“जल्दी से फ्रेश हो लो। मैं खाना लगाती हूँ। खुद भी भूखे रहो और सबको भूखा रखो।” बोल क़र बड़बड़ाती हुईं राधा किचन की ओर बढ़ गई।
“और सब लोग सो गए हैं। सबने खाना खा लिया था ना।” आरुणि अपनी सहेलियों के साथ अंदर आती हुई पूछती है।
“हाँ सबने खाना तो खा लिया था। लेकिन वो पाँचों लड़कियाँ जगी हुई हैं।” तृप्ति कहती है।
“अभी तक क्यूँ? हैं कहाँ सब!” बातें करती हवेली के अंदर आती हैं।
जैसे ही आरुणि हवेली के अंदर आती है, सभी लड़कियाँ आकर आरुणि के गले लग जाती हैं। “जान निकाल दी थी आज तो आपने सबकी। योगिता दीदी तो रोने लगी थी।” उनमें से एक कहती है।
“अच्छा तभी उसी का मुँह सबसे ज्यादा फुला हुआ है। उसके अनमोल मोती जो बर्बाद हो गए।” आँखों में शरारत भर क़र मुस्कुराती आरुणि कहती है।
“चुप करो तुम”… योगिता अचानक चीखती है और आरुणि के गले लग रोने लगती है।
“आ तो गई मैं अब। चुप हो जाओ मेरी मीना कुमारी। कुछ खिला दो… भूख लगी है.. भूखे पेट ना होत.. भजन गोपाला।” गले से लगी योगिता के बालों को सहलाती आवाज़ में बेचारगी भर क़र आरुणि कहती है।
सब मुँह दबा कर हँसने लगती हैं। योगिता सबको घूर कर देखती है… “जाओ जाकर सो सब।”
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“रविवार को हम सब रजत चल रहे हैं।” डिनर टेबल पर आरुणि कहती है। उसकी बात सुनते ही सबके हाथ निवाला तोड़ते तोड़ते रुक जाते हैं।
“कब बना लिया तुमने प्रोग्राम, पहाड़ी पर बैठे बैठे।” योगिता ने तंज कसा।
“हो गई गलती देवी जी। अब माफ़ी दे दीजिए मालकिन।” आरुणि कान पकड़ क़र आँखें झपकाती हुई कहती है।
“ठीक है.. ठीक है.. ज्यादा नौटंकी मत करो आइंदे ऐसा हुआ तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।” योगिता पूरे मूड से आरुणि को डाँट रही थी।
“बिल्कुल… ऐसी खता अब नहीं होगी।” योगिता को दोनों कंधों से पकड़ती हुई आरुणि कहती है।
“अचानक रजत पर कैसे चलने का सोच लिया।” तृप्ति पूछती है।
“इस बार सबको ले चलेंगे… हम सब.. बच्चे… इन पाँचों लड़कियों को भी, अच्छी पिकनिक हो जाएगी। क्या कहती हो तुम सब।” राधा प्रस्ताव रखती हुई पूछती है।
“मैंने भी यही सोचा है.. सब चलेंगे”…. आरुणि अपने मन की बताती हुई कहती है।
“असल में आज रोहित कैफे आया था। बहुत उदास था”, बोलती हुई आरुणि रोहित के जीवन के सारे घटनाक्रम बताती चली गई।
“रोहित की माँ के बारे में सुनकर सब दुःखी हो जाती हैं।
जीवन में कोई सुखी नहीं है। दुख ने हर किसी को किसी ना किसी तरह अपने बाहुपाश में जकड़ रखा है।” योगिता अनायास बोल उठती है। योगिता के वक्तव्य में गहराई से आत्म-संवेदना और जीवन की अस्थिरता महसूस हो रही थी। उनके शब्द न सिर्फ उसके अपने हृदय के दुख को व्यक्त कर रहे थे, बल्कि रोहित के लिए संवेदना भी उसमें उजागर हो रही थी। उसकी वाणी कह रही थी कि जीवन की अस्थिरता और दुख के अनुभव को उसने स्वयं के अंदर सामाहित किया हुआ था।
“हाँ, सबके अपने अपने सुख-दुःख, पीड़ाएँ होती हैं”…राधा ने कहा। शायद सभी को ही अपने जीवन के बीते हुए समय की याद आ गई थी। ऐसा लग रहा था मानो उसका अनुभव सभी के लिए साझा था, क्यूँकि तत्पश्चात सबके चेहरे पर एक खामोशी छा गई थी। सभी के चेहरों पर एक गहरी सोच की परत पड़ गई थी।
