“क्यों हम छोटे शहर वालों को सपने देखने का हक नहीं है क्या?” – ज्योति आहूजा|

यह कहानी है छोटे से शहर की रहने वाली एक ऐसी लड़की संध्या की जिसके सपने ऊंचे आसमान में उड़ने के थे|  बहुत ऊंचा उड़ना चाहती थी वह| दबंग इतनी कि पूछो मत, जो मन में वही जुबान पर था उसके|

परिवार में पिता आलोक, मां जानकी, एक बड़ी बहन सुरभि और दादी सुमित्रा देवी रहते थे| छोटा शहर होने की वजह से आलोक जी अपनी दोनों बेटियों सुरभि और संध्या को वहां के एक बहुत ही साधारण स्कूल में पढ़ा पा रहे थे|

आलोक जी की आर्थिक स्थिति भी कोई बहुत मजबूत नहीं थी| जितनी कमाई वे करते थे उस कमाई में पांच व्यक्तियों का गुजारा और ज्यादा से ज्यादा दोनों बेटियों की स्कूल की फीस ही भरी जा पाती थी|

बड़ी बेटी सुरभि 12वीं कक्षा में और संध्या आठवीं में पढ़ती थी| जहां सुरभि कम बोलने वाली बहुत ही शांत थी| वही संध्या दबंग, खूब बोलने वाली और  गलत बात बिल्कुल भी बर्दाश्त करने वाली नहीं थी| जो उसके मन में था वही उसकी जुबान पर| और उसके सपने उसकी जुबान से भी बड़े थे|

अपने घर के ऊपर से गुजरते हवाई जहाज को देखकर वह हमेशा कहती थी” एक दिन मैं भी हवाई जहाज  उड़ाऊंगी|

1 दिन स्कूल से घर वापस आने के बाद संध्या अपनी मां से कहती है”मां वह अंकल जो हवाई जहाज उड़ाते होंगे| उन्हें डर नहीं लगता होगा क्या? कितने निडर होंगे ना वह|

आसमान में कितनी ऊंचाई पर जाकर वे हवा से बातें करते होंगे|

संध्या ने फिर अपनी मां से कहा”मां एक दिन मैं भी पायलट बनूंगी| और आसमान को छू लूंगी|

संध्या की यह सब बातें उसकी दादी सुमित्रा देवी सुन रही थी|

सुनते ही कहती| “यह देखो मूंग और मसूर की दाल|

इसकी बातें तो देखो अभी से कितनी बड़ी बड़ी हो गई है| हवाई जहाज  उड़ाएगी  अब ये  छोरी|




यहां दो वक्त की रोटी की मारामारी है| और यह आसमान को छूने के सपने ले रही है|

चुपचाप बैठ| इतने बड़े-बड़े सपने ना देख कि बाद में दुख हो| समझी|

यहां तेरे पापा बड़ी मुश्किल से 5 लोगों का खर्चा उठा पाते हैं| तुम दोनों की स्कूल की फीस भी भरनी होती है|

कोई जरूरत नहीं है इतने बड़े-बड़े सपने देखने की|

यह सब बातें सुनकर संध्या को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं हुआ दबंग जो ठहरी| अपने हक के लड़ना तो जैसे वह जानती ही थी| तुरंत दादी की बात का विरोध करते हुए तुनक कर बोली”आप  तो रहने ही दो अम्मा! आपसे  थोड़े हीमैं अपने मन की बात कर रही हूं| आप  तो शुरू से ही नहीं चाहती कि हम कुछ करें|

बिल्कुल एक फिल्म के विलेन की तरह है आप तो| हर काम में आपको टांग अड़ाने की आदत है|

इतने में गुस्सा करती हुई दादी कहती है| “देखो तो इसकी जुबान कैसे कैंची की तरह चलने लग गई है| देख रही है जानकी| संभाल अपनी बेटी को| जिस तरह से इसकी कटर कटर जुबान चल रही है बड़े होकर कोई ब्याह भी नहीं करेगा इससे|

इतने में संध्या कहती है| जुबान आपने ही तो खुलवाई है अम्मा| और क्या” ब्याह ब्याह  क्या करती हो आप| अभी छोटी हूं मैं| कुछ बनकर ही ब्याह की सोचूंगी|

