“बेटी के मोह में सही-गलत का फर्क भूल गई थी” समाज तो यही कहता था उसे।
पर आज सबकुछ सिर्फ सही हुआ है।
अतीत में डूबती चली गई आँसू।
न जाने क्या सोचकर माँ-बाप ने नाम आँसू रखा था। माँ बाप की दूसरी बेटी थी, शायद बेटे की चाह होगी,…और हो गयी आँसू। हमेशा आंसू ही बहाती रही, और कभी-कभी तो पीनी पड़ी,…खून के आँसू। आँसू अपने नानी के यहाँ पली-बढ़ी थी, सरकारी स्कूल में पढ़ती थी, दसवीं के बाद शादी कर दी गयी। रंजन,……शायद मंदबुद्धि था, इसलिए बिना दान दहेज के आसूं की शादी रंजन से हो गयी। माता-पिता का भार जैसा हल्का हुआ। ससुराल संपन्न था, सासू माँ से कहकर दूरस्थ शिक्षा के माध्यम से अपनी पढ़ाई जारी रखा आंसू ने।
आसूं को लगता था, पढ़ाई कर वह अपने आंसू से छूट सकती है, साथ ही, कुछ सीखने से व्यस्त भी रहती थी तो, जो नकारात्मकता, बचपन से झेला था उसने, उसे भूलने की कोशिश करती। समय के साथ एक बेटी हुई, जिसका नाम, उसने राशि रखा। बहुत प्यारी थी राशि। आंसू को तो जैसे…..हर ग़म की दवा मिल गयी थी। ज़िंदगी जीने लगी थी अब आसूं। घर, पति, बच्चों में कब उसका समय गुजर जाता, पता भी नहीं चलता था। समय के जैसे पर लग गये थे। माँ बनकर जैसे उसने पूर्णता को पा लिया था। पर ये क्या,….समय को तो जैसे,….
आंसू को रुलाना अच्छा लगता था। रंजन की मौत का पहाड़ टूट पड़ा,….आंसू की ज़िंदगी में। आँसू ठीक से खुश भी नहीं हो पाई थी कि, रोने के दिन आ गए। चार महीने की थी राशि। रंजन घर का इकलौता बेटा था। पहाड़ तो रंजन के माता-पिता की ज़िंदगी में भी टूटा। पर वो राशि और आँसू के साथ मिलकर चाहते तो इस पहाड़ सी ज़िंदगी को हल्का कर सकते थे। पर….इस समाज में एक विधवा और उसकी बेटी के साथ झूठी सहानुभूति सब रख सकते हैं, पर अधिकार या लायक नहीं समझते। रंजन के माता-पिता को अपने दुखों का कारण आसूं का दुर्भाग्य लगता था।
इस कहानी को भी पढ़ें:
आँसू बदकिस्मत है, जो रंजन नहीं रहा इस दुनिया में। साथ ही बेटी पैदा किया है, हमारे वंश का क्या होगा? अब इसको या इसकी बेटी को रखकर हम क्या करेंगे? हमें मुक्ति देनेवाला बेटा न सही काश पोता रहता। आसूं ने बचपन से दोयम दर्जे की ज़िंदगी को तो महसूस किया ही था। अब पति न रहा तो, उसकी कीमत और कम हो गयी। पर उसकी बेटी, जो उसकी ज़िंदगी है, उसकी आस, उम्मीद, ख्वाब , उसका हिस्सा और जीने का कारण। उसको वह किसी कीमत पर कमजोर न पड़ने देगी। और न ही,…खुद के तरह मनहूस, बदकिस्मत, या बेकार कहने देगी
किसी को। राशि को गले से लगाकर खुद को मजबूत किया। और अपने सास-ससुर के नजरअंदाज को नजरअंदाज कर, राशि के लिए जीने लगी। सास-ससुर ने खूब कोशिश किया, उसका घर छोड़ मायके चली जाए। अब उसको यहां रखने का क्या? भला-बुरा, ताने-उलहाने सब दिए।
पर उसने मजबूती से अपनी बातें रखी। राशि का घर यही है, इसे अपने घर में रहने का पूरा हक है, और मैं यहां से कहीं नहीं जाऊंगी। कई लोगों, अपने, परायों ने उसे, दूसरी शादी की बातें भी कही। कई लोगों ने कहा, बेटी को भी अपना लेगा। पर आसूं ने जैसे ठान लिया था, राशि के तकदीर का फैसला वो खुद करेगी।
और अपनी बेटी के भविष्य में सिर्फ खुशकिस्मती लिखेगी। वह रंजन के माता- पिता के ताने, समाज की दोहरी नीति, रिश्तेदारों की अनदेखी, अपने बेगानों सभी के द्वारा, कुप्रथा जैसे विधवा का शुभ कर्मों में तिरस्कार, बेटे की माँ न होने का अपयश, सबकुछ झेल रही थी। कई खास अपनों ने भी सलाह दिया, अभी उम्र ही क्या है, दूसरी शादी कर लो। कुछ तो कहते, तुम्हारा अपना क्या है? एक बेटी है, शादी कर ससुराल चली जायेगी, तुम तो बिल्कुल अकेली हो जाओगी। न बेटा, न बुढ़ापे का कोई साथी। मानो हमारी बात और कोई हाथ थामनेवाला कर लो। जो तुम्हें संभालेगा हर मुश्किल में।
पर आसूं के मन में राशि के खूबसूरत भविष्य के सपनों के अलावा कुछ नहीं समझ आता था। क्या अच्छा है, क्या बुरा, वो समझना ही नहीं चाहती थी। वो बस राशि को चमकते देखना चाहती थी। माँ की ममता कहो या, अपनी दबे सपने, वो राशि में पूरा करना चाहती थी। आसूं समाज को झेलती जा रही थी, इधर राशि बड़ी होती जा रही थी।
राशि को अच्छी शिक्षा मिले, सिर्फ इसका ही ध्यान रहता था आंसू को। कभी-कभी उसे लगता एक सही साथी की जरूरत है, पर…राशि के मुस्तकबिल के सामने उसे अपनी जरूरत बौनी लगती थी। और आँसू पोंछ, खुद को खुद ही अकेले संभालती। समय बीत रहा था, और राशि भी बड़ी हो रही थी।
राशि ही उसकी जरूरत, दोस्त, खुशियां सबकुछ थी अब। राशि भी जैसे अपनी माँ के उम्मीद पर खरा उतरने के लिए जी-जान से लगी थी। पढ़ाई में हमेशा अव्वल रहने वाली राशि, आज मेडिकल (नीट) में भी टॉप किया है। धीरे-धीरे रंजन के माता-पिता को भी राशि और आँसू की आदत सी हो गयी थी। आज अखबार में राशि का बड़ा सा फोटो देख,
इस कहानी को भी पढ़ें:
और साथ में अपने मृत बेटे का नाम देखकर, राशि के दादा-दादी भी फूले नहीं समा रहे थे। बहू का गुणगान गाते थक नहीं रहे थे। राशि को ही अपना भविष्य कह रहे थे। कहां गयी पोतों की चाहत, और अब तो बेटा के जाने का गम भी राशि की कामयाबी ने धुंधला कर दिया था। आसूं को भला-बुरा कहने वाले, उसको कमजोर, बदनसीब समझने वाले,
सभी आज उसे खुशकिस्मत कह रहे थे। तभी ससुर जी की उत्साह भरी आवाज ने जैसे आँसू को अतीत से जगाया। बहू, मिठाई लाकर समाज में बंटवा दो। हमारी बेटी ने टॉप किया है, ख्याल रखना मिठाई भी टॉप की होनी चाहिए। आँसू ने अपनी आंखों से बहते खुशी के आंसू पोछे, और बोले जी बाबूजी जरूर। आज आसूं सच में खुश थी, सारी पुरानी बातों को भूलकर। बस बिटिया के लिए और आगे बढ़ने की दुआ निकल रही थी, पैर धरती पर न थे आज आसूं के।
चाँदनी झा
#”बेटी के मोह में सही-गलत का फर्क भूल गई थी”