*जीवन के खेल* – मुकुन्द लाल

अपने गांव के बाहर से गुजरने वाली रेलवे लाइन से हटकर कुछ दूरी पर स्थित चबूतरे पर बैठा सुदीप ट्रेन का इंतजार कर रहा था। अवसाद और क्षोभ की लकीरें उसके चेहरे पर साफ दिखलाई पड़ रही थी।

 प्रचंड धूप की तपिश के कारण चतुर्दिक सन्नाटा छाया हुआ था। दो बजने वाले थे किन्तु एक बजे वाली ट्रेन भी उस समय तक वहांँ से नहीं गुजरी थी।

 सुदीप के स्नातक होने के बाद उससे बड़े दोनों भाइयों ने मिलकर उसकी शादी करके अपना फर्ज पूरा कर दिया था इस प्रत्याशा में कि सर्विस तो देर-सबेर मिल ही जाएगी।

 साल-भर उसपर नई शादी का नशा चढ़ा रहा। वास्तविक धरातल का एहसास उसे तब हुआ जब उसकी पत्नी दिव्या के पैर भारी हो गये, फिर निश्चित अवधि पूरा होने के उपरांत उसके घर में गृहलक्ष्मी काआगमन भी हो गया।

 उसके दोनों भाई शहरों में नौकरी करते थे किन्तु गांव में ही उनका संयुक्त परिवार रहता था। दोनों भाइयों के सहयोग से ही घर-गृहस्थी की गाड़ी चल रही थी। बेरोजगारी के कारण सुदीप आर्थिक सहयोग नहीं कर पाता था सिवाय शारीरिक श्रम के। उसके माता-पिता की मृत्यु कुछ वर्ष पहले ही हो गई थी। घर का सारा दारोमदार दोनों भाइयों के कंधों पर ही था। नौकरी हेतु आवेदन करने में, लिखित परीक्षाओं और साक्षात्कारों में शामिल होने के सारे खर्च उसके भाइयों की मदद से ही संभव हो पाता था, जो उसकी भाभियों को खटकता रहता था।

 घर-गृहस्थी और उनके परिवारों के छोटे-बड़े सभी कार्यों को निबटाने की जिम्मेदारी सुदीप की ही थी, जबकि घर-आंँगन के सभी काम दिव्या करती थी। साफ-सफाई करना, कपड़ों को धोना, सुखाना, बासन-बर्तन मांजना, फिर अपनी जेठानियों के आदेशानुसार रसोई-घर के कामों को निपुणता और दक्षता के साथ संपन्न करना उसी का दायित्व था। इसके बावजूद भी सुदीप और दिव्या को बिना तानों-उलाहनों के खाना नसीब नहीं होता था।



 उसकी व्यक्तिगत जिन्दगी बदहाली और तंगहाली से ऐसा त्रस्त था कि दस-बीस रुपये के लिए अपनी बड़ी भाभी या मंझली भाभी के सामने बिना हाथ फैलाये काम नहीं चलता था।

 सुदीप की बच्ची के लिए दूध, दवाई और जरूरत की अन्य सामग्रियों के मद में भी व्यय हो रहा था, जो उन्हें खल रहा था। उसकी दोनों भाभियांँ कोई कदम उठाने में विवश थी क्योंकि अपने पतियों द्वारा निर्धारित नीतियों का उल्लंघन करना उनके लिए मुश्किल था।

 वह दो-चार लिखित परीक्षाओं और एक-दो साक्षात्कारों में भी शामिल हुआ था, किन्तु नियुक्ति से संबंधित कोई पत्र नहीं आया था।

 वह धीरे-धीरे उम्मीदों का दामन छोड़ने लगा था। उसको जिन्दगी में चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा दिख रहा था। शादी होने के पांँच वर्षों के बाद भी न तो उसको कोई नौकरी लगी और न कोई रोजगार से वह जुड़ सका।

 इधर दो चार सप्ताह से अपनी बच्ची के पालन-पोषण से संबंधित सामानों व पौष्टिक आहारों की पूर्ति नहीं हो पा रही थी। दूध की आपूर्ति भी दूधवाला नहीं कर रहा था बकाया राशि के भुगतान नहीं होने के कारण। उसके दोनों भाभियों ने हाथ खड़े कर दिए थे बकाया राशि देने में, यह कहकर कि सारे पैसे खर्च हो गये। पैसे तो नहीं दिये परन्तु कटाक्ष युक्त कटु वचनों का उपहार देने में पीछे नहीं रही वे दोनों।