खामोशी से सब खाना खत्म कर साफ़ सफाई कर अपने अपने बिस्तर पर सोने चली गईं। लेकिन आज नींद किसी के आँखों में नहीं थी, मानो नींद की एक साथ ही सबसे कट्टी हो गई हो। अतीत के ताने बाने गुनते, उसके साये में आज की रात गुजर रही थी। उनके दिमाग में अतीत के विभिन्न घटनाक्रम घूम रहे थे, जिन्हें वह भूलने की कोशिश कर रही थी, लेकिन वे उनके सामने बार-बार आ रहे थे। उन्हें लग रहा था कि उनकी आत्मा आज भी पुराने दुःखों और पीड़ाओं के साथ लगी हुई है, जिन्हें वे पूरी तरह बिसर जाना चाहती हैं। उन्हें लग रहा था कि वे अपने पुराने दुःखों और पीड़ाओं को छोड़कर आगे नहीं बढ़ पा रही हैं और इससे उनके मन में अत्यंत असमंजस और बेचैनी का अहसास हो रहा था। इस तरह उनकी यह रात उतनी ही असमंजस और अस्थिर थी, जितनी की उनकी सोच। उनके अतीत का बोझ स्वयं पर लादे जैसे तैसे रात की गुजर रही थी औऱ समय कब किससे बोझ को खुद के कंधों पर उठाता है तो वह सरकता हुआ रात की कालिमा को छाँटता, दिनकर की लालिमा लिए मुस्कुरा उठा। जब रात की कालिमा जीवन की स्याह यादों के साथ जागती है तो जब दिनकर की लालिमा आती है तब आँखों में नींद की लालिमा लिए आती है, वही हुआ रात्रि जागरण के बाद पक्षी के कलरव की लोरी के बीच कब सबकी आँखें मुंद गई, उन्हें स्वयं पता नहीं चला।
उनकी आँखें खुलने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थीं, लेकिन घर में बच्चे हों और वो भी विद्यालय जाने वाले बच्चे तो सुबह का शोर-शराबे से घर गूँज उठता है। नहीं चाहते हुए भी सभी सहेलियाँ उनकी चहक और कार्य के ख़टर-पटर के बीच आँख मतली हुई कमरे से बाहर आईं। रात के जागरण के बाद सबकी आँखें सूजी हुई थी और सब एक दूसरे से नजरें चुरा रही थी, कोई नहीं चाहती थी कि उनकी दुखती रग पर कोई हाथ रखे। सब के सब जज़्बातों के तूफान में फँसी हुई थीं।
इसी सब गहमागहमी में बच्चे स्कूल और चारों सहेलियाँ अपने अपने काम पर निकल गई। काम की व्यस्तता ने सभी को धीरे धीरे स्थिर चित्त क़र दिया था।
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स्कूल की छुट्टी के बाद योगिता को पिकनिक के लिए शॉपिंग की जिम्मेदारी दी गई थी। स्कूल से निकलते ही उसने राधा को कॉल कर बाजार आने को कहा। राधा अपनी सहयोगी के हवाले बुटीक करके योगिता की मदद के लिए बाजार चली गई। शाम में दोनों सामानों से लदी फदी घर पहुँची। हवेली के मुख्य दरवाजे पर ही तृप्ति भी मिल गई और उनका भार हल्का करने के लिए कुछ सामान लेक़र आगे बढ़ गई। बच्चे जो उस समय हवेली के लॉन में खेल रहे थे , तीनों को इतने सामान के साथ देख तरह तरह के सवाल करने लगे। जैसे ही बच्चों को पता चलता है कि ये सारा सामान कल की पिकनिक के लिए है। उनकी खुशी का पारावर नहीं रहा उनके चेहरों पर एक नई उत्साहजनक चमक आ गई। उनके चेहरों खुशी भरी मुस्कान शोभने लगी थी। उनकी खुशी ने उन्हें इतनी उत्सुकता में डाल दिया कि वे खुशी से कूदने लगे। अब उन्हें कल के खास और मनोरंजन से भरपूर क्षणों का इंतजार था। अब उनकी बातचीत भी उन्हीं लम्हों के लिए थी।