इतने में जानकी कहती है” माफी मांग ले बेटी अम्मा से| बड़ी है तेरे से|

तभी संध्या कहती है | “मैंने ऐसा क्या बोला? मैंने अपने मन की बात ही तो बोली है| वो भी आपसे| अम्मा मुझे फालतू का सुनाने लग गई है|

जो लोग कम पैसे वाले होते है या जिनके पास सीमित साधन है या जो लोग छोटे शहरों में रहते है| क्या उनके बच्चो को सपने देखने का कोई हक नहीं| मैंने ऐसा क्या गलत सोचा| मैं पायलट बनना चाहती हूं| यही तो बोला|

मैं अम्मा से माफ़ी नहीं मांगूंगी|

ऐसा कहकर वह अपने कमरे में भाग गई|

उसकी तरफ से मैं माफी मांगती हूं| बहू ने सास से माफ़ी मांगते हुए कहा|

जरा संभाल इसे बहू| लड़की जात है कुछ सालो में हाथ पीले होने को है|

कह दे इसे| हमारे घरों में लड़की को बाहर नहीं निकालते| ना कहीं दूर बाहर पढ़ने भेजते है ना ही कोई कोर्स वॉर्स कराने| समझी तू|

इस पर बहू ने भी बेटी का साथ देते हुए कहा| ” पर मांजी अनिता दीदी( ननद) के बच्चे भी तो कितने होशियार बन रहे है| बड़ी लड़की भी मेडिकल के लिए कोशिश कर रही है | हमारी सुरभि के साथ की तो है|




इतने में ये सब बातें कमरे में गई संध्या सुन रही होती है| तो वह गुस्से में कहती है” अम्मा बुआ का ब्याह बड़े शहर में क्या हो गया उन्हें हर चीज की छूट है| आरती दीदी और निखिल भईया ( बुआ के बच्चे) जब भी यहां आते है| कितना नाटक करते है| हमें चिड़ाते है| छोटे शहर के हिन्दी मीडियम के लोग कह कह कर मज़ाक उड़ाते हैं|

उस पर जब मैं उन्हें कुछ कहती हूं तो आप उन्हें कुछ कहने की बजाय मुझे आंख दिखाती हो| मैं यह सब नहीं सहती चाहे जो कोई  कुछ  मर्जी मेरे बारे में सोचे| जब वे कुछ कहने के लिए नहीं सोचते तो हम चुप क्यों बैठे?

मैं भी उन्हें दिखा देना चाहती हूं कि छोटे शहरों में रहने वाले हिन्दी मीडियम में पढ़ने वाले बच्चे भी सपने देखने और उन्हें पूरा होने का हक रखते है| बस बड़ों का साथ मिलना चाहिए| और अब जमाना बदल रहा है अम्मा| लड़कियों को भी बाहर जाकर कुछ बनने से नहीं रोकना चाहिए|

तब दादी कहती है| ” ये उनके घर का मामला है| दामाद जी अच्छा कमाते है| अपने दोनो बच्चो को अच्छी शिक्षा दे रहे है| तो इसमें हर्ज ही क्या है|

तभी बहू जानकी बीच में बोल पड़ती है” यही तो मैं कह रही हूं| ये भी अपनी बच्चियां है| ये जो बनना चाहती है इन्हें क्यों रोका जा रहा है?

यदि अब हम लोगों की आर्थिक स्थिति थोड़ी खराब है तो इसमें  लड़कियों का क्या दोष?

और वैसे भी कई साल है अभी| तब तक तो काम अच्छा चल ही पड़ेगा| पैसे की कोई तंगी नहीं होगी| कुछ ना कुछ इंतजाम हो ही जायेगा| वैसे भी संध्या पढ़ाई में भी ठीक ठाक है| कोशिश करने में हर्ज क्या है?मां जानकी ने सास को कहा|

