“आप यह कैसे भूल सकते हैं कि आप पं. सूर्यप्रताप शर्मा के खानदान से हैं। आपने सोच भी कैसे लिया कि हम आपकी शादी एक अनाथ लड़की से करने के लिए राजी हो जाएँगे?” भानुप्रताप शर्मा की गरजती आवाज से पूरा परिवार चुप्पी साधे हुए था। किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कुछ भी बोलने की। डरते-डरते अंशुमान ने सफाई देनी चाही,
“पापा! नेहा भले ही अनाथ लड़की हो, पर गुणों की खान है। एक बार आप मिलेंगे तो आप भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाएँगे।”
“हमें प्रभावित भी नहीं होना। एक खानदानी लड़की परंपराओं और रिवाजों की जितनी परवाह करती है, उसकी अपेक्षा आधुनिक परिवेश में पली लड़की से कैसे की जा सकती है? हमें तो कुछ भी नहीं पता उसके बारे में कि वह किस कुल-खानदान की बेटी है!”
“पापा! नेहा मेरे साथ पढ़ती है। वह अच्छे स्वभाव की एक खुद्दार लड़की है जो सबकी मदद करने को हमेशा तैयार रहती है। उसकी माँ एक बुटीक चलाती हैं। वे हमारी तरह धनाढ्य तो नहीं, परंतु उन्होंने अपने बच्चों को संस्कार की घुट्टी पिलाने में जरा भी कंजूसी नहीं की है। आपको एक बार उनसे अवश्य मिलना चाहिए।”
“अब आप हमें बताएँगे कि हमें किससे मिलना चाहिए और किससे नहीं?” कहते हुए भानुप्रताप की मुट्ठियाँ भींच गयीं। निर्णयात्मक लहजे में उन्होंने अपना फैसला सुना दिया…
“एक बात कान खोलकर सुन लें! नेहा और उसके परिवार से हमारा कोई मेल नहीं। उस लड़की से अपनी शादी की बात अपने दिमाग से निकाल दीजिए! शीघ्र ही आपकी शादी हम एक अच्छे खानदान में कर देंगे।”
कमरे में व्याप्त उस भारी सन्नाटे को तोड़ने की हिम्मत किसी में भी नहीं थी। अंशुमान में भी नहीं। कितनी मुश्किल से तो उसने कुछ कहने की हिम्मत दिखाई थी, वरना आज तक ‘जी पापा’… ‘आया पापा’… इसके अतिरिक्त और कुछ बोल ही नहीं पाया था।
उस दिन के बाद से अंशुमान कुछ कह तो नहीं पाया, किंतु उसकी आँखों में उदासी की तीरगी छा गयी। हरदम बुझा-बुझा-सा रहने लगा। लड़का हाथ से न निकल जाए, यह सोचकर भानुप्रताप ने आनन-फानन में एक खानदानी रईस पं. राधेश्याम द्विवेदी की पुत्री के साथ उसका रिश्ता पक्का कर दिया। पं. राधेश्याम द्विवेदी रईसी में भानुप्रताप से बीस ही थे। ऊँचे खानदान की लड़कियाँ घरों से बाहर नहीं निकलती थीं जिससे उनके व्यक्तिगत आचार-विचार के बारे में किसी को कुछ पता नहीं चल पाता था। इसके लिए खानदान को ही सर्वोपरि मान लिया जाता था। भले ही विवाहोपरांत दोनों पक्षों को समझौते ही क्यों न करने पड़े।
अंशुमान से विवाह कर कलावती अपनी ससुराल आ गयी। उसके साथ उसके मायके की महरी भी साथ आयी थी। जब तक वह रही किसी को कलावती के बारे में कुछ भी अनुमान नहीं हो पाया। अंशुमान के लिए तो यह एक समझौता था ही। उसने नियति से भी समझौता कर लिया। लोगों को दिखाने के लिए वह कमरे में जाता जरूर था, पर कलावती से कोई मतलब नहीं रखता था। मुँह अँधेरे ही कमरे से बाहर निकल आता। यहाँ तक कि वह पलंग के बजाय दीवान पर ही सोता। कलावती से उसका सामना भी नहीं होने पाता था। अंशुमान के कमरे में आने से पहले ही वह सो जाती।
घर के बाकी सदस्यों के सामने घूँघट में रहने के कारण कलावती की किसी से बातचीत भी नहीं हो पाती थी। सास-ससुर खुशफहमी पाले रहते कि शर्म के गहने से सजी अत्यंत ही सुशील और संस्कारी बहू मिली है। पूरे गाँव में यह बात मिसाल के तौर पर दुहरायी जाने लगी थी। भानुप्रताप अपनी मूँछों पर ताव देते हुए गर्वोन्नत हो कह उठते…
“खानदानी घराने की बात ही कुछ और होती है।”
परंतु अधिक दिनों तक यह दंभ कायम नहीं रह सका।
तीन महीने बाद कलावती के मायके की महरी वापस चली गयी। नयी बहू की अभी तक पहली रसोई नहीं हुई थी। शुभ मुहूर्त देख कर पहली रसोई का दिन तय हुआ। अंशुमान की बहन सीमा अपनी भाभी को रसोई में लेकर गयी। उस दिन उसे बस पकवानों में हाथ लगवा दिया गया था। सारे व्यंजन पहले से ही बने हुए थे। वैसे भी नयी-नवेली बहू से कौन काम करवाता है! पर जैसे-जैसे समय बीतता गया पर्दा कम होता गया और कलावती की पोल खुलती गयी। दरअसल कलावती एक मंदबुद्धि की लड़की थी। कितना भी सिखाओ, कितना भी समझाओ, उसके पल्ले कुछ नहीं आता था। धीरे-धीरे घर के लोगों की समझ में भी यह बात आने लगी। परंतु बदनामी के डर से इस बात को दबाया जा रहा था। कोशिश की जा रही थी कि किसी को मालूम न होने पाए कि पं. भानुप्रताप की बहू पागल है वर्ना खानदान की नाक कट जाएगी।
अंशुमान की माँ बेटे के बारे में सोचकर दुखी और परेशान थी। उसकी जिन्दगी बर्बाद करने का दोषी भानुप्रताप को ही मानती। जब-तब दबी जुबान से पति को सुना भी डालती। एक पत्नी तो कभी सिर नहीं उठा पायी थी, परंतु एक माँ कैसे चुप रहती! भानुप्रताप भी कम पश्चाताप नहीं कर रहे थे। पर अब हो भी क्या सकता था…!
‘एक लड़की की मायके से डोली उठती है और ससुराल से अर्थी’ यह बात पत्थर की लकीर मानी जाती थी खानदानी घरानों में। खानदान की वेदी पर लड़कियों के बलि चढ़ने की बात तो आम थी, पर इस बार खानदान का चिराग इसका शिकार हो बुझने की कगार पर था।
— गीता चौबे गूँज
बेंगलूरु, कर्नाटक