कठपुतली नहीं हूँ मैं – मीरा सजवान ‘मानवी’ : Moral Stories in Hindi

“सीमा! दवा दी नहीं अभी तक। पानी भी ठंडा है, गरम लाकर दे।”

सीमा की सासू माँ खंखारते हुए  गुस्से में चिल्लाते हुए  बोली।

“जी माँजी, अभी लाई। बस पराठा पलट लूँ।”

“सीमा! मेरी शर्ट प्रेस की है ना? ऑफिस में प्रेज़ेंटेशन है आज।”

“हां, अलमारी में बायीं तरफ़ रखी है… मैं निकाल दूँ?”

“नहीं, तुम रसोई सँभालो। मैं देख लूंगा।”

अयूषी किताबें हाथ में लिए  अपना बैग लगा रही थी और अपनी माँ को चक्रघिन्नी सी घूमते हुए  देख रही थी।

“माँ… एक सवाल पूछूं आपसे?”

सीमा  हड़बड़ाते हुए बोली…..

“पूछ  ना बेटा, पर जल्दी पूछ, दूध उबल रहा है।”

“आप हर किसी के काम के लिए भागती हो। खुद के लिए कब भागोगी?”

सीमा आश्चर्य से अयूषी  की ओर देखती है कि वह क्या कहना चाहती है?

फिर  जल्दी में उसी से सवाल पूछने लगी।

“मेरे लिए…? क्या मतलब?”

“मतलब ये कि आप हमेशा किसी न किसी का काम कर रही होती हो। कभी आपको अपने लिए भी वक़्त मिलता है?

“नहीं पता अयूषी… शायद नहीं। लेकिन तू ये सब क्यों पूछ रही है आज?”

“माँ जब मैं छोटी थी, तुम कहानियाँ सुनाती थीं। तुम्हारी डायरी में कविताएं होती थीं। अब वो डायरी कहाँ है?”

” ये आज तू सुबह-सुबह क्या सवाल  लेकर  बैठ गई  है? तेरी तबियत  तो ठीक  है ना?” कहते-कहते सीमा किचन के काम  फटाफट  निपटा रही थी ताकि सब  काम  समय पर निपट सके।

अयूषी ने अपना बैग कमरे में ही रखा और वह  कपड़े बदलकर  किचन के काम  में माँ का हाथ बंटाने लगी।

सीमा ने उसको घर के कपड़ों में देखा तो वह आश्चर्य से बोली” तुमको काॅलेज नहीं जाना है क्या?”

“नहीं आज मन नहीं है?” कहते हुए  अयूषी  भी माँ के साथ  काम  में हाथ  बंटाने लगी।

दादी नाश्ता करके सो गई, अयूषी के पापा अनिल जी ऑफिस चले गए और भाई भी काॅलेज चला गया तो दोनों माँ-बेटी ने घर का काम  फटाफट  निपटा दिया।

तब  सीमा अयूषी से बोली “हाँ अब बोल क्या पूछ रही थी तू, सुबह-सुबह और तुम आज काॅलेज  क्यों नहीं गई?”

अयूषी माँ के गले में अपनी बाहें डालते हुए  बोली “माँ मैं आपको बचपन  से देखती आ रही हूँ ,आप पूरे घर की जिम्मेदारी खुद के सर पर लिए  घूमती हो और घर का हर सदस्य  अब इसका आदी हो चुका है कि  उनके सब काम आप ही करके दोगी “

“हाँ मेरा घर-परिवार है तो,मैं ही तो करूँगी  और कौन करेगा?”सीमा बेटी को ऐसे देख  रही थी जैसे उसने कोई  अजब सवाल  पूछ  लिया हो।

“मैं कब कह रही हूँ कि आप मत करो लेकिन  थोड़ा-बहुत समय खुद  को भी दो मैं इतना कहना चाहती हूँ बस…”

 आप हमारे बचपन  में हमें कितनी सारी कविता-कहानी बना-बनाकर  सुनाती थी और एक डायरी में लिखती भी थी वह डायरी कहाँ है माँ?”

“याद नहीं बिटिया कहाँ रखी है?अब तो वह अतीत  बन चुका है मेरा।”

सीमा खिलखिलाकर  हँस  पड़ी…

अयूषी माँ को देखते हुए  बोली”इसमें हँसने की क्या बात  है?”

“हँसू नहीं तो क्या रोऊँ, …बिटिया जब एक बार  शादी  हो गयी तो सभी जिम्मेदारियां एक बहू,पत्नी,माँ की ही होती हैं जो उसे  निभानी ही पड़ती हैं ।”

“और सास-ससुर,पति,ननद-देवर,बच्चों की कोई  जिम्मेदारी नहीं होती है माँ?आपकी भी अपनी कोई  पहचान है कि नहीं?”