तब सब सुनकर सास कहती है” देखते है क्या होगा| राम ही जाने|

इस तरह कई साल निकल गए|

जैसे जैसे साल बीत रहे  थे| संध्या के सपनो को उड़ान मिल रही थी| पायलट बनने के लिए जिन जिन क्षेत्रों में निपुणता चाहिए वह कोशिश कर रही थी कि पढ़ाई के साथ साथ उन पर भी ध्यान दे सके| हिन्दी माध्यम में पढ़ने की वजह से उसकी अंग्रेजी कमज़ोर थीं| उस पर भी पकड़ मजबूत करने की वह दिन रात भरपूर कोशिश करती थीं | अंग्रेजी शब्दकोश का सहारा ले ले कर उसकी भाषा में भी काफी सुधार आ गया था |

संध्या ने छोटे बच्चों को भी ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया था ताकि कुछ रुपए जोड़ पाए|

इस बात से उसकी मां जानकी बहुत खुश थी कि मेरी बच्ची कितनी समझदार और बड़ी हो गई है|




पिता जी पहले कुछ सालों में संध्या के पायलट बनने की बात के पक्ष में नहीं थे| क्योंकिउन पर उनकी मां का दबदबा था|

परन्तु धीरे धीरे जब अपने बहन के बच्चों को ऊंचा चढ़ते देख रहे थे तब उनके मन में भी अपने बच्चो को ऊंचा बढ़ते देखने की तमन्ना जाग्रत हो ही गई|

तब तक संध्या और बड़ी हो गई थी| और अपने इरादों में मजबूत भी|

उसने मां और पापा को प्यार से समझाया” मम्मी!पापा! सुरभि दीदी की इतनी जल्दी शादी करके सही नहीं हुआ| वो किसी से कुछ कहती नहीं थी| पर उन्हें भी हक था अपने अरमानों को पूरा करने का| तो उस समय मैं बहुत कुछ नहीं कह पाई|

परन्तु मैं अपने इरादों की पक्की हूं|

आप दोनो मेरा साथ दे या ना दे| परन्तु कोई ना कोई रास्ता तो अवश्य निकल जायेगा|

दादी भी अब थोड़ी और बूढ़ी हो गई थी| ज्यादा कुछ ना बोल पाई थी अब वह|

पिता आलोक जी ने बेटी और पत्नी से कहा| “मैंने कुछ साल पहले एक एफडी कराई थी| वो तुड़वाने का समय आ गया है| थोड़े रुपए जोड़े थे तेरे इस बाप ने कि ज़रूरत के समय काम आयेंगे| जिसके बारे में मैंने किसी से कभी कुछ नहीं कहा था| बेटी कुछ बातें ऐसी होती है जो मन में ही रहे तो अच्छा|

समय आने पर अपने आप पता चल ही जाता है|

सुरभि की शादी तो इन सालो में थोड़ा बहुत जो बचाया उससे हो गई| उसके ससुराल वालों ने भी कुछ मांग नहीं की तो मेरे लिए बोझ कम हो गया|

मैं किस्मत वाला हूं कि मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई|

और  तू ये समझ ले कि तेरे आसमान को छूने का जो सपना है वो अधूरा ना रहे उसके लिए ये फिक्स्ड डिपॉजिट बचा रह गया|

और सच कहूँ  यदि ये नहीं भी होता तो एक बाप की हैसियत से कुछ तो करता ही!

अब दादी की एक ना चलेगी| तू भी अपने सपने अवश्य पूरे करेगी|

बता कैसे तेरा साथ देना है| किस काम में मेरी जरूरत पड़ेगी?

इस पर खुश होते हुए संध्या कहती है”आज ही पायलट बनने के लिए जो कार्यवाही होती है मैं उसका पता करती हू|

और आभार प्रकट करते हुए मां और पिता जी के गले लग जाती है|

दोस्तों, कहानी के माध्यम से यह बताने की कोशिश की गई है कि ज़रूरी नहीं कि हर समय हमारे मन मुताबिक  परिस्थिति हो चाहे वह घर हो या कार्यस्थल| कई बार महिला को या एक लड़की को एक योद्धा बन कर लड़कर  कह सकते हैं विरोध दर्शा कर जीवन में कुछ प्राप्त करना पड़ता है जैसा संध्या ने किया|

आपको ये कहानी कैसी लगी|

 

अवश्य बताएं|

ज्योति आहूजा|

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