निधि बचपन से ही अलग स्वभाव की थी। घर में सब सहज थे, पर उसे बहुत-सी बातें खटकतीं। पापा खाना खाकर इतनी जोर से डकार लेते कि पूरा घर गूंज जाता, दादी खर्राटों से रात भर जगातीं, और उसका भाई तो जैसे छींक का कारखाना ही था। न जाने कैसी एलर्जी थी कि हर थोड़ी देर में ज़ोरदार छींक निकलती।
निधि को लगता—“इतनी जोर से छींकना, डकारना… ये कैसी आदतें हैं? सभ्य लोग ऐसे थोड़े करते हैं।”
वह मम्मी से कहती—“आप पापा को समझाती क्यों नहीं? इतनी जोर से डकार सबके सामने लेते है चाहे घर हो या बाहर ।अजीब लगता है ।भाई को बोली “ज़रा धीरे छींका कर ।सबके सामने शर्म आती है।”
मम्मी हर बार हँसकर टाल देतीं—“बेटा, ये सब शरीर की बातें हैं, इन्हें कौन रोक सकता है?”
गली-मोहल्ले में भी निधि की यही नज़र रहती। अगर कोई बच्चा साँवला होता, तो उसके मुँह से निकल ही जाता—“अरे कितना काला है।” उसे सब कुछ परफेक्ट चाहिए था—गोरा रंग, साफ़ आदतें, सलीका और सभ्यता। शायद इसलिए परिवार की यह ढीलाई और पड़ोस के बच्चों का साँवला रंग, दोनों ही उसकी खीज बन गए थे।
समय बीता, और उसकी शादी हो गई। पति भी गोरे-चिट्टे, खुद भी सुडौल और सुंदर—निधि को लगता था अब तो सब कुछ वैसा ही होगा जैसा उसने चाहा था। लेकिन जीवन का चक्र बड़ा गहरा होता है।
शादी के कुछ समय बाद निधि को पता चला कि उसके पति को नहाने के बाद इतनी छींकें आती हैं कि गिनती करनी पड़े। कभी-कभी सौ तक पहुँच जातीं। वह चिढ़कर कहती—“इतनी छींकें कोई लेता है क्या? पूरा घर छींक-स्टोर बना दिया है।” डॉक्टर को दिखाया, इलाज कराया, कुछ दिन ठीक रहा, पर फिर वही हाल। नाक की हड्डी बार-बार फूल जाती और छींकें लौट आतीं। निधि का गुस्सा बढ़ता ही जाता।
और फिर वह दिन आया, जब उसके जीवन ने उसे सबसे गहरा आईना दिखाया।
कुछ समय बाद उसकी गोद भरी और उसका बच्चा पैदा हुआ—और माँ-बाप दोनों गोरे होते हुए भी वह काफ़ी साँवला था।
निधि का दिल भीतर तक काँप गया। वो ख़ुद इतनी हैरान थी कि ये कैसे हुआ ।रिश्तेदार फुसफुसाते—“इतने गोरे माँ-बाप, और बच्चा इतना काला।”
उसकी आँखें भर आईं।
वह सोचने लगी-“क्या अब मैं अपने ही बच्चे से भी नफ़रत करूँ? यह तो मेरी कोख से जन्मा है। अगर इससे भी भागूँगी तो क्या मेरे पास कुछ बचेगा?”
उसी पल दादी की कही पुरानी बात याद आई—
“ बेटी जिन चीज़ों से तू जितना भागेगी, वही तेरे सामने लौटकर आएँगी। ये शरीर की आदतें हैं, इन्हें तू बदल नहीं सकती। बदलना है तो अपना नज़रिया बदल।”
निधि अब समझ चुकी थी।
पापा की डकार, भाई की छींकें, दादी के खर्राटे, और मोहल्ले के साँवले बच्चे—जिन्हें वह जीवन भर असभ्यता या कमी मानती रही,वही आज उसके अपने घर का हिस्सा बन गए थे। यही उसके कर्मों का चक्र था।
उसने बच्चे को सीने से लगाया और सोचा—“अगर मैं इसे परफेक्ट होने की शर्त पर प्यार करूँगी, तो यह कभी खुश नहीं होगा। असली परफेक्शन तो इसे वैसे अपनाने में है, जैसे यह है।”
पति की छींकें अब उसे गुस्सा नहीं दिलातीं, बल्कि मुस्कान ले आती हैं। और बच्चे का साँवला रंग उसकी आँखों में सबसे उजली रोशनी बन गया।
निधी की इस कहानी ने ये दिखला दिया कि,,,
जिस चीज़ से हम जितना भागते हैं, वही हमारे सामने आकर हमें स्वीकार करना सिखाती है। कर्मों का चक्र हमें आईना दिखाने का अपना तरीका कभी नहीं छोड़ता।
ये कहानी आपको पसंद आयेगी ।
इसी उम्मीद में,,
ज्योति आहूजा
#कर्मों का चक्र निरंतर चलता रहता है ।