आज अयूषी ने भी ठान  लिया था माँ को खुद  से मिलाने का।वह बोली..

“दादी-पापा,दोनों  बुआ,चाचा-चाची उनकी भी तो कुछ आपके प्रति जिम्मेदारी होगी वे तो नहीं निभाते वैसी जिम्मेदारी जैसे आप निभा रही  हो इतने सालों से।”

अयूषी ने माँ के चेहरे पर आते-जाते रंगों को देखा तो उसको लगा शायद उसकी कोशिश कामयाब  हो जाए। क्योंकि उसकी दोनों बुआ शिक्षिका थी,चाचा-चाची मल्टिनेशनल कंपनी में काम  करते,ठसक से रहते और व्यस्त होने का बहाना कर अपनी हर जरूरत  के लिए  उसकी माँ पर आश्रित  रहते लेकिन  कभी कोई  उनके बारे में न सोचता।

वे बीमार भी हों तब भी काम  उनको ही करना पड़ता।सब चालाकी से अपना-अपना उल्लू सीधा करते और बाकी समय में सीमा को पूछते भी नहीं।

“माँ आपकी भी कोई  पहचान  है कि नहीं ?”अयूषी के मुँह  से यह शब्द 

 सुनते ही सीमा जैसे अतीत  में पहुँच गई। 

जब वह बहू बनकर  इस घर में आई तो सास-ससुर, दो ननदें,एक देवर  और एक बुआ सास थी जो बाल विधवा थी और मायके में ही रहती थी।

वह दिन  और आज का दिन  जिम्मेदारियों ने उसे कठपुतली बना दिया और वह नाचती रही सबके इशारों  पर लेकिन आज उसकी खुद  की बेटी ने उसको अहसास कराया कि वह भी एक इंसान  है।

मायके से  भी हमेंशा हिदायतें ही मिली कि आज से तुम्हारा ससुराल  ही सब कुछ  है, कोई  कमी न रहे तुम्हारे व्यवहार और काम  में.. तो सीमा ने उसे ही सच मान झोंक  दिया खुद  को रिश्तों को खुश करने में  ।खुश तो शायद  ही कोई  हुआ  हो ,हाँ शिकायतों का कभी अंत न हुआ।

सास भी छोटी बहू से कुछ  न कहती क्योंकि वह नौकरी जो करती थी।एक सीमा ही थी जो बेकार  थी सबकी नजरों में जबकि अपनी जरूरतों के लिए  सब उस पर ही निर्भर थे।कभी-कभार तो सुबह से लेकर रात तक बाल संवारने का भी मौका न मिलता था बेचारी को पति भी कहते किस गंवार से पाला पड़ गया?

सीमा की आँखे भर आती। 

माँ को खोए हुए  देख कर  अयूषी बोली  “माँ मैंने पूछा ,आपकी वह डायरी कहाँ है?”

वह याद करते हुए  बोली”वो  ड़ायरी तो शायद अलमारी में कहीं है… कई सालों से खोली  भी नहीं।

“क्यों? क्या अब आपको लिखने का मन नहीं करता? 

सीमा धीरे से मुस्कुराकर “मन तो बहुत करता है, लेकिन अब फुर्सत कहाँ…?”

“माँ, फुर्सत नहीं मिलती या आपने माँगनी छोड़ दी है?”

सीमा चुप हो  गई। पीछे से  आवाज़ें आती  हैं—कुकर की सीटी की, दादी की खाँसी की ,पति  की कॉल की घंटी की। लेकिन सीमा पहली बार थम गई है उसने सुनकर  भी सबको अनसुना कर दिया।

“शायद सही कहती है तू… मैंने अपने बारे में सोचना छोड़ दिया है। सबके लिए जीती रही, खुद से  मिलना भूल गई।”

“आप कठपुतली बन गई हो माँ… जो सबके इशारे पर चलती है। पर मैं चाहती हूँ, अब  आप अपने धागे खुद थामो।”

सीमा की आंखें भर आई। वह रसोई की ओर देखती है, फिर खुद की ओर और कभी बेटी की ओर।

उसने आलमारी से डायरी निकाली और नम आँखों से ऐसे देखती रही जैसे उसे उसकी पहचान मिल गई हो।

अयूषी  ने माँ के आँसू पोछे और कलम – डायरी प्यार और विश्वास से माँ को थमाई ।

 सीमा ने डायरी को साफ किया  और उसमें आत्मविश्वास के साथ लिखा …

“मैं अब भी रिश्तों की डोर में बंधी हूँ,

पर अब हर डोर का सिरा मेरे पास है।

अब मैं कठपुतली नहीं,

मैं अपने  मंच की  सूत्रधार खुद हूँ।”

मीरा सजवान ‘मानवी’

स्वरचित मौलिक

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