“कर्मा लौट कर आते हैं।” – ज्योति आहूजा : Moral Stories in Hindi

सुबह की हल्की धूप में, मालती जी सब्ज़ी खरीदने निकली थीं। घर के कामों की जल्दी, फोन पर बेटी की कॉलेज फीस की चिंता, और पास वाले प्लंबर की बकाया रकम का हिसाब — सब एक साथ दिमाग में घूम रहा था। वो हड़बड़ाहट में सब्ज़ी वाले को पैसे देकर आगे बढ़ गईं। दोपहर में जब रसोई में सब्ज़ियाँ काट रही थीं, तभी ध्यान गया —

“अरे! मैंने तो उसे पूरे पैसे दिए ही नहीं!” झोले में बचे पैसे गिनकर देखा तो साफ़ हो गया — बीस रुपये कम दिए थे। “उफ़!” उन्होंने माथा पकड़ लिया। “उस बेचारे का नुकसान हो गया… और मुझे तो पता ही नहीं चला!

” बेटी निया बगल में बैठी थी। बोली — “माँ, अब क्या फ़ायदा? वो तो चला गया होगा। इतने से पैसों का क्या… और उसे क्या याद भी होगा कि किसने कितना कम दिया?” मालती जी ने उसकी तरफ देखा। “बेटा, बात बीस रुपये की नहीं है,

बात नीति की है, आत्मा की है। जिसका जो है, अगर वो हमारे पास गलती से भी रह जाए, तो वो हमारे नसीब में कभी नहीं टिकता।” निया ने कंधे उचकाए, “तो अब क्या करें माँ? ढूंढने निकलें उस सब्ज़ी वाले को?” “हाँ।” मालती जी ने बिना झिझक कहा।

“उसका ठेला हर रोज़ कोने वाली गली में लगता है। मैं जाऊंगी और उसके पैसे लौटाऊंगी।” बेटी थोड़ी चौंकी। लेकिन माँ के चेहरे पर जो गंभीरता थी, वो किसी बहस की गुंजाइश नहीं छोड़ रही थी।

शाम को जब माँ-बेटी ने उस सब्ज़ी वाले को ढूंढा और पैसे लौटाए, तो वो एक पल को रुका, फिर सिर झुकाकर बोला — “दीदी, हमको तो पता भी नहीं था कि पैसे कम दिए हैं, फिर भी लौटाने आईं? आज की दुनिया में लोग ज़्यादा लेकर भी मुकर जाते हैं। आप बहुत अलग हो।” मालती जी बस मुस्कुराईं और कहा — “नहीं भाई, मैं अलग नहीं हूँ…

मैं बस वक़्त से डरती हूँ। क्योंकि वक़्त बहुत गहरा हिसाब करता है। आज मैं तुम्हारे बीस रुपये अपने पास रख लेती, तो शायद महीने के अंत में बिजली का बिल डबल आता, या गैस का सिलेंडर एक दिन पहले खत्म हो जाता, या कोई अनदेखा खर्चा आ जाता।

वो वक़्त चुपचाप देख रहा होता, और कहता — तूने किसी और का हक़ रखा है… अब चुकता कर।” बेटी निया चुपचाप माँ का चेहरा देख रही थी — अब उसे समझ आ रहा था, कि कुछ बातों की कीमत पैसों में नहीं, संस्कारों में होती है।

रास्ते में लौटते हुए निया ने माँ की ओर देखा, और कुछ रुककर पूछा — “माँ, आप इतनी सख़्ती से हर बात क्यों निभाती हैं? इतना डर क्यों लगता है आपको वक़्त से?” मालती जी कुछ पल चुप रहीं, फिर एक गहरी साँस ली, “क्योंकि मैंने भी गलती की थी निया…

और तब मुझे लगा था कि वक़्त तो चुप है, लेकिन नहीं बेटा, वक़्त बहुत ध्यान से देखता है — और जब जवाब देता है, तो भीतर तक हिला देता है।” निया माँ की ओर देखने लगी, उसकी आँखें अब किसी पुराने सच में उतरती जा रही थीं।

“बहुत साल पहले की बात है, जब तुम्हारे पापा की नौकरी छूटी थी और घर का गुज़ारा मुश्किल में था। मोहल्ले में एक फेरीवाला आता था — रज़ाक चाचा। गरीब आदमी था, पर मेहनती और शरीफ। उससे मैंने कुछ बर्तन उधार लिए थे — कहकर कि अगले महीने पैसे दे दूँगी। अगला महीना आया, नहीं दे पाई। फिर दूसरा, तीसरा…

और तब तक तुम्हारे पापा की हालत भी ठीक होने लगी थी। घर में पैसे आने लगे थे। लेकिन तब भी मैंने पैसे नहीं लौटाए। मुझे लगा — अब तो काफी समय बीत गया है, अब देने से क्या फ़ायदा। कुछ रुपयों की ही तो बात थी। मैं खुद से कहती रही — ‘अब क्या ही फ़ायदा…

रख लो।’ जब वो चाचा आते, मैं बहाना बना देती या छुप जाती। वो कुछ नहीं कहते थे — बस एक नज़र से देखते और चुपचाप चले जाते। मगर वो नज़र… न जाने कैसे मेरे अंदर तक उतर जाती थी।”

मालती की आवाज़ में अब कंपन था, “फिर एक दिन मोहल्ले की एक औरत से सुना — रज़ाक चाचा बहुत बीमार हैं। कुछ दिन बाद उनकी मौत की खबर आई। मुझे बहुत पछतावा हुआ, लेकिन अफ़सोस से ज़्यादा अंदर जो चुभ रहा था वो ये था — मैंने उनसे कुछ लिया और कभी लौटाया नहीं।

और बेटा, उसके बाद तूने तो देखा ही है न… कैसे एक के बाद एक मुसीबतें आईं। कोर्ट-कचहरी, वकीलों के चक्कर, धोखा दिया ज्ञ तेरे पापा को कंपनी में,बार-बार का खर्चा। उस वक़्त तू छोटी थी, पर तुझे याद ही होगा न — कैसे हम लोग बेचैनी से घिरे रहते थे। कभी फ्रिज खराब, कभी कोई बीमार, कभी बिजली का बिल आसमान छूता… मैं समझ चुकी थी, ये सब ऐसे ही नहीं हो रहा।

ये सब उस ग़लत पैसे का बोझ था जो मैंने अपने सिर रखा था। कुछ  पैसों का हिसाब दुगुना तिगुना निभाना पड़ता है बाद में। वो वक़्त चुप जो नहीं था, वो हिसाब ले रहा था। चाचा ने कभी कुछ नहीं कहा, पर उनकी चुप्पी ने मेरा सब कुछ हिला दिया।”

निया अब माँ से लिपट गई थी, उसकी आँखों में आँसू थे और दिल में डर नहीं, बल्कि आदर था — उस माँ के लिए जो अपने पुराने गुनाह भी स्वीकारने से नहीं हिचकती थी, और आज उसी वजह से उसकी बेटी को सच सिखा रही थी।

दोस्तों ये कहानी कर्मा लौट कर आते है । वक्त सबक़ अवश्य सिखाता है इस पर आधारित है।

उम्मीद है सभी को अच्छी लगेगी।

ज्योति आहूजा 

#वक्त से डरो

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