शालिनी सुबह से ही रसोई में लगी थी।आज उसके पति सुरेश की नंदिनी मौसी आने वाली थी।मौसी को उसके हाथ की बनी आलू की सब्ज़ी और कचौड़ियां बहुत पसंद थी।मांजी ने उसे साथ में हलवा बनाने को भी बोल दिया था तो बस.. इन्हीं सब की तैयारी में शालिनी आज जल्दी उठकर काम निपटा रही थी।साथ ही साथ उसने कुछ नाश्ता बाज़ार से भी मंगा लिया था।कामिनी (कामवाली) को भी उसने आज थोड़ा जल्दी बुला लिया ताकि वह उसके साथ थोड़ा हाथ बंटा सके।
नंदिनी मौसी वैसे तो उसी शहर में रहती पर उनका आना कम ही हो पाता।मौसी के दो बेटे थे और दोनों की शादी हो चुकी थी। दोनों बहुएं नौकरी करने वाली थी तो इसलिए उन्हें घर से कम ही फुर्सत मिलती।आखिर उनकी बहुएं उनके सिर पर ही तो बच्चों की छोड़ इत्मीनान से काम पर जा पाती और मौसी जी बहुत प्यार से अपने पोते पोती का ध्यान रखती।
नंदिनी मौसी वैसे तो शालिनी की सास सुलेखा जी से छोटी थीं पर उनकी सोच और व्यवहार अपनी बड़ी बहन से बहुत अलग था।जहां सुलेखा जी शालिनी का हाथ बंटाने में विश्वास नहीं रखती थीं वहीं नंदिनी मौसी बढ़-चढ़कर अपने घर का काम करतीं।उनके अनुसार अपने घर में ही मेहमानों की तरह हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना उन्हें अच्छा नहीं लगता और वह तो एक घंटा भी ऐसे नहीं बैठ सकतीं।
खैर घंटी बजी और नंदिनी मौसी अपनी मनमोहक मुस्कान के साथ घर में प्रवेश कर चुकी थी। हमेशा की तरह फलों की टोकरी के साथ अपने हाथ के बने हुए मुरब्बे और अचार भी लाई थी। उनके आते ही घर में रौनक से आ गई थी।सुरेश तो उनका हाल-चाल पूछ कर दफ्तर के लिए निकल गए और शालिनी उन्हें प्रणाम कर चाय नाश्ते का प्रबंध करने अंदर चली गई।
“नंदिनी, तू यह सब क्यों ले आई..तुझे कितनी बार कहा है कि अपनी बड़ी बहन के घर आते वक्त यह सब मत लाया कर..क्यों करती है इतनी मेहनत”, सुलेखा जी छोटी बहन को दुलारते हुए बोली।
“दीदी, मैं तो बच्चों के लिए लाती हूं और तुम्हें याद है ना जीजा जी को भी मेरे हाथ के बनाए अचार कितने पसंद थे”, नंदिनी बोली तो सुलेखा जी पति को याद कर उदास सी हो गई।कुछ साल पहले ही तो वह उन्हें छोड़ कर चले गए थे।सुरेश उनकी इकलौती संतान था।
तभी शालिनी ने चाय नाश्ता लगा दिया।कचौड़ियां खाते हुए मौसी बोली,” शालिनी, सच कहूं तो तेरे हाथ की कचौड़ियों का स्वाद पूरे शहर में नहीं है। मैं तो मोनिका और कविता (उनकी बहूएं) को भी तेरे पकवानों के बारे में बताती हूं और उनसे भी बोलती हूं कि कभी समय मिले तो तुझ से सीख लें यह सब”।
“तेरी बहुओं को कहां समय मिलता होगा और उन्हें तेरी जैसी सास जो मिली है सब काम करने के लिए… सिर पर चढ़ा कर रखा है उन्हें तूने”, सुलेखा जी बोली।
“शालिनी, ईशा और दीक्षा कैसी हैं”, नंदिनी मौसी ने बड़ी बहन की बात पर ध्यान ना देते हुए शालिनी से पूछा।
