कड़क चाय: – मुकेश कुमार (अनजान लेखक)

शायद ही कोई चाय का शौक़ीन होगा जो कभी ना बोला हो की चाय थोडी कड़क लाना या बनाना। आप किसी भी हाल में हों: ख़ुश, नाराज़, दुखी, गमगीन या मस्तमौला, किसी के सताए हों, किसी से दग़ाबाज़ी मिली हो या किसी ने परेशान कर के थका दिया हो। चाय हर हाल में आपको वही स्वाद देती है जो उसका अपना मुल रुप है। चाय को कोई फ़र्क़ नही पड़ता कौन राजा है, कौन फ़क़ीर है, कौन साधु है कौन ठग है, कौन है जो रक्षक है या फिर कौन हत्यारा है। हर हाल में और हर किसी के लिए मुक्त भाव से स्वाद देती है।

बिमला इंग्लिश में बी.ए पास करने के बाद कुछ दिन स्कूल में छोटे बच्चों को पढ़ाती रही। पैसे ज्यादा नही मिलते थे लेकिन स्वाभिमानी होने की वजह से अपने ख़र्चे और समय अच्छे काम में गुज़ारने के लिए प्राईवेट स्कूल में पढ़ाने लगी।

घर वाले बेटी को दुर नौकरी करने जाने नहीं देना चाहते थे। बिमला भी अच्छे से जानती थी की साल दो साल में घरवाले शादी करा देंगे इसलिए जीद्द कर के कोई फ़ायदा नही था। स्कूल में पढ़ाते-पढ़ाते और ज्ञानी लोगों से मेल-मिलाप में बहुत कुछ जानने लगी थी जो देश में या विदेश में घट रही थी।

योगेश ने पहली बार देखते ही पसंद कर लिया और पुछा था:

बिमला जी, आपको मैं पसंद आया?

जी।

बहुत छोटे शब्द में ही अपनी रज़ामंदी बता दी। बिमला और योगेश की माँ ने एक दुसरे को मिठाई खिला कर बधाई दी। योगेश आख़िर पसंद क्यों नही आता? लम्बी-चौड़ी क़द-काठी। कपड़े पहने का तरिका और देख कर बात करने का तरिका सज्जन पुरुषों वाला। उपर से सरकारी गाड़ी में घुमने वाले साहब की नौकरी।

उसी वक्त योगेश की माँ नें अपने हाथ से कंगन निकाल कर बिमला को पहना दिया और उसकी माँ से कहा:

आज से आपकी बेटी हमारी बहु हुई।

जी सम्धन जी।

योगेश की माँ भी पहले सरकारी स्कूल में पढ़ाती थी, लेकिन एक बार बिमार पड़ जाने के बाद बाप-बेटे ने स्कूल जाना बंद ही करवा दिया। कुछ दिन लड़ती रही लेकिन पती और बेटे के ज़िद से मानना पड़ा।



शादी बहुत धुम-धाम से हुई, योगेश की माँ ने बिमला की माँ को भी नही छोड़ा, बारात में दोनों जी भर कर नाचे। शादी वैसे भी एक नक्षत्र को दुसरे से मिलना पड़ता है। दुल्हन का नक्षत्र दुल्हे से। उसकी माँ से, भाई से, बहन से, पिता से। अडोसीयों से पड़ोसियों से, घर के नौकर-चाकर से भी तब जा कर कहिं दुल्हन को शुशील और अच्छी माना जाता है (समाज की कुरीति है, लेकिन सच है) दुल्हे का क्या है, कितना भी कर ले किसी से नक्षत्र नही मिलता।

माँ से मिलाओ तो माँ का बेटा, दुल्हन से मिला लो तो जोरु का ग़ुलाम।

दस दिन मुश्किल से गुज़रे होंगे की सास-बहु के नक्षत्र ने करतब दिखाना शुरु कर दिया।

सास कुछ कर दे तो बहु को लगता यह पुराना तरिका है अगर आज के तरिके से किया जाए तो काम और भी आसानी से हो जाएगा।

बहु कुछ करे तो सास को लगे इतने रुपयों में तो पुरे महिने का राशन आ जाता।

सास बोल पड़ती मुझे कम न समझना, मैंने भी बीए किया है और पन्द्रह  साल सरकारी स्कूल में पढ़ाया भी है। तब बहु का जवाब आता: सरकारी स्कूल के दिन अब गए, प्राईवेट स्कूल में पढ़ाने के लिए रोज़ अपने आप को अप-टु-डेट करना पड़ता है।

दोनों की रस्सा-कस्सी से बाप-बेटे दूर ही रहते। सुबह ऑफ़िस जाते और शाम को आते लेकिन रविवार को बेचारे फँस जाते और इन दोनों के नक्षत्रों की उठा-पटक देखनी भी पड़ती और सुननी भी पड़ती।

आज के बहस का मुद्दा था शाम के नास्ते का… सास चाहती थी आलु के पकौड़े बनें और बहु का कहना था पिछली बार बने थे इसलिए इस बार प्याज़  के पकौड़े बनाएँगे।

आधे घंटे से दोनों के नक्षत्र मिलने का नाम ही नही ले रहे थे तब पिताजी पान खाने के बहाने बाहर जा कर पनीर ले आए और बाप-बेटे मिल कर पनीर के पकौड़े तलने लगे।

अब ये दोनों क्या करे आज तो दोनों के नक्षत्र एक साथ हार गए।

कुडकुडाते हुए बहु सास से बोली: अब भर गया जी आपका? न ही आपकी चली न मेरी… अब कुछ कहना है आपको?

सास भी कुडकुडाते हुए बोली: कड़क चाय… बहु खिलखिला कर हँसने लगी और बोली चलिए आज तो हमदोनो की पसंद एक हो गई।

अब तो सास भी खिलखिला कर हँसने लगी… उधर बाप-बेटे अभी भी पकौड़े तलने में लगे हुए थे।

मुकेश कुमार (अनजान लेखक)

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