उनकी पोती के जन्मदिन की पार्टी खूब जोरों-शोरों से चल रही थी. कोविड की एहतियात के मद्देनजर उनकी बहू ने अपने पाँच-छः पारिवारिक मित्रों के साथ एक छोटी सी पार्टी का ही आयोजन किया था. अपनी-अपनी पसंद के अनुसार प्लेटों में स्नैक्स लेकर सभी मित्र यहाँ-वहाँ गपशप में मशगूल थे.
पुरुष वर्ग अपनी राजनीतिक तथा व्यापारिक चर्चाएं कर रहे थे तो सभी बच्चे उनके लिए नियत एक अलग स्थान पर धमाचौकड़ी मचा रहे थे. महिला मित्र बार-बार बच्चों को स्नैक्स के लिए पुकार रही थीं, किंतु बच्चे सुनने को तैयार नहीं थे.
आखिरकार महिलाओं ने,यह सोचकर कि मांओं को खाते देखकर बच्चे स्वयं उनके पास आ जाएंगे,अपनी-अपनी प्लेट तैयार की और एक साथ बैठकर स्नैक्स का आनंद उठाने लगीं. गपशप का दौर यहाँ भी जारी था.
तभी उनकी बहू अपनी नई मित्र अरुणा से उनका परिचय करवाने के लिए उन्हें इन सखियों के पास ले आई. उसकी अन्य सभी मित्र न केवल पहले से उनसे परिचित हैं,अपितु उनकी खुशमिज़ाजी से भलीभांति घुली-मिली हुई हैं.अतः बहू तो उनका परिचय करवाकर अन्य मेहमानों की तरफ चली गई, किंतु उसकी सखियों ने उन्हें भी उनके पसंदीदा स्नैक्स की प्लेट देकर अपने साथ गपशप में शामिल कर लिया.
आज के चलन के अनुसार उनकी बहू स्वयं और उसकी ये सभी मित्र नौकरीपेशा महिलाएं हैं और अलग-अलग कंपनियों में कार्यरत हैं. सो, बातचीत के दौरान उन्होंने सहज भाव से ही अरुणा से भी पूछ लिया,
“बेटा ! आप किस कंपनी में नौकरी करते हो ?”
लेकिन यह क्या ! प्रश्न सुनते ही अरुणा एकदम असहज हो उठी. फिर चंद क्षणों में ही अपने को सहज करके बड़े आत्मविश्वास से हँसते हुए बोली,
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“नहीं आंटी जी ! मैं किसी कंपनी में काम नहीं करती. मेरा घर ही मेरी कंपनी है. मैं एक ‘हाउस वाइफ’ हूँ.”
अब असहज होने की बारी उनकी थी कि अपनी पहली मुलाकात में ही वे बच्ची को लज्जित (एमबैरेस्ड) कर बैठीं, किंतु अपनी झेंप मिटाने के लिए वे भी खिलखिला पड़ीं,
“हां बेटा, अपने घर से बड़ी कंपनी तो कोई हो ही नहीं सकती. मेरी बहू एक दिन जिक्र कर रही थी कि माँ हमारे ग्रुप में एक ‘ किचन क्वीन’ सदस्या भी शामिल हुई है. अवसर मिलने पर आपको उससे मिलवाऊंगी . वह ‘ किचन क्वीन’ कहीं तुम ही तो नहीं ?”
“हां जी आंटी !”
अरुणा थोड़ा लजाते हुए, किंतु गर्व भरी आवाज में बोली,
“मुझे नए-नए व्यंजन बनाकर सबको खिलाने का बहुत शौक है. आप इसे मेरा जुनून भी कह सकते हैं. मैं नौकरी नहीं करना चाहती थी. विवाह के पश्चात् मेरे पति ने मेरे इस शौक की सराहना करके मुझे बहुत प्रोत्साहित किया. यहां तक कि किसी प्रकार की आर्थिक सीमा न होते हुए
भी वे बाहर होटलों में खाने की बजाय मेरे द्वारा बनाए गए व्यंजनों को ही प्राथमिकता दिया करते थे. इससे मेरे शौक को और बढ़ावा मिला और पति को पौष्टिक आहार.”