“ईशा और दीक्षा शालिनी की दोनों बेटियां थी।ईशा तो एमबीए के बाद बेंगलुरु में एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम कर रही थी और दीक्षा इस समय कंपटीशन एग्जाम की तैयारी के लिए कोचिंग सेंटर गई थी।
“मौसी, दोनों ठीक हैं..दीक्षा तो कुछ देर में आती ही होगी”।
“हां, ठीक ही होगी..लड़की को इतनी दूर नौकरी करने भेज दिया है। क्या कमी है यहां जो बेटी को नौकरी करने की ज़रूरत है.. यहां होती तो घर के कुछ काम सीखती और इस वक्त हम शादी ब्याह के बारे में भी सोचते पर मेरी कौन सुनता है…अब तो दूसरी भी तैयार है नौकरी करने को.. सिर पर चढ़ा रखा है बेटियों को”, सुलेखा जी बोली।
शालिनी को ऐसी बातों की आदत हो चुकी थी।उसकी दोनों बेटियां पढ़ने में बहुत अच्छी थी।शालिनी और सुरेश ने कभी भी उनके साथ कोई भेदभाव नहीं किया…कभी उनके मन में नहीं आया कि लड़कियां हैं तो आगे बढ़ने से रोकना चाहिए.. सुरेश ने तो हमेशा बेटियों का हौंसला बढ़ाया और स्कूल कॉलेज की प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए सदा प्रेरित किया।तभी तो दोनों कहते नहीं थकती थी,” पापा यू आर द बेस्ट” और सुरेश उन्हें गले लगा लेते।तब भी सुलेखा जी उन्हें सुना देती,” तेरी तो आंखों पर पट्टी बंधी है.. बेटियों को सिर पर इतना मत चढ़ा.. थोड़ा मर्यादा में रहना सिखा… दूसरे घर जाना है उन्हें”।
ईशा और दीक्षा दादी की बात से आहत होती पर फिर मम्मी पापा का प्यार उन्हें सब कुछ भुला देता।आज सुलेखा जी की बात सुन और शालिनी का चेहरा देखा मौसी से रहा नहीं गया और वह बोली,” दीदी ,तुम अपने बच्चों की परवरिश को दोष दे रही हो… तुम्हें तो गर्व होना चाहिए कि तुम्हारे बच्चों ने अपनी बेटियों को उड़ान दी है… उनके सपनों को पूरा करने में उन्हें पूरा सहयोग दिया है। क्या बेटों के समान बेटियों को उनकी चाहतें पूरी करने देना क्या सिर चढ़ाना हो जाता है और कहां लिखा है कि नौकरी वाली लड़कियां अपनी मर्यादा भूल जाती हैं।
तुम ही बताओ जब सुरेश पढ़ता था तो उसके इम्तिहान के दिनों में तुम कैसे उसका ख्याल रखती थी।रात रात को जागकर उसे कभी चाय और कॉफी बना कर देती तो क्या तुमने उसे सिर चढ़ा कर रखा था और क्या वो पढ़ने लिखने से अपनी मर्यादा भूल गया है।आज सुरेश और शालिनी भी तो यही कर रहे हैं अपनी बेटियों के साथ। तुम्हारा गुस्सा किस बात पर है उनका अपने बच्चों का ध्यान रखने पर या फिर उनके बेटियां होने पर।
दीदी, मुझे याद है जब सुरेश ने इंजीनियर बनने की ज़िद की थी तो जीजा जी की सीमित आय के बावजूद तुम दोनों ने उसका साथ दिया था और कैसे तुमने अपने खर्चे कम कर के किफायतें कर कर उसे पढ़ाया था और फिर अब तो सुरेश के पास पैसों की भी कमी नहीं है तो फिर यह भेदभाव क्यों करना।
