“चाय बना दूं”? सुरभि जी ने पास बैठे दिनकर जी से पूछा। “इच्छा तो नहीं है। तुम पियोगी तो थोड़ी मैं भी पी लूंगा”। दिनकर जी अखबार समेटते हुए बोले। सुरभि घुटनों पर हाथ रखकर धीरे-धीरे उठी और रसोई में जाकर चाय बनाने लगी। सर्दियां शुरू हो चली थी। ऐसे में उनके जोड़ों का दर्द बहुत बढ़ जाता था। अब उनकी उम्र हो गई थी और घर के काम करना मुश्किल होने लगा था। दिनकर जी जितना संभव हो मदद करते। पर सदा कुछ नाराज से रहते। सुरभि इसकी वजह जानती थीं पर शिकायत करती भी तो किससे। उन्होंने खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली थी। दिनकर जी को चाय देकर जब वह खुद चाय पीने बैठी तो मन अतीत की गलियों में विचरने लगा।
छोटा सा परिवार था सुरभि और दिनकर का। बड़ी बेटी शुचि और बेटा वैभव। शाँत सरल स्वभाव के धनी दिनकर जी कालेज में लेक्चरार थे। समय पंख लगाकर उड़ता रहा और बच्चे बड़े हो गए। एक अच्छा लङका देखकर शुचि की शादी कर दी गई। उसका ससुराल उसी शहर में था। वह अपने ससुराल में सुखी थी। जब भी घर आती, माता-पिता उपहारों से उसे लाद देते। आखिर घर की लाडली इकलौती बिटिया जो थी। वैभव पढ़ने में तेज था। उसने एम बी ए किया और उसे अपने ही शहर में अच्छी नौकरी भी मिल गई।
जल्दी ही एक अच्छी लड़की देख कर वैभव का भी विवाह कर दिया गया और प्रियांशी दिनकर जी के घर में बहू बनकर आ गई। वह एक समझदार और सरल स्वभाव की लड़की थी। शादी के कुछ समय बाद उसने एक स्कूल में नौकरी कर ली। सब कुछ अच्छा चल रहा था। सास बहू मिलकर घर के काम निपटा लेते। एक ही शहर में ससुराल होने के कारण शुचि का मायके आना जाना लगा रहता। शुरू में तो सब ठीक रहा पर धीरे-धीरे शुचि के स्वभाव में परिवर्तन आने लगा। उसे अपनी भाभी से ईर्ष्या होने लगी। वह यह नहीं बर्दाश्त कर पा रही थी कि कल तक जो पूरा परिवार सिर्फ उसी के इर्द-गिर्द घूमता था आज प्रियांशी उस घर में अपनी जगह बना चुकी थी। ऐसा नहीं था कि माता पिता या भाई के स्वभाव में शुचि के प्रति कोई परिवर्तन आया हो लेकिन उसे खुद ही लगने लगा कि धीरे-धीरे प्रियांशी मां के ज्यादा करीब हो जाएगी और मैं उससे दूर। शुचि के परिवार में पति के अलावा सिर्फ वृद्ध ससुर जी थे।वहां भी उसी का एकछत्र राज था।
सुरभि जब भी कहीं जाती तो बहू और बेटी दोनों के लिए एक सी साड़ी या कोई तोहफा लेकर आती। यह देखकर शुचि और भी जल जाती। कल तक माता पिता के लाए तोहफों पर सिर्फ उसी का अधिकार था। धीरे-धीरे उसके मन में लालच की भावना घर करने लगी। सोचने लगी कि आगे चलकर मुझे मायके से मिलने वाला पैसा और सामान कम होता जाएगा। वह मौका देखकर जब तब प्रियांशी के खिलाफ माँ के कान भरने लगी। कभी प्रियांशी को आने में देर हो जाती तो वह मां से कहती कि वह जानबूझकर देर से आती है ताकि सारा काम मां को ही करना पड़े। शुरु शुरु में तो सुरभि जी ने हंसकर टाल दिया पर जब एक ही बात बार-बार कही जाए तो शक मन में पैर पसारने लगता है। धीरे-धीरे सुरभि जी प्रियांशी से थोड़ा खिंची खिंची रहने लगी। बात बात में उस को डांट देती। शुचि यह सब बातें प्रियांशी और वैभव की अनुपस्थिति में इतनी होशियारी से करती कि प्रियांशी की समझ में नहीं आ रहा था कि मां को अचानक क्या होने लगा था। दिनकर जी दिनभर कालेज और शाम को लाइब्रेरी में व्यस्त