 अक्सर अपनी बड़ी भाभी या मंझली भाभी के कठोर व्यवहार और प्रताड़ना से उसका अंतस तो घायल होता ही रहता था, लेकिन इधर कुछ दिनो से दिव्या के तानों-उलाहनों से भी उसका कलेजा लहूलुहान होने लगा था। अपने दुखद दाम्पत्य जीवन से क्षुब्ध होकर वह मौके-बेमौके अपनी भड़ास उसपर निकालने लगी। उसे जब अपनी धर्मपत्नी ने भी निठल्ला, निकम्मा, नासमझ, अव्यावहारिक.. आदि शब्दों से उसके दिल को जख्मी करने लगी तो उसे महसूस होने लगा कि सचमुच वह इस धरती का बोझ है।

 वह स्वयं इस बात से दुखी रहने लगा था कि वह न तो पति का फर्ज पूरा करने में समर्थ है और न पिता का।

 उसकी जिजीविषा में क्षरण की शुरुआत हो गई थी।

 उस दिन वह खामोश था लेकिन उसका अंतस्तल उद्विग्न और आन्दोलित था।

 अचानक उसी समय बच्ची रोने लगी। वह दिव्या के पास गया यह कहते हुए, ” क्या हुआ?”

 ” आपका सिर!.. ऐसा बोलते हैं, जैसे कुछ जानते ही नहीं हैं। जब बच्ची का पेट मेरे दूध से नहीं भरेगा तो रोयेगी नहीं, इसकी तबीयत भी ठीक नहीं है।”

 ” मैंने कोशिश किया लेकिन पैसे का जुगाड़ नहीं हो सका..”

 ” इस गांव में भला कैसे कोई आपको पहचानेगा?.. बेकार आपने पढ़ाई की है, डिग्री फाड़कर फेक दीजिए। ऐसी पढ़ाई किस काम की, जो एक छोटी बच्ची की जरूरतों को भी पूरा नहीं कर सकती है, इज्ज़त से दो शाम की रोटी भी नहीं जुटा सकती है। “



” मैं कोशिश में लगा हुआ हूँ, धैर्य रखो.. “

” देख रही हूँ सप्ताह-भर से आपकी कोशिश, आपसे अच्छा तो एक भिखारी है, जो दिन-भर भटककर ही सही अपना पेट भर लेता है,और..”

” चुप रहो!.. मेरा दिमाग खराब मत करो, नहीं तो ठीक नहीं होगा ” उसने चीखकर कहा।

” एक बेकार और निकम्मा आदमी इसके सिवाय कर ही क्या सकता है?.. अपने भाइयों और भौजाइयों पर कितने दिनों तक बोझ बने रहिएगा.. “

” शांत रहो!.. बच्ची को चुप कराने की जगह भाषण दे रही है” तल्ख आवाज में उसने कहा।

” वह मुहूर्त कितना अशुभ होगा, जिसमें मैंने तुम्हारे साथ सात फेरे लिये थे।.. मैं क्या जानती थी, ये सात फेरे मेरे जीवन को दुखों के सागर में डुबो देगा, मेरे जीवन को नर्क बना देगा।

                     सिग्नल गिर(डाउन हो) गया था।

 उसने हाथ जोड़कर कुछ पल तक ईश्वर की आराधना की, फिर उसने स्वतः कहा, ” मैं अपने जीवन के खेल को यहीं पर समाप्त करने जा रहा हूंँ, इस जिल्लत भरी जिन्दगी को जीना मेरे लिए असहनीय है प्रभु!.. मेरी बच्ची और पत्नी पर कृपा दृष्टि बनाए रखना कृपानिधान!.. आत्महत्या करने के लिए क्षमा करना भगवन!”

 यकायक थोड़ी दूरी से किसी की आवाज सुनाई पड़ी,” सुदीप भाई!.. यहांँ चबूतरा पर बैठकर तपस्या कर रहे हैं क्या?.. पूरे गांव में ढूढ़कर थक गया। “

 सुदीप ने मुड़कर देखा तो पाया कि पोस्टमैन साईकिल लिये कच्ची सड़क पर खड़ा है।

” क्या बात है?.. जल्दी बोलिए “आश्चर्यमिश्रित आवाज में उसने कहा।

” रजिस्टर्ड डाक से आपके नाम से एक लिफाफा आया है। “

” देखें! ” कहते-कहते वह चबूतरे पर से उठकर पोस्टमैन के पास पहुंँच गया।

 उसने उससे लिफाफा ले लिया, फिर उसे खोलकर पत्र पढ़ने लगा। पढ़ने के क्रम में ही उसका चेहरा खुशी से दमकने लगा। यह उसका ज्वाइनिंग लेटर था।

 कुछ क्षण में ही पाशा पलट गया था। उसने अपने जीवन के खेल में बाजी मार ली थी।

     स्वरचित

      मुकुन्द लाल

      हजारीबाग

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!