सुनो जी, अब यह सब देखा नही जाता . बच्चों को ठीक से खाना तक भी नही दे पा रहे. इससे अच्छा है कि सब मिल कर जहर खा ले. एक बार में सब दुख खत्म.
तुम क्या समझ रही हो, मै ये सब नही देख रहा. मेरी ही तो जिम्मेदारी हो तुम सब. क्या मेरा कलेजा नही फटता, आज मुझे दोनो बेटो को उच्च शिक्षा दिलाने का प्रयास करना था, पर यहां तो साधारण शिक्षा तक के लिये फीस का जुगाड़ नही? समझ नही आ रहा करूँ तो क्या करूँ? खुद तो जहर खा लूँ पर हमारे बाद बच्चों का क्या होगा?
रमेश एक प्रतिष्ठित वकील था, अच्छी भली वक़ालत चल रही थी, दो ही बेटे थे. एक स्नातक में तो दूसरा इंटर में. उनके सुनहरे भविष्य के सपने को साकार करने को उसने एक सीमेंट फैक्ट्री लगाने का निश्चय कर लिया. फैक्ट्री लगने पर खूब चली भी, पर अचानक ही कुछ सरकारी योजना और अड़चनों के कारण फैक्ट्री बंद हो गयी, सब कुछ तबाह हो गया. फैक्ट्री भी गयी, वक़ालत छोड़ ही दी थी. सामने था केवल अंधेरा रास्ता. कोई रोजगार नही, पास मे कोई बचत नही ऊपर से बैंक की रिकवरी नोटिस.
आपत्ति के समय अपने सगे तक भी मुहँ मोड़ लेते हैं रमेश अब देख रहा था, जो रिश्तेदार अच्छे समय में खूब सम्मान देते थे, अब कन्नी काटने लगे थे, शायद सोचते थे, ये कुछ मांग ना ले.
आत्म हत्या के विचार को मन से निकाल रमेश ने एक निश्चय किया, फिर जीरो से ही वक़ालत प्रारम्भ करने का. पिछली साख पर कुछ रेस्पांस तो मिला, पर पहले जैसा नही, फिर भी इतना हो गया कि घर की रसोई चल सके. बच्चों की फीस की समस्या सामने थी.
ऐसे में रमेश का बड़ा बेटा सामने आया बोला पापा जब आप संघर्ष कर सकते हो तो हम सहयोगी क्यूँ नहीं हो सकते? मेरी चार साथियो से बात हुई है, वो कल से मेरे पास ट्यूशन पढ़ने आयेंगे, इतना मिल जायेगा जिससे हमारी फीस जमा हो सके. रमेश का गला रुंध गया, वो कुछ बोल ही नही पाया बस कस कर अपने बेटे को गले लगा लिया. पत्नी ने भी इस बुरे समय में अपना पूरा सहयोग किया. अगले वर्ष ही रमेश के छोटे बेटे ने भी ट्यूशन पढ़ा कर अपनी पढ़ाई का खर्च निकालना प्रारम्भ कर दिया.
अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति और दो दो बेटों के सहयोग से उपजे आत्मविश्वास से रमेश की वकालत भी ठीक चलने लगी. इस बीच बड़े बेटे को रमेश ने M. B. A. के डाक द्वारा किये जाने वाले कोर्स में प्रवेश करा दिया. तीन वर्ष बाद MBA करने के बाद भी बहुत कम वेतन की नौकरी उसके बेटे को मिली.
रमेश का मन बार बार अपने द्वारा अपने बेटो के लिए बुने सपनो को सोच सोच रोता था, पर उसने धैर्य नहीं खोया, और एक दिन उसे एक अच्छी कंपनी से ऑफर आ ही गया. अच्छा वेतन मिलने लगा. रमेश के बड़े बेटे ने अपने छोटे भाई का जॉब भी अपने प्रयासों से लगवा दिया, जबकि वो उस समय मात्र स्नातक ही था और उम्र भी कुल बीस वर्ष थी.
दो बेटों और स्वयं के प्रयासों ने रमेश की जिन्दगी के चित्र में रंग भरने प्रारम्भ कर दिये थे, धीरे धीरे पुरानी प्रतिष्ठा वापस आ गयी.
आज रमेश निवृत जीवन अपने बेटों के साथ सुख पूर्वक व्यतीत कर रहा है. उसके दोनो बेटे आज उच्च अधिकारी हैं. अपने माँ पिता का पूरा सम्मान भी करते हैं, अपने साथ रखते हैं.
अगर दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ जीवन संघर्ष किया जाये तो निश्चय ही सपने पूरे होते हैं, ईश्वर भी साथ देता है. रमेश ने यह करके दिखाया है.
बालेश्वर गुप्ता
पुणे (महाराष्ट्र)
अप्रकाशित, मौलिक, सत्यता पर आधारित.