कहां ऐसा यारना – कमलेश राणा 

 

सहकारी कृषि पर दुनिया भर के लेख लिखे जा रहे हैं,,कोर्स में भी पढ़ाया जाता है पर असल के धरातल पर अभी यह कोसों दूर है,,

 

पर आज से 45 साल पहले मैने अपने गाँव में इसका सुन्दर रूप देखा ही नहीं बल्कि मैं खुद इसका हिस्सा भी बनी और इसके आनंद को भरपूर जिया भी,,

 

पश्चिमी यूपी में गन्ना एक प्रमुख फसल है,,उस समय तक क्रेशर नहीं थे और गाँव में कोल्हू लगते थे गुड़ बनाने के लिए,,इस काम में मेहनत बहुत थी और कई लोगों की जरूरत भी होती थी,,इसके लिये सबने मिलकर बहुत अच्छा रास्ता निकाला,,

 

गाँव के 4-5 मित्र मिलकर यह कार्य करते,,श्रम विभाजन की अवधारणा का जीवन्त रूप कितना आनंददायक है,,यह वही जान सकता है जिसने उन पलों को जिया हो,,

 

हम पापा के साथ शहर में रहते थे तो गाँव,खेतों की हरियाली ,वहां का जीवन हमें बहुत लुभाता,,

 

खेतों पर खाना ले कर आती चाची जी का पीतल का कटोरदान जब दूर से धूप में चमकता हुआ दिखता तो सच में भूख और बढ़ जाती,,फिर छाछ और गुड़ की घी मिली शक्कर से रोटी इतनी स्वाद लगतीं,,जितनी आज तक कभी नहीं लगीं,,

 


वहीं ट्यूबवेल पर नहाना होता घण्टों पानी की हौदी में पड़े रहते,, काम कराने के लिए खेत पर जाना,,हमारे लिए खेल था,,घर आने का मन ही नहीं होता और कोई कहता भी नहीं,,

 

घर के काम करने के लिये सिर्फ़ एक महिला रहती घर पर,,बाकी सब वहीं रहते,,उस समय वहां नौकर लगाने की परम्परा नहीं थी,,सारा परिवार मिलकर काम करता,,

 

जब कोल्हू चलते सर्दियों में तो तीन चार पारिवारिक मित्र मिलकर गुड़ बनाते,,चूँकि हमारे यहाँ कोल्हू था,,तो यह काम हमारे खेत पर ही होता,,

 

सुबह 4 बजे ही चारों परिवार के लोग किसी एक के खेत पर जाते और गन्ना कटाई और छिलाई का काम करते,,जाते हम भी पर गन्ना चूसने ,,इसके बाद  कुछ ढुलाई में लग जाते,,खेत से कोल्हू तक,,कोई कोल्हू में गन्ना लगाता,,कोई बैल हांकता, कोई छोई (गन्ने का वैस्टेज)इकट्ठा कर के सूखने डालता,कोई भट्टी में आग जलाता,कोई बड़े से कड्छे से रस चलाता और फिर गाढ़ा होने पर दादाजी सांचे में उसको जमाते,,तब  कहीं जाकर गुड़ की डली आ पाती है हमारी थलियों में,,

 

15-20 लोग हो जाते बच्चे बूढ़े सब मिलाकर,,क्योंकि ये सब मित्र ही होते तो हंसते गाते काम कैसे हो जाता पता ही नहीं चलता,,जो थक जाते वो आराम करते,,दूसरे लग जाते,,यही बैलों के साथ होता,,सबके जुआरे आकर पेड़ से बंध जाते,,थोड़ी -थोड़ी देर बाद पारी बदलती रहती,,

 

अगले दिन दूसरे का खेत काटने जाते सारे,,साथ खेलना,साथ खाना,,बहुत अच्छा लगता हमें,,हमसे ज्यादा काम नहीं होता तो हमारी ड्यूटी कोल्हू में गन्ने लगाने की लग जाती,,यानि बैठना नहीं है,,

 

जब गुड़ बन जाता तो दादा जी गूलर के पत्ते पर गरम -गरम गुड़ खाने को देते,,इससे अच्छा  दोस्ती यारी का उदाहरण कहाँ देखने को मिलेगा,,

#दोस्ती_यारी

कमलेश राणा 

ग्वालियर

 

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