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उम्रदराज विदूर पति के लिए पत्नी के बिना जीना क्या वास्तव में आसान होता है भाई? ‘अभी कुछ ही घंटे खत्म हुई पत्नी की शव के पास बैठे राम ने पहले से विदुर अपने करीब बैठे सहकर्मी जो साथ के मुलाजिम है’ से पूछा , तो उन्होंने फफकते हुए मानों कुछ साल ही पहले गुजरी पत्नी को याद करते हुए कहा बिल्कुल भी नहीं।
अब ये ऐसी बेबसी है जिस पर किसी का जोर नहीं वरना वश चले तो जाने क्या कर जाए।
कहते हुए सहानुभूति का हाथ उसके कंधे पर रख आंसुओं पर काबू पाते हुए कहा – यार हम मर्दों को तो जैसे रोने तक की भी इजाजत नहीं , कभी कभी समझ नहीं आता कि दुख की घड़ी को हमें इतने खामोशी से क्यों सहना पड़ता है।
जानते हो बढ़ती उम्र के साथ जहां सहवास नगण्य हो जाता है वही खट्टी मीठी यादों और सुख दुख साथ साथ सहते सहते कब एक दूसरे का आदी हो जाता है पता ही नहीं चलता।
इन सबके बीच माना बच्चे सहारा बनते हैं, बेटियां रसोई यानि घर और बेटा बाहर संभाल लेते हैं पर आखिर कब तक एक रोज तो उनको भी अपनी घर गृहस्थी में फंसना ही होता है।
और जैसे ही फंस जाते हैं तो सच कहूं ‘ अकेलापन खाने लगता है ‘ उसके साथ बिताए हर पल याद आने लगते हैं।
फिर वो चाहे सुख के हो या दुख के रूठने के हो या मनाने के या फिर सहयोग के।
वक्त काटे नहीं कटता। क्योंकि अपने ही बच्चे या पोते पोती बहू जितना मां से मिले मिले होते हैं ,उतना बाप से नहीं।
हम नहीं कह ये कि उनको पति का रहना नहीं अखरता पर उनका जीवन परिवार के बीच रह कर कट जाता है और पुरुष का पूरा परिवार ही पत्नी होती है।
ग्र दुर्भाग्य वश वो पहले गुजर जाती है तो सब कुछ होते हुए भी जीवन एकांकी हो जाता है।
इसका दर्द मुझसे बेहतर कोई नहीं समझ सकता।
कहते हुए उसे उठा सीने से लगा लिया।और बोला
सच एक स्त्री की कीमत पत्नी के रूप में ही सर्वोपरि है जिसे एक विदुर के अलावा कोई नहीं समझ सकता।
इतने में कोहराम मचा रहे लोगों के बीच से आवाज आई।
राम चलो रेखा की मांग भर अर्थी को कांधा दो।
स्वरचित
कंचन श्रीवास्तव आरजू