रहते थे। उन्हें घर में हो रही खटपट की जानकारी नहीं थी। अब तो सास को बहू की हर छोटी छोटी बात में खामी नजर आने लगी। जिन गलतियों को पहले वह यह समझकर दरकिनार कर दिया करती थी कि धीरे-धीरे सीख जाएगी, अब वही बातें उन्हें खलने लगी। पहले तो प्रियांशी ने वैभव से कुछ नहीं कहा। पर जब उनका डांटना और ताने देना बढ गया तो प्रियांशी ने वैभव से बात की। पहले तो वैभव को लगा कि शायद मां की तबीयत ठीक नहीं है या वो किसी बात से लेकर अपसेट है। लेकिन जब दो-तीन बार ऐसी बातें वैभव के सामने भी हुई तो वह भी परेशान रहने लगा। धीरे-धीरे बात यहां तक बढ़ी कि वैभव और प्रियांशी के लिए उस घर में रहना मुश्किल हो गया। जैसे ही शुचि को इस बात की भनक लगी कि वैभव अलग होने का सोच रहा है तो उसने मां को और उकसाया। उनसे कहा कि उसे जाने दो। मैं हूं ना यहां, आपका ख्याल रखने के लिए। उसे लगता था कि कहीं बेटे के प्रेम में आकर भावावेश में मां उन दोनों को रोक न ले। ईर्ष्या और लालच उसके मन में ऐसे भर गया था कि वह अपने भाई की परेशानियों को भी नहीं देख पा रही थी।
वैभव ने पहले तो उसी शहर में दूसरा मकान किराए पर लिया। दिनकर जी ने उसे और सुरभि को बहुत समझाया पर सुरभि की आंखों पर तो जैसे पर्दा पड़ गया था। कुछ महीने बाद वैभव ने अपना तबादला दूसरे शहर में करवा लिया। शुचि के तो अब पौ बारह थे। जब चाहा मायके आ जाती और जाते वक्त मां से कुछ न कुछ रुपए या सामान लेकर ही जाती। दिनकर जी सुरभि को बहुत समझाते कि बेटी का बार बार मायके आना ठीक नहीं है परंतु बेटी के प्रेम में सुरभि जी उल्टा उन्हें ही डांट देतीं। धीरे धीरे उन्होंने कहना बंद कर दिया। कुछ साल बीते। बार त्योहार पर बेटा बहू आते। मेहमानों की तरह रहते और चले जाते। आपसी गलतफहमियां इतनी बढ़ गई थी कि रिश्तों में तल्खी आ गई थी।
इसी बीच अचानक शुचि के पति का तबादला भी दूसरे शहर में हो गया जो कि अप्रत्याशित था। उसके पति जिस बैंक में नौकरी कर रहे थे उसकी दूसरे शहर में नई ब्रांच खुली तो सीनियर होने के नाते उन्हें उस ब्रांच में भेज दिया गया। ससुर जी तो रहे नहीं थे। शुचि और बच्चे भी दामाद के साथ दूसरी जगह चले गए। सुरभि और दिनकर जी बिल्कुल अकेले रह गए। बुढ़ापे के साथ-साथ शारीरिक कष्ट भी बढ़ते जा रहे थे। शुचि रोजाना फोन करती पर वह भी मजबूर थी। साथ में तो आकर नहीं रह सकती थी। दिनकर जी रिटायर हो चुके थे। सारा दिन खाली घर उन्हें काटने दौड़ता था। पोता पोती के साथ जीवन बिताना चाहते थे। चाहती तो सुरभि जी भी यही थीं पर मन मसोसकर रह जातीं। पछताती थी कि कैसे उन्होंने अपनी बेटी की बातों में आकर अपने हंसते खेलते घर को उजाड़ दिया। आज बुढ़ापे में ना बेटी ना बेटा उनके साथ था। उदास आंखों में मन की संपूर्ण पीङा समाई थी।
कई बार स्वार्थवश लड़कियां खुद ही मायके में ऐसी परिस्थितियां बना देती है पर यह नहीं सोचती कि इसके दुष्परिणाम उनके माता-पिता को ही भुगतने होंगे। ऐसा भी दिन आएगा जब वह वृद्ध और अशक्त हो चुके होंगे और उन्हें किसी सहारे की जरूरत होगी।
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प्रस्तुत रचना सर्वथा मौलिक एवं अप्रकाशित है। आशा करती हूँ कि आप सभी को पसंद आएगी। कृपया पढ़कर अपने विचार जरूर व्यक्त करें।
धन्यवाद
तृप्ति उप्रेती