खानदान की इज्जत – चम्पा कोठारी   : Moral Stories in Hindi

भुवनेश्वरी बुआ बाल विधवा थी लगभग 16 वर्ष मैं उन्होंने  अपने पति  को खो दिया था। 40 वर्ष पूर्व जब रेखा का विवाह हुआ था तब बुआ 45 वर्ष की रही होंगी।पति की मृत्यु के बाद ससुराल  पक्ष की गरीबी और प्रताडना  से ब्यथित होकर बुआ ने मायके  की राह पकड़ी।वहाँ भी दुखी माता पिता दो छोटे भाई व एक बहन का परिवार था।

कहने को तो चाचा ताऊ का परिवार भी साथ साथ ही थे परन्तु माता पिता से ही अपनापन मिला।माँ बाप ने बेटी के दुःख को अपना समझकर,उसे गले लगाया। उस समय गरीबी और अशिक्षा का ही  साम्राज्य होता था। गॉव के लोग नितांत अभावों में जीने को विवश थे। खेतीबाड़ी, पशुपालन ही एकमात्र रोजगार का जरिया था। 

सोलह वर्ष की अल्हड़ लड़की जिसे दुःख के थपेड़ों ने असमय परिपक्व बना दिया था ने मायके आते ही सारा घर संभाल लिया।  खेती के साथ साथ दो गाय दो बैल के पालन के अलावा भाई बहनों की जिम्मेदारी संभाल ली। बुआ खुद पढ़ी लिखी नही थी परन्तु भाई बहनों को स्कूल भेजा।  अब वही उसके बच्चे थे।

पूरी तरह से अकेली पढ़ चुकी औरत को अपने परिवार का संबल, मिल जाए तो वह बहुत कुछ कर सकती है। बुआ जीवट और मेहनती थी।  रेखा का घर उनके पड़ोस में ही था। रेखा के पति  राजेश फौज में थे शादी के बाद रेखा को गॉव में ही छोड़ कर अपने कार्यस्थल पर चले गए थे।

बुआ रेखा से बड़े प्यार से बोलती थी। उस समय बहुओं पर सास ससुर और अन्य परिवार जनों की बहुत बंदिश रहती थी। रेखा भी उससे अछूती न थी।रिश्ते, में भुवनेश्वरी  बुआ सास थी पर रेखा को उसमें अपनी माँ नजर आती थी।  खेत, जंगल बुआ रेखा को साथ लेकर जाती।

रेखा के सास ससुर को उसका भुवनेश्वरी बुआ से मेलजोल पसन्द न था। उन्हें यह अंदेशा रहता था कि वह कहीं उसे परिवार के खिलाफ न भड़का दे। जो सरासर बेबुनियाद था। धीरे धीरे बुआ के भाई रमेश और शेखर पढ़ लिखकर क्रमश अध्यापक और क्लर्क बन गए।

उनके विवाह हो गए वृद्ध माता पिता दुनिया से चले गए। एकमात्र छोटी बहिन की भी खाते पीते घर में शादी हो गई। रह गई मात्र बुआ। बुआ को गांव में सभी सम्मान देते थे। वह सभी के सुख दुःख में भागीदार रहती थी। उस समय महिला प्रधानों का चलन नही था

पर बुआ अघोषित सरपंच थी। उन्होंने भरी जवानी में वैधव्य झेला था।उस समय विधवा विवाह को अच्छा नही माना जाता था। बुआ ने अपने चरित्र पर आंच नही आने दी। ग्रामवासी उनसे सलाह मशविरा करते थे। उनके दोनों भाई ट्रांसफर करके दूर चले गए। शुरू में आते थे फिर आना कम होते होते अन्त मे बंद ही हो गया।

कभी कभार छोटी बहिन मायके के नाम पर अपनी दीदी यानी बुआ से मिलने आती थी।  अब पूरा गांव ही उनका मायका था । रेखा 15 साल गाँव में रही। इस बीच बुआ के परिवार के कई उतार चढ़ाव की साक्षी रही। बुआ उसी से अपने सुख दुःख साझा करती थी। उनके भाईयों की बेरुखी से रेखा को भी दुःख होता पर वो क्या करती।