बच्चों की खुशी और उत्साह को देखकर उन सभी के चेहरे पर भी एक मुस्कान आ गई। बच्चों के आनंद और उत्साह ने वातावरण को खुशियों से भर दिया। इस अनुपम पल में, बच्चों की खुशी और उत्सुकता ने सभी को मनोरंजन के लिए तैयार कर दिया था।
आराम से बच्चों.. लग जाएगी कहीं.. फिर हम सब पिकनिक पर कैसे चलेंगे! बोलती हुई योगिता बच्चों को निर्देश देकर सामान के साथ अंदर चली गई। बच्चे भी समय की नजाकत को समझते हुए और पिकनिक के ख़्वाबों में खोए योगिता की बात मानकर उधम मचाना बंद कर देते हैं।
आज की रात सभी कामों को जल्दी से निपटा लिया गया था। सबकी उत्सुकता और उत्साह ने सारे घर को उत्सव की भावना से भर दिया था। पिकनिक की सारी तैयारियाँ रात में ही पूरी कर ली गई थी और लोग बेताबी से इस अवसर का इंतजार कर रहे थे। उनकी आत्मा में उत्साह और खुशी की भावना थी, क्योंकि वे सभी कई दिनों बाद एक साथ मिलकर कुछ अलग करने जा रहे थे, जिससे वातावरण में खुशियों की खुशबू फैल गई थी। रात की धीमी हवा और चाँदनी रोशनी ने महौल को और भी मधुर बना दिया और यह मधुरता लोगों के चेहरों पर खुशियों की मुस्कान के रूप में समा गई थी।
कल के लिए आरुणि ने अपने दोनों ड्राइवर अंकल को कॉल कर पिकनिक स्पॉट तक ले चलने की जिम्मेदारी दे दी थी। कई दिनों से गाड़ी बिना उपयोग के बंद पड़ी थी इसलिए दोनों आकर गाड़ी की साफ़ सफाई कर चेक करवा पेट्रोल डलवा कर गए थे।
पकनिक का उत्साह इस कदर चरम पर था कि जैसे ही भोर ने अपनी पहली किरण के साथ हवेली में प्रवेश किया, सभी की आँखें खुल गईं। विशेषकर बच्चों ने तो धूम मचा दिया। इस खास दिन के आगमन ने उन्हें नए और अनुपम अनुभव की यात्रा पर ले जाने का वादा किया। सभी बड़े बच्चों का अति उत्साह देख खुश हो रहे थे। उत्साह तो बड़ों में भी होता है .. बस बाल सुलभ चंचलता और खुशमिज़ाजी कहीं खो गई होती है। शायद बड़े अपने जीवन की कई जिम्मेदारियों और दबावों के में इस तरह फँस जाते हैं कि निराशा के अंधेरे में घिरे हुए चाह क़र भी स्वयं को व्यक्त नहीं क़र पाते हैं।
आठ बजते ही ड्राइवर अंकल भी पहुंच गए। उनके आगमन से बच्चों में और भी जोश उमड़ आया। सभी उत्सुकता से गाड़ी में बैठने के लिए उत्साहित हो गए। कुछ बच्चे जो थोड़े ज्यादा चंचल थे, वे जल्दी से गाड़ी में बैठने के लिए उनकी सीट पर पहले ही पहुंच गए। “पहले गाड़ी को साफ़ सफाई कर लिया जाए, फिर बैठना,” ड्राइवर अंकल ने कहा। उन्हें देखकर, बच्चों के चेहरे पर मुस्कान छप गई थी और ड्राइवर अंकल भी हँसते हुए उनकी शरारतों को देख रहे थे।
सारी तैयारी कर सभी लोग साढ़े नौ के लगभग रजत जल प्रपात के लिए निकले। चौपाटी पर जाकर आरुणि गाड़ी रुकवा कर उतर गई क्यूँकि रोहित अभी तक नहीं आया था और आरुणि सबको आगे बढ़ने कह वही उसका इंतजार करने वाली थी। सबने इंतजार करने की बात कही.. लेकिन आरुणि ने ये कहकर कि वो और रोहित जिप्सी से आ जाएंगे.. सबको भेज दिया। बच्चे तो वैसे भी वहाँ पहुँचने की जल्दी में थे। गाते बजाते गंतव्य स्थान की ओर चल पड़े। पाँच दस मिनट के बाद रोहित आता दिखा। “सॉरी दस मिनट देर से आया”… आते ही रोहित ने कहा.. साथ ही पूछा.. “सारे लोग कहाँ हैं।”
“सब आगे निकले हैं, कोई जिप्सी आ जाए तो हम तुम भी चलते हैं।” आरुणि कहती हुई वही सड़क किनारे खड़ी होकर रोहित से बातें करने लगती है।
