ख़्वाबों का स्वेटर: – मुकेश कुमार (अनजान लेखक)

————-

काहे री बबुनी गरमी में सुटेर (स्वेटर) बुन रहल हीं? अभी केक़रा पहनैभीं (गर्मी में किसको पहनाओगी)? गरमी में दम घुट कर मर जैतौ।

नाँय मम्मा (दादी), अभी खतीर नाँय हौ (अभी के लिए नहीं है), ठंढवा में पहनथी ने (ठंढा में पहनेंगे न)।

ठिके हौ बबुनी, कम से कम तोंय तो ध्यान दिहीं वकरा पर (ठीक है, कम कम से कम तुम ध्यान रखो उसका)

मँजू गर्मी की दोपहरी में आम के पेड़ के नीचे बैठी स्वेटर बुन रही थी। घर के अलावा मोहल्ले की भी कुछ औरतें बैठ कर गप्पों के गोलगप्पे पकाने में लगीं थीं।

वो बुढी दादी मँजू को बहुत मानती है, हमेशा बोलती है, चाँद का टुकड़ा है। योगेश की भी तारीफ़ करती है। बोलती है, योगेश सच्चा मर्द है, औरतों का सम्मान करना जानता है। जिसको योगेश से मुँह फुला कर रहना है वो रहे। योगेश का घर वो लोग थोड़े न चलाते हैं।

मँजू स्वेटर बुनते-बुनते खो गई ज़िंदगी के कुछ गुमशुदगी वाले पलों में।

कितना छेड़ती थी सहेलियाँ जब बाबा ने शादी की बात चलाई थी। लड़का बम्बई में काम करता था एक फ़ैक्ट्री में। सारी सहेलियाँ बोला करती थीं, तुम्हारा हीरो तो बम्बई वाला है, देखना बहुत बन-ठन कर रहेगा। तुमको भी हीरोइन बना कर ही रखेगा। फ़ोटो में जीतना सजीला लगता है न असल में उस से ज़्यादा होगा। दूसरी सहेलियाँ बेबाक़ हो कर बोलती, अरे ये जो दो और लोग हैं न उसमें से एक से मेरी बात चला और दूसरे से उसकी।

मँजू सरमा कर बोलती, धत्त पगली, इधर वाले उनके मौसेरे भाई हैं और उधर वाले उनके दोस्त। तुम चुडैलों से शादी करा कर उन दोनों को मुसीबत में थोड़ी न डालूँगी।

घर में हर कोई खुश दिखाई देता था, घर के कोने-कोने की सफ़ाई हो रही थी। रंगाई-पुताई से पुराना घर भी चमक रहा था। घर की बड़ी लड़की की शादी थी तो हर कोई इसे ख़ास बनाना चाहता था। इस घर में आख़िरी शादी पन्द्रह साल पहले छोटे चाचु की हुई थी।

छोटी चाची तो बेटी का रिश्ता रखती ही नहीं थी। वो तो सहेली बना बैठी थी मुझे। कितना मज़ाक़ करने लगी थी शादी तय होने के बाद:




सुन री पगली, थोड़ा वज़न घटा ले थकेगी नहीं। हल्दी-बेसन लगाया कर पती तुम्हारे उपर लट्टू बना रहेगा।

हौले-हौले बोलना सीख ले, तुम्हारी बातों से पती नशे में रहेगा।

माँ हमेशा समझाती, पती के दिल को जीत लो तो वो रानी की तरह रखेगा। ग़ुस्सा-झगड़ा मत करना, उस समय चुप ही रहना बाद में बैठ कर प्यार से समझाना। शाँत हो कर बात करो तो पती हर बात समझने को तैयार हो जाता है।

कहने का मतलब सब कोई अपना पुरा प्यार लुटा रहा था। पता नहीं ससुराल से कितने दिनों बाद मायके मिलने आना हो।

उस दिन पिताजी के लिए चाय लेकर जा रही थी तो दरवाज़े के ओट से देखा पिताजी भावुक हो कर माँ के हाथ को अपने हाथ में लेकर बैठे बोल रहे थे:

