की उपाधि दी थी
इनके पुरखो को। फिर जाने कब कैसे ये नम्बरदार से लम्बरदार हो गए। मैं सालो बाद मिल रहा इनसे। नदी पर बांध बनाने के लिए रिसर्च टीम के साथ इस इलाके में आया हूँ। तो सोचा पास ही तो गांव है इनका मिल लिया जाए।
बड्डे के हाथों में मेरा हाथ है। ठंडा, लिजलिजा कमजोर हाथ। बड्डे का मतलब मेरे बाबा नही, दूर के किसी रिश्ते में मेरी पत्नी के बड़े भाई लगते हैं। कुछ तीस साल पहली बार मिला था मैं उनसे जब हम शादी के बाद पचमढ़ी गए थे। अलसुबह हम घूमने निकले थे पैदल तो एक बंगले के गार्डन में वे अपनी पत्नी के साथ बैठे हुए थे।
उन्होंने ही देख कर आवाज दी। हमसे नाश्ते के आग्रह किया, फिर हम वहां से दोपहर बाद ही निकल पाए। इतने देर में उनकी महागाथा जानने को मिली। बातो बातो में मैंने पूछा क्या करते हैं।
तो बोले “कुछ नही”, जरूरत नही पड़ी कभी कुछ करने की। इतने सारे लोग है काम करने को। हम केवल देखरेख करते हैं कि वो काम करते हैं या नही। फिर जोर का ठहाका लगा हंस पड़े। गर्मियों में हम भाई एक एक महीना यहां रहने आते हैं, छुट्टियां मनाने।पिताजी ने अंग्रेजो की सेवा के लिए बनवाया था इस बंगले को।
मुझे उनकी किस्मत पर रश्क हुआ। मैं इतना पढ़लिख कर मामूली सा सरकारी मुलाजिम,और इन्हें देखो।
फिर ससुराल की शादी में कभी कभार जाना हुआ तो मुलाकात हो जाती थी। उनका अहंकार, बड़े होने का भाव, हर जगह दिखाई देता था। चूंकि बड़े आदमी थे तो यूँ ही किसी रिश्तेदार के यहां जाना अपनी हेठी समझते थे। और उनके घर कोई जाता नही था।
एक बेटा था उसे भी अपनी तरह शिक्षा दी थी उन्होंने। सो पढ़ाई लिखाई में पीछे, और बाकी धतकरम में सबसे आगे। कहते हैं न बैठे बैठे खाने से तो कुबेर का खजाना भी खाली हो जाता है।
खेत मे बीज न पड़े तो वो बंजर हो जाता है। इनका भी यही हाल हुआ। जो भी बड़ा काम आया खेत बेच कर निपटाया। मुंशी के भरोसे होने वाली खेती धीरे धीरे कम होने लगी। फसल कम हुई तो आमदनी भी। मुंशी का घर बड़ा होता गया इनके घर का सामान कम।
बेटा भी गजब निकला, एक बार बम्बई घूमने गया तो वहां की हवा लग गई। फिर तो जब मन करता, तिजोरी से पैसे मारता और गायब। फिर जब पैसे खत्म हो वापस। एक बार तो महीनों नही लौटा तो किसी जानपहचान वाले ने बताया कि वहां एक छोटे से होटल में वेटर का काम करता है। चार समझदारों को लेकर समझाबुझाकर वापस लाये।
कुछ दिन तो सब ठीक चला फिर एक रात घर के गहने पैसे लेकर फिर फरार हो गया। महीनों बाद एक चिट्ठी मिली जिसमे लिखा था, एक नेपाली लड़की से शादी कर ली है और अब वो नेपाल के किसी शहर में है। इस खबर से टूट गए बड्डे। औलाद कितनी भी नालायक हो प्यारी होती है, एक आस थी कोई उम्मीद थी जो इस चिट्ठी के साथ खत्म हो गयी।
फिर तो जैसे दीमक लग गयी जीवन मे, सम्पत्ति में। धीरे धीरे सब झरने लगा। घर, खेत, बंगले सब बिक गए। और वो आज इस हालत में हैं।
उनके हाथ मे हरकत हुई, धीमी आवाज आई। लाला जी, सब करम को फेर ठहरो। बुजुर्गों ने बड़ी मेहनत से सब सँवारो, हमने नास कर दओ। सालो बाद जे चौखट पे कोई आओ है। हम खाने को भी न पूछ सकत आज। धरती, खेत, की इज्जत न करी हमने तो आज मोहताज हो गए हम। न मोड़ा को अच्छी सिक्षा दे पाए। जाने कहाँ होगो बेचारो। सालो से कोई खबर ना है ओकी। अब तो राह देखें हैं कि जमराज आकर ले जाएं।
बूढ़ी उदास आंखों से एक बूंद टपक पड़ी। मैंने उनकी नजरो से छिपाकर कुछ रुपये उनके तकिए के नीचे दबा दिए। हौले से हाथ छुड़ाकर पैर छुए और भारी कदमो से बाहर चला आया। मकान के पीछे एक बूढ़ा पीपल का पेड़ इंतज़ार कर रहा है कब आंधी आये और कब वो जमींदोज हो।
संजय मृदुल
रायपुर