उसके अलावा बुआ ने किसी से भी अपना दुःख नही बाँटा न अपने भाईयों से कोई शिकायत की न कोई अपेक्षा रखी।बुआ को हमेशा लगता था कि जीवन के आखिरी पड़ाव में उनके भाई, उनका सहारा बनेंगे। रेखा जब तक वहाँ रही अपने परिवार के विरोध के बावजूद बुआ को पूरा सम्मान दिया।

उसके पति ने शहर में एक छोटा मकान बनवा लिया। बच्चों की अच्छी पढाई के उद्धेश्य से रेखा पति की सहमति से शहर चली गई rबुआ को पहली बार बहुत अकेलापन महसूस हुआ। तब फोन नही था। गाँव से आने जाने वालों से बुआ की कुशल क्षेम मिलती रहती थी। कभी कभी अपनी हैसियत के अनुसार वह बुआ के लिए साड़ी या खाने का सामान भिजवाती।

बाद में वह ब्यवहार भी बंद हो गया।  अब भुवनेश्वरी बुआ की उम्र 70 साल हो चुकी थी। मेहनत का काम नही होता था। ग्राम प्रधान के सहयोग से उनकी वृद्धावस्था पेंशन लग गई थी पर वो पर्याप्त न थी। जैसे तैसे बुआ अपना गुजारा कर रही थी। उनकी उम्र अब अस्सी वर्ष हो गई। आँख कान दोनों कमजोर हो गए।

  बड़ी मुश्किल से वह एक समय का खाना बना पाती। कभी पड़ोसी खिला देते।उन्ही दिनों रेखा का अपने गांव की कुलदेवी की सामूहिक पूजा में  आना हुआ। चूंकि पूजा सामूहिक थी तो सभी प्रवासी भाई बंधुओ को सूचना देते हुए पूजा में शामिल होने के आमंत्रण दिये गये। बुआ के भाई रमेश और शेखर को भी सूचना मिली।

अधिकांश की उम्र 60 से ऊपर हो चुकी थी कुछ ने स्वास्थ्य कारणों से आने में असमर्थता जताई  इन्हीं में बुआ के भाई भी थे। बुआ को ऊँची आवाज  में बताया गया कि उनके भाईयों को भी बुलाया गया है। बुआ बहुत आशान्वित थी। सूखे मुँह में चमक आ गई थी। परन्तु वो न आये। रेखा अपने परिवार के साथ आई थी।

अब उसकी भी उम्र हो चली थी। उसने गॉव में आकर सबसे पहले बुआ से भेंट की, जब बुआ के पैर छूकर हाल चाल  पूछा तो बुआ उसे पहचान नही पाई। पहचानते ही रेखा को गले लगा लिया। उनकी और उनके घर की दुर्दशा देखकर रेखा को बहुत दुःख हुआ। उसके सास ससुर काफी साल पहले गुजर गए थे।

एक देवर दिल्ली चला गया था। पूजा निबटने के बाद  वह दो दिन गांव में रुक गई। रात को उसने अपने पति से विचार विमर्श किया बुआ की दयनीय स्थिति के कारण उन्हें अपने साथ ले जाने के लिए राज़ी किया पति पहले तो तैयार नही हुए। उन्हें डर था कि बुआ को जबरदस्ती साथ रखने से उनके भाइयों को एतराज हो सकता है।

वह अनहोनी होने पर कोई आरोप भी लगा सकते हैं। रेखा भी सोच में पड़ गई। फिर तय हुआ कि ग्राम प्रधान व गणमान्य लोगों से बात करके उनकी राय लेकर अगला कदम उठाया जाय। दूसरे दिन सर्वसम्मति से यही तय हुआ कि रेखा और उसके पति राजेश की सेवा भावनाओं का आदर करते हुए बुआ को उनके साथ भेजा जाय।

उनके भाइयों ने आज तक उनकी सुध नही ली इसलिए उनसे पूछने या बताने की जरूरत नही समझी गई। अगले ही दिन रेखा बुआ को लेकर चली गई बुआ की अंतिम अवस्था को सुखद बनाने के लिए।

खानदान की इज्जत डुबोने में हमेशा महिला जिम्मेदार नही होती।

यह कहानी कैसी लगी कमेंट  में जरूर बताएं यह भी एक सच्चा संस्मरण है।

Champa kothari

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