मुख पर एक मीठी मुस्कान लाते हुए उसने अपनी बात बढ़ाई,
“उन्होंने मेरी किचन को ‘अनोखे स्वादों वाली प्रयोगशाला’ नाम दिया था. फिर, बच्चों के लालन-पालन में भी मेरी इस प्रयोगशाला में नए-नए प्रयोग होते रहे और मेरा यह शौक और निखरता गया.बाहरी भागम-भाग और मानसिक दबाव के बिना
अपने बच्चों का लालन-पालन करने तथा समय के अभाव की खींचतान की बजाए शांतिपूर्वक अपने घर की देखरेख के उदेश्य से मैंने नौकरी नहीं की. अब बच्चों के स्कूल जाने से पर्याप्त समय मिलते ही मैं इस मित्र मंडली में सम्मिलित हो गई हूँ. मेरे द्वारा बनाए गए विभिन्न स्वादिष्ट व्यंजनों का आनंद उठाकर ही इन्होंने मुझे ‘ किचन क्वीन’ कहना आरंभ कर दिया है.”
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अब तक उनके मुख पर सहमति भरी मुस्कान आ चुकी थी.कुछ क्षण रुककर वह फिर बोली,
“वैसे सच कहूँ आंटीजी, ‘ किचन क्वीन’ के नाम से पुकारे जाने पर मुझे भी कंपनियों में कार्य किए जाने से मिलने वाली पहचान जैसा ही गर्व महसूस होता है। पहचान तो हमारी कार्य कुशलता से ही होती है न ? मेरे द्वारा बनाए गए नए-नए व्यंजनों को खाकर जब सबके चेहरे खिल उठते हैं तो मुझे भी अजीब सी आत्म संतुष्टि मिलती है। हां, इसके लिए बस मुझे पैसा ही नहीं मिल रहा है.”
उन्हें बड़े ध्यान से अपनी बात सुनते देखकर अरुणा पुनः बोली,
“जीवन में पैसा ही तो सब कुछ नहीं होता न आंटी जी. क्या घर से बाहर जाकर काम करने से ही हमें पहचान मिलती है ? जब मेरी ये मित्र सखियां मुझसे इन व्यंजनों की विधियां पूछती हैं और जब मैं अपने बच्चों को आराम से उनके पसंदीदा टिफिन तैयार करके स्कूल भेजती हूँ और वे घर आकर अपने मित्रों द्वारा उनके टिफिन शेयर करने के लिए की गई झपटाझपटी के किस्से मुझे सुनाते हैं तो मुझे तो उसमें भी अपने शौक की पहचान दिखती है, किंतु न जाने क्यों आजकल केवल ‘वर्किंगवूमैन’ होना ही महिला की पहचान का प्रमाण माना जाता है?”
उन्हें अपराध बोध सा होने लगा था कि संभवतः आज अनजाने में ही उन्होंने अरुणा की दुखती रग पर हाथ रख दिया है. अतः उसकी सराहना करते हुए वे बोलीं,
“नहीं बेटा! आत्मसंतोष ही तो सुखमय जीवन का मुख्य आधार है. हम सबको अपना जीवन सुख और शांतिपूर्ण तरीके से जीने का निर्णय लेने का पूरा अधिकार है. एक का निर्णय जरूरी तो नहीं न कि दूसरे को भी सही लगे ? हमारा निर्णय दूसरों को पसंद नहीं, इससे हम गलत नहीं हो जाते और दूसरे का निर्णय हमें पसंद नहीं है तो इससे वह गलत नहीं हो जाता है.”
“हां जी आंटी !”
कहते-कहते उसके चेहरे पर मुस्कान आ गई थी. सहसा वहां बैठी अपनी अन्य सखियों को भी इस वार्तालाप को सुनते देखकर वह सचेत हुई और खिलखिलाते हुए बोली,
“आंटीजी! फिर, इस रविवार आप हमारे घर आइए न.मैं अपनी प्रयोग शाला में आपके अनुभवों को भी शामिल करना चाहूंगी.”
और ‘जरूर’ कहते हुए वे भी मुस्कुरा पड़ीं.
उमा महाजन
कपूरथला
पंजाब