कुछ देर बाद एक जिप्सी आती दिखती है, जो कि उधर ही जा रही होती है। दोनों बातें करते साथ साथ जिप्सी में बैठते हैं औऱ चल पड़ते हैं।
“दादी से बात हुई तुम्हारी रोहित।” आरुणि पूछती है।
“नहीं.. मेरी हिम्मत नहीं हुई आरुणि। मुझे डर है कि पापा को जैसे पता चलेगा कि मैं कहाँ हूँ.. आकर चार बात सुनाएंगे।” रोहित जिप्सी के बाहर हरे-भरे पेड़ पौधों को देखता हुआ कहता है।
“तुम्हारा खर्च कैसे चल रहा है रोहित.. इतने दिनों से घर से दूर हो।” आरुणि शोचनीय मुद्रा में पूछती है।
“मम्मी ने मेरे लिए अकाउंट खोल रखा था. जिसके बारे में मेरे और मम्मी के अलावा किसी को पता नहीं था। उसमें इतने पैसे हैं कि आराम से खर्चे निकल सकते हैं।” रोहित बदस्तूर बाहर की ओर देखता हुआ जवाब देता है।
आरुणि रोहित के चेहरे पर नजर टिकाए कहती है, “रोहित बूँद बूँद से घड़ा भरता है और अगर नहीं भरो तो कुबेर का खजाना खाली होते भी समय नहीं लगेगा। फिर क्या करोगे”… आरुणि बोलती हुई बीच में ही रूक जाती है।
“कुछ सोचा नहीं कभी मैंने इस पर आरुणि”… रोहित कह ही रहा था कि जिप्सी झटके से वहाँ रुकती है। किसी को वहाँ उतरना होता है।
“अरे भुट्टा.. खाओगे रोहित”.. आरुणि भुट्टे की सुगंध लेती हुई कहती है।
“हाँ बिल्कुल”… बोलकर रोहित भुट्टा लेने चला जाता है।
उसके साथ के और लोग भी भुट्टा ले रहे थे, इसीलिए किसी ने हड़बड़ी नहीं दिखाई थी। भुट्टा खाते.. बातें करते.. हँसी ठिठोली करते.. एक दूसरे की टाँग खिंचाई करते दोनों रजत पहुँच जाते हैं।
सारे लोग पहले से वहाँ पहुँच क़र दोनों का इंतजार कर रहे थे।
“अब गाड़ी लेकर हम दोनों जाते हैं बेटा। हमलोग शाम तक आ जाएंगे।” ड्राइवर अंकल ने आरुणि से कहा।
“जी.. जरूर अंकल”..आरुणि प्रतिउत्तर में मुस्कुरा क़र कहती है।
यहाँ से अब प्रपात तक पैदल जाना था तो कुछ दूर चलने के बाद जंगल में एक अच्छी जगह देख वही बैठने और खाने पीने का विचार किया गया। बच्चों को भी भूख लगने लगी थी। खिलाने पिलाने का सारा जिम्मा सारी लड़कियों ने अपने ऊपर ले लिया और सबको निश्चिन्त होकर बैठने कहा। आरुणि और उसकी सहेलियाँ बैठ गईं। बच्चे तो बच्चे ठहरे, वो तो बहता दरिया हैं, जो शांति से बैठ ही नहीं सकते। वे निरंतर गतिशीलता और उत्साह से भरे होते हैं, जिससे शांति से बैठने में असमर्थता का अनुभव करते हैं। उनकी जिज्ञासा और उत्साह नए अनुभवों की ओर उन्मुख होते हैं और यही उन्हें जीवन के रोमांच के प्रति निरंतर प्रेरित रखता है।
इतनी देर में रोहित और बच्चों की अच्छी मित्रता हो गई थी तो बच्चे रोहित को भला क्यूँ बैठने देते। जब तक खाना नहीं लग गया, बच्चों का शोर शराबा.. उछलना.. कूदना तब तक चलता रहा। खाने के लिए जब आरुणि ने सबको बुलाया तभी सब शांत हुए।
खाना समाप्ति के थोड़ी देर बाद सभी आगे बढ़ने लगे।
रोहित के चेहरे पर खुशी की छांव थी, वह जंगल के रास्ते से गुजरते हुए प्रकृति के आसपास, हरियाली के बीच और बच्चों के साथ खेलते-मुस्कुराते हर लम्हे का आनंद ले रहा था। उसकी आत्मा में नई ऊर्जा का संचार हो रहा था, जो उसे नई उम्मीदों की ओर ले जा रहा था। वह प्राकृतिक