आज फिर सुबह से घर में सन्नाटा पसरा हुआ था… राजू मां के कमरे में गया तो मां गठरी बनी कोने में तकिया लगाए पड़ी थी…
पिताजी बगल में कुर्सी पर बैठे खिड़की के पास अखबार देख रहे थे… राजू मां के पास झुक कर मां को थोड़ा हिलाते हुए बोला…” क्या हुआ मां अब तक क्यों पड़ी हो… उठो ना… घर कैसा तो खाली लग रहा है…!”
मां दूसरी करवट घूम कर बोली…” उठती हूं जरा देर में… तुम जाओ दफ्तर… मुझे काम ही क्या है…!”
राजू थोड़ी देर खड़ा रहा फिर निकल गया…
सुमन चुपचाप रोटियां सेक रही थी किचन में… उसके पास जाकर बोला…” क्या हुआ… देख रहा हूं मां भी चुपचाप पड़ी है… तुम भी चुप हो… कुछ हुआ क्या… आजकल सब गुमसुम क्यों रहते हो…!”
सुमन जरा तेज आवाज में बोली…” आपको क्या कुछ हुआ भी तो… आप जाइए दफ्तर… यह तो रोज का नाटक है… एक दिन का सर दर्द हो तो कोई बोले ना…!”
आवाज मां के कमरे तक जा चुकी थी… मां भी तमतमाती उठकर आ गई…” हां राजू… तू जा… और शाम की ट्रेन का टिकट कटा देना हमारा… अब नहीं रहना यहां… देख ले आज का हो जाए तो बहुत बढ़िया… नहीं तो कल का तो करवा ही देना… मुझे भी इस तरह पड़े रहना अच्छा नहीं लगता…!”
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राजू दोनों के बिगड़े तेवर देख कर आगे कुछ नहीं बोला… चुपचाप दफ्तर निकल लिया…
शाम को घर वापस आया तो मां अपना सामान पैक कर रही थी… उसे देखते ही बोली…” टिकट ले लिया ना बेटा… कब की है…!” राजू कुछ ना बोला… मां पास आ गई…” बोल ना बेटा… कब की है…!”
” नहीं लिया मां… कहां का टिकट लूं…!”
” गांव का… और कहां का…!”
” पर मां तुम्हें वापस भेजने के लिए तो मैं यहां नहीं लाया था ना… जब कोई काम पड़ेगा गांव में तब जाना…!”
तभी पिताजी बाहर लॉन से घर घुसते हुए बोल पड़े…” नहीं बेटा… बस करो अब जाने दो हमें… दिनभर की ये उदासी… चुप्पी… घर में आदमी रहते इतना परायापन बर्दाश्त नहीं होता… जब सुमन और तुम्हारी मां की कभी बनती ही नहीं तो एक छत के नीचे कैसे गुजर हो…!”
सुमन भी वहीं खड़ी थी…” पापा जी मैंने कुछ कहा है कभी आप लोगों से… कभी कोई कमी की है… क्यों जाना चाहते हैं आप लोग… मां भी पता नहीं क्यों… हर वक्त दुखी गुमसुम गुस्से में रहती हैं… मुझे तो खुद समझ में नहीं आता… उन्हें क्या परेशानी है…!”
मां की आंखों से आंसू निकल पड़े… उन्हें रोकने की कोशिश करते बोली…” क्या करूं… तुम्हारी शादी को तीन साल हो गए… अभी तक पोते पोती का मुंह नहीं देखा… दिन रात वही खाना सोना… कोई काम भी नहीं करने देती तेरी आदर्श पत्नी… टीवी ही कितना देखूं…कोई काम को हाथ लगाओ तो… नहीं मम्मी जी… नहीं मम्मी जी… की रट लगाना शुरु करती है… मैं क्या मेहमान हूं यहां… यह घर इसका है… यही मालकिन है… बच्चे रहते तो चलो घर का काम नहीं तो बच्चे ही लटकाए रखती… पर वह भी नहीं है… मैं नहीं रह सकती अब इस तरह… हमें घर भेज दो…!”
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राजू ने रोती मां के गले में अपनी बाहें डाल दी… उनके आंसू पोंछे और सुमन से बोला…” सुमन आज के बाद मां को काम करने से रोकने की गलती कभी मत करना… जो मन हो उसे करने देना… और मेरी प्यारी मां तेरी दादी बनने की ख्वाहिश भी हम जल्दी ही पूरा करेंगे… चलो अब वापस जाने की जिद छोड़ दो… तुम्हारे बिना मेरा भी मन नहीं लगेगा… फिर तो नौकरी भी छोड़नी पड़ेगी… बिठाकर खिलाना फिर मुझे जिंदगी भर…!”
बेटे की बात सुन मां पिता की आंखों में आंसू आ गए… पापा ने आंसू पोंछते हुए कहा…” चलिए अब बेटा इतनी जिद कर रहा है तो जाइए हमारे लिए अपने हाथों से चाय तो बनाइए… आज इसी बात पर इतने दिनों बाद आपके हाथों की चाय पीने का मजा आ जाएगा… क्यों बहू…?”
बहू भी मुस्कुरा कर बोली…” मां मैंने सोचा आप काम करके गुस्सा होंगी… मुझे क्या पता था आप काम नहीं करके गुस्सा हैं… माफ कर दीजिएगा मुझे… मैं आपको अब नहीं रोकूंगी कभी… चलिए जो मन आए कीजिए… आप हैं घर की मालकिन… मैं नहीं…!”
मां अपने खुशी के आंसू पोंछती चाय बनाने रसोई की तरफ चल दी…
स्वलिखित
रश्मि झा मिश्रा
#उसकी बात सुन मैं बाप की आंखों में आंसू आ गए