याद है तुम्हें मँजू की माँ? मँजू जब छोटी थी तो बोलती थी बाबा मैं आपसे ही शादी करूँगी। मैं घर छोड़ कर नहीं जाऊँगी। वो तो उसका बचपना था, लेकिन अब मुझे अच्छा नहीं लगेगा जब वो हमलोग को छोड़ कर जाएगी।

मैं मज़ाक़ करते हुए बाबा के कंधे से लिपट गई थी:

बस मौक़ा मिलना चाहिए, आप दोनों को, तुरंत कबूतर के जोड़े जैसा प्रेम क्रिडा में लीन हो जाते हैं।

माँ सरमा कर कमरे से निकली थी: हट पगली अभी तक बचपना नहीं गया तेरा।

शादी का दिन ज्यों ज्यों नज़दीक आ रहा था त्यों त्यों मन में सपनों के ग़ुब्बारे फ़ुल रहे थे।

उस दिन सुबह बाबा ने लड़के वालों को फ़ोन कर हाल लिया था:

समधीजी बारात ले कर कब निकलेंगे?

बस तैयारी शुरू हो गई है, शाम होने से पहले ही निकल जाएँगे।

हाँ समधीजी, चार घंटे का रास्ता है, आते-आते रात हो जाएगी। ठंढ का मौसम है, गरम कपड़े पहन लिजीएगा, और दामाद बाबू को भी पहना लिजीएगा।

सब कितने अच्छे से हो रहा था।

बारात तक़रीबन रात के दस बजे पहुँची, सब विधी-विधान करते रात के ग्यारह बज गए थे। बाबा ने देखा था हर दो मिनट बाद लड़के के पिताजी को फ़ोन आ रहा था। वो बार-बार चेहरे का भाव बदल कर बात कर रहे थे। बाबा ने उनके आख़री शब्द सुने थे, ठिक है आधी रक़म अभी ट्रांसफ़र किजीए, मेरे मोबाइल में मैसेज आ जाएगा।

अचानक लड़के को उसके पिताजी एकांत ले गए। वापस आते ही उन दोनों के हाव-भाव बदल गए थे। अचानक से खाने में कमी, चाय की कमी, पानी की कमी की बात होने लगी।




दुल्हा-दुल्हन के मंडप में बैठने से पहले समधी मिलन का रिवाज होता है जहाँ समधी को मनाया जाता है।

कुछ लोग होते हैं जो इस रस्म का भरपूर फ़ायदा उठाना जानते हैं। यहीं पर पासा फेंका लड़के के पिता ने:

मैं समधी मिलन का रस्म तभी निभाऊँगा जब बाज़ार में आई नई कार मिलेगी।

लेकिन समधीजी, वो कार तो बहुत महँगी है, तक़रीबन बीस लाख।

हाँ तो वो आप समझिए, हमें चाहिए मतलब चाहिए।

बहुत मनाया गया लेकिन वो नहीं माने।

बाबा बहुत उदास हो कर घर के अंदर आए थे। दो घंटे के अंदर कार ला कर देने की शर्त रख दी गई थी। समय के साथ-साथ बाबा के आँसू भी निकल रहे थे। बाबा को रोते हुए पहली बार देखा था।

मुझसे रहा नहीं गया और ग़ुस्से में बोल पड़ी “बाबा मुझे नहीं करनी इस लालची परिवार में शादी”

बाहर जा कर आप मना कर दिजीए।

लड़के का फूफा कान लगा कर दीवार की ओट में सब सुन रहा था। जा कर लड़के के पिता को बोल आया।

ए क्या! अब तो बाज़ी पलटने लगी। नहीं ऐसा नहीं हो सकता, लड़की ने मना किया तो वापस जा कर समाज में क्या मुँह दिखाएँगे?

