करनी का फल ‘ – विभा गुप्ता 

  ” प्रिया,मेरा लंचबाॅक्स दो “

    ” मम्मी, मेरा टिफ़िन बाॅक्स “

         ” बहू, मेरी मालिश करने वाली तेल की शीशी कहाँ है?” 

        सुबह उठते ही प्रतिदिन इन आवाज़ों को सुनने की मेरी आदत-सी हो गई थी।दरअसल ये आवाज़ें मेरी पड़ोसिन शर्मा आंटी के घर से आती थीं।उनके घर में उनके पति ,एक बेटा और बेटे की दो बेटियों के साथ उनकी बहू प्रिया भी रहती थी जो एक बहू के साथ-साथ पत्नी,माँ, बाई , टीचर का काम भी संभालती थी।मेरी नींद खुलने से पहले ही मेरे कानों में प्रिया के कामों की लिस्ट सुनाई देने लगती थी।

               पैसा बचाने के लिए शर्मा आंटी ने न तो कोई बाई रखी थी और न ही नौकर।उनका कहना था कि हम सास-बहू मिलकर सब काम कर लेते हैं।बाहर का काम बेटा और अंकल जी कर देते हैं लेकिन ये सच नहीं था।बहू के रूप ने उन्हें मुफ़्त की नौकरानी मिल गई थी।काम का समय होते ही वे अपने घुटने का दर्द लेकर बैठ जाती और बहू बेचारी सुबह से रात तक चक्की की तरह पिसती रहती। एक दिन तो बहू को तेज बुखार था, पूरा बदन भट्ठी की तप रहा था।मैं किसी काम से उनके घर गई तो देखा कि बहू सीढ़ियों पर बैठी कराह रही थी।मैंने कहा, ” प्रिया, तुम क्यों नहीं अपनी सास को कुछ काम करने को कहती हो।मिलजुल करने से काम का बोझ कम हो जाता है।अभी तो तुम्हारी सेहत भी ठीक नहीं है,काम कल कर लेना,आज आराम कर लो।” जवाब में बोली, ” भाभी, अपना काम करने में बोझ कैसा।” कहकर उठी और किचन में चली गयी।

             फिर मैंने शर्मा आंटी को समझाने का प्रयास किया, “आंटी, आपकी बहू बीमार है और शरीर भी कमज़ोर है।विवाह के सात सालों में आपने उनके दो डिलीवरी और दो अबाॅर्सन करवा दिये हैं।उन्हें आराम की सख्त जरूरत है।ईश्वर की कृपा से आपके बेटे की आमदनी अच्छी है और अंकल जी को भी पेंशन तो मिल ही रही है, आप क्यों नहीं एक पार्ट टाइम बाई रख लेती हैं, आप सभी को सहूलियत होगी।आप कहें तो कल से अपनी वाली को आपके यहाँ भेज देती हूँ।” सुनकर वे तपाक से बोली, ” ऐसा कुछ भी नहीं है, ज़रा-सा थकान है, बच्चियाँ स्कूल से आकर उससे लिपट जाएँगी तो सब ठीक हो जायेगा।हमारे ज़माने में तो आठ-आठ बच्चे पैदा करके भी हम नहीं थकते थे, इसके तो…।” कहकर वे हें-हें करके हँसने लगी।मैं समझ गई कि वे मुझे टाल रही हैं।लेकिन बहू की जैसी हालत थी,उससे तो आसार कुछ ठीक नहीं लग रहें थें।एक अनजान अनहोनी से मेरा मन आशंकित हो उठा था।



              डाॅक्टर के मना करने के बावज़ूद उनकी बहू फिर से गर्भवती हुई।एक दिन पानी लेकर सीढ़ियों से उतर रही थी कि लड़खड़ा गई, पैर फिसल गया और वही हुआ जिसकी आशंका थी।उनकी बहू जो गिरी तो फिर उठ न सकी।जिस घर से बहू के कामों की लिस्ट सुनाई देती थी, उस दिन उसी घर से रोने की चीख-पुकार सुनाई देने लगी।मैं समझ गई कि प्रिया अब नहीं रही।

             मातमपुर्सी के लिए मैं जब उनके घर गई और दोनों बच्चियों को अपनी माँ से लिपटकर रोते देखा तो कलेजा मुँह को आ गया।ईश्वर से ये कैसा अनर्थ हो गया था।शर्मा आंटी भी छाती पीटकर रो रहीं थी,मुझे देखा तो मेरे गले लगकर रोते-रोते बोलीं, ” मेरी करनी का फल मुझे मिला है।काश! तुम्हारी बात मान ली होती तो आज ये दिन न देखने पड़ते, बच्चियाँ अनाथ न होती।हे भगवान! मुझे माफ़ करना।” कहते हुए उनकी आँखों से आँसू नहीं थम रहें थें।मन तो किया कि उन्हें भरपेट सुना दूँ लेकिन उनके ज़ख्मों पर नमक छिड़कना मैंने उचित नहीं समझा और बुझे मन से घर आ गई।

               शर्मा आंटी के घर से आवाज़ें तो आज भी आती हैं लेकिन स्वर बदल गये हैं। ” मम्मी, मेरा लंच बाॅक्स ” 

       ” दादी, मेरा टिफ़िन “

        अब शर्मा आंटी बच्चों का टिफ़िन तैयार करती हैं और अंकल जी उनका होमवर्क कराते हैं।मन में यही विचार आया कि काश! समय रहते शर्मा आंटी चेत जाती,बहू के साथ मशीन समझकर नहीं, इंसान समझकर व्यवहार करती तो आज ये परिवार भी खुशहाल होता।

 

                                 —-विभा गुप्ता 

 

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