टोकरी में कुछ भुट्टे लिए, वो तीन गरीब और फटेहाल बच्चे आज फिर रोज की तरह,दोनो तरफ की रोड के बीच में लगे घास पर बैठ गए। उनमें से बड़ी लड़की जो तकरीबन दस साल की होगी। उसने अंगीठी जला लिया। भुट्टे सिकने लगे थे। मैं अपने सब्जी का ठेला लगाए उनके सामने ही था। मेरे ठेले के बाजू में ही, एक टेलर, छोटी सी दुकान में बैठता है। लोगों के कपड़े सिलता है। नए कपड़े कम ही सिलाने आते हैं लोग उसके पास। पुराने कपड़ों की फिटिंग या उधड़ी हुई सिलाई की मरमत करता है।
आज फिर से उसने इशारे से दुकान पर दो भुट्टे लेकर उन्हें बुलाया। उनमें से एक बच्ची दो भुट्टे लेकर उसके पास गई। कुछ ही देर बाद वो चहकते हुए दौड़ी दौड़ी अपने भाई बहन के पास गई। उसके साथ दोनों बच्चे भी टेलर की दुकान में गए। पांच मिनट का वक़्त हो गया। मन में कौतूहल हुआ। मैं ठेले को सरकाता हुआ दुकान के सामने चला आया। टेलर भुट्टे खा रहा था। दुकान के पीछे लगे पर्दे से बच्चों के चहकने की आवाज अब भी आ रही थी। आचनक तीनों हँसते हुए बाहर आ गए। वे फटे पुराने कपड़ो की जगह रंग बिरंगे कपड़ों में थे।
“चाचू! तुम ना बहुत अच्छे हो” बच्चों की आँखों में खुशियां तैर रही थीं
“ये रख बिटिया, भुट्टे के पैसे, और सड़क देखकर पार किया करो तुमसब”
बच्चे चहकते हुए जा चुके थे। मैं बरबस ही टेलर चाचा की दुकान में बढ़ चला।
“चाचा ये बच्चों के नए कपड़े?”
“लोगों के बचे हुए कपड़ों के कतरन थें, उन्हें जोड़कर इनके लिए बनाया। देखो कितने खुश हो गए बच्चे” चाचा उन्हीं को देख रहे थे।
“भगवान आपको बरकत दे चाचा, आपने बच्चों के चेहरे पर खुशियां ला दी”
“ये गरीब के बच्चे हैं..छोटी सी बात से ही खुश हो जाते हैं। देखो ना!.. दूसरों के कतरन भी इनके लिए खुशियां ले आईं”
चाचा की आँखे उन बच्चों की खुशियां देख भर आईं थी और मेरी उन्हें देख।
वे बाकी बचे हुए कपड़ों के कतरन अब भी समेट रहे थे। शायद किसी और बच्चों की खुशियों के लिए..!
विनय कुमार मिश्रा
रोहतास (बिहार)