आनन-फ़ानन में नया उपाय खोज लिया गया। “यह लड़की बहु बनाने के लायक़ नहीं है”, “बहुत बदतमीज़ी कर रही है”, “बड़ों का सम्मान करना नहीं जानती है”




अब तो बाबा समझ चुके थे की बात कुछ और है ए लोग जानबूझकर बेइज़्ज़ती करना चाहते हैं। इनका क्या है? ए तो लड़के वाले हैं, इन्हें दूसरी लड़की मिल जाएगी लेकिन मेरी बेटी की शादी हो पाना बहुत मुश्किल हो जाएगा।

बाबा ने लड़के के पिता के आगे अपनी पगड़ी रख दी और मान-सम्मान की गुहार लगाई। लड़के वालों ने एक न सुनी और मंडप में बैठे लड़के को आधी पुजा से ही उठा दिया।

बाबा बहुत रो रहे थे, लड़के के पिता और लड़का दोनों हिक़ारत भरी नज़रों से गले में पड़ी माला (स्वागत वाली माला) तोड़ कर फेंकते हुए अपनी गाड़ी की तरफ़ बढ़ने लगे। लगभग सभी सौ कदम दूर जा चुके थे, परन्तु योगेश अपना माथा पकड़े चुपचाप कुर्सी पर बैठे रहे। एक तरफ़ सारे बाराती जा चुके थे तो दूसरी तरफ़ ज़ोर ज़ोर से रोना शुरू हो गया।

सब रोने वालों के बीच योगेश आ कर छ: वाक्य ही बोले थे “मेरा नाम योगेश है”, “मैं भी आपकी ही जाती का हूँ”, “मैं भी बम्बई में कमाता हूँ”, “लड़के वाले मेरे रिश्तेदार हैं”, “मेरे पिताजी गुजर चूके हैं”, “आपको ऐतराज न हो तो मैं शादी करना चाहता हूँ आपकी बेटी के साथ”

योगेश का कंधा पकड़ कर बाबा और माँ दोनों खुब रोए थे। पंडित की बातों से ध्यान हटा था “मुहूर्त का समय निकला जा रहा है”

योगेश ने एक बार मुझसे भी पूछा था “आपको ऐतराज तो नहीं?”

मैंने हाथ जोड़कर न में सर हिला दिया था।

सास बहुत अच्छी हैं, मेरा स्वागत करते हुए बोली थीं “टूट जाएँ ऐसे रिश्ते मेरी बला से”, “मेरे बेटे ने जो मान-सम्मान का मोल रखा उस पर सब न्योछावर”, “बेटा तुम इस घर को ख़ुशी से ऐसा सजा दो की बेगैरत लोग वो अपनी करनी पर मुँह छुपाने की जगह भी न मिल पाए”

बाद में उन लड़के वालों की सच्चाई सामने आ गई, मेरे घर बात चलाने से पहले भी वो लोग कहीं और भी बात चला रहे थे। लड़की की मानसिक हालत थोड़ी ठीक नहीं थी इसलिए शादी के बदले बहुत बड़ी रक़म और सड़क किनारे दो बीघा ज़मीन की बात चल रही थी लेकिन लड़के वाले पूरी ज़मीन की बात पर अड़े थे जो लगभग दोगुनी ज़मीन थी।

आख़िरकार वो लोग पूरी ज़मीन देने को तैयार हो गए थे और वो बात उसी बारात वाली रात पक्की हुई। उन लड़की वालों को ज़रा भी खबर न थी की वो लोग दूसरे के घर बारात ले कर गए हैं।

वैसे लड़के वालों को भी वहाँ से उम्मीद नहीं बची थी। लड़के के पिता का मानना था की धन संपत्ति ले कर मानसिक रुपी कमजोर लड़की से शादी कर लो बाद में बम्बई में चुपके से कोई मनपसंद लड़की से शादी कर लेना।

यहाँ पता चल भी जाएगी तो मानसिक बीमारी का हवाला दे कर सब सँभाल लेंगे।

समय की मार देखिए, उन लड़की वालों को बारात वापस जाने की बात मालूम हुई तो उन्होंने शादी से मना कर दिया। बात गुजरे तक़रीबन पाँच साल हो गए। मँजू और योगेश को दो बच्चे भी हो गए लेकिन उस लड़के की शादी भी न हो पाई अब तक।

ख़्यालों में पता ही नहीं चला कब मँजू के आँखों से आँसू लुढ़ककर स्वेटर पर गिर गए। सबसे नज़रें बचाते हुए आँखों को पोछा और फिर से लग गई ख़्वाबों का स्वेटर बनाने में।

मुकेश कुमार (अनजान लेखक)

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!