दीदी, तुम कहती हो ना कि मैंने अपनी बहुओं को सिर पर चढ़ा कर रखा है। अगर एक ही घर में रहते हुए मैं अपने बेटों के टिफिन बनाने के साथ-साथ बहुओं के भी टिफिन बना देती हूं तो क्या फर्क पड़ता है… अपने पोता पोती का ध्यान रखना क्या दोनों को सिर चढ़ाना हो जाता है। दीदी, उसे सिर चढ़ाना नहीं भेदभाव ना करना कहते हैं और आज मेरी बहुएं मुझे भरपूर आदर और प्यार देती हैं और उन्होंने कभी अपनी मर्यादा का उलंघन नहीं किया।
अगर हमें अपने बच्चों में भेदभाव करेंगे तो आने वाली पीढ़ी को क्या सिखाएंगे। दीदी, सच बताना जब बाबू जी ने भैया को आगे पढ़ने दिया था और तुम्हारी पढ़ाई छुड़ाकर शादी करवा दी थी तो तुम कितना रोई थी।जब तुमने वह भेदभाव सहा है…खुद से देखा है तो फिर क्यों तुम उन सब बातों को दोहराना चाहती हो वह भी अपने ही घर में। बेटियों को आत्मनिर्भर बनाना कहां गलत है दीदी”, सुलेखा जी नंदिनी मौसी की बातें सुनकर चुप थी।
वैसे भी मौसी ने सच ही कहा था और वह जानती थी कि उनकी बड़ी बहन कैसी भी हों पर मन की बुरी नहीं है और ज़रूर उनकी बातों पर ध्यान देंगी। मौसी तो कुछ घंटे और बैठ कर चली गई। सब फिर से अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए थे।कुछ दिन बाद ईशा ने फोन कर बताया कि उसे ऑफिस की तरफ से बेस्ट एंप्लॉय का अवार्ड मिला है और साथ ही प्रमोशन भी।
अगले हफ्ते ही ईशा उन सबके बीच में थी।पूरा घर खुशियों से भरा लग रहा था।दीक्षा तो उसे देखते ही चहक उठी थी। सुरेश बेटी की मनपसंद की खाने की चीज़ें लाने बाज़ार निकल गए थे।
ईशा दादी के पास गई और एक बड़े से पैकेट में से एक शॉल निकालते हुए उन्हें ओढ़ा दी। “दादी, यह मैं आपके लिए लाई हूं… अवार्ड और प्रमोशन मिलने की खुशी में.. देखो, पसंद है ना”।सुलेखा जी ने देखा कि पशमीने की वह शॉल बहुत खूबसूरत थी।नज़रें उठाकर ईशा की तरफ देखा तो उसमें उन्हें अपना ही अक्स नज़र आया।उन्हें लगा जैसे वह खुद को ही देख रही हों… जैसे उनके खुद के सपनों को पर मिल गए हो और वो अपनी उड़ान भर कर बहुत खुश हों।
“दादी”, ईशा की आवाज़ से जैसे वह चौंक उठी।
“दादी, मैं नंदिनी दादी के लिए भी एक शालॅ लाई हूं। आखिर… वहां उनके अचार के चटकारों के साथ ही मेरे खाने में स्वाद जो आ जाता है”, ईशा हंसते हुए बोली।
“हां हां.. कल ही उसे बुलाते हैं उसे भी तेरा तोहफा ज़रूर पसंद आएगा”।
तभी सुरेश खाने का सामान लिए अंदर आ गए। कुछ देर बाद शालिनी ने देखा उसकी सास दोनों पोतियों के साथ बैठी हुई हंस बोल रही थी।
“दीक्षा, तू भी अच्छे से पढ़ाई करना ताकि अपनी बहन की तरह हमारा सिर पर गर्व से ऊंचा कर सकें”,।दादी की बातें सुन और ईशा और दीक्षा ने हैरानी से मां की तरफ देखा और शालिनी मुस्कुराते हुए नंदिनी मौसी को फोन मिलाने लग पड़ी।
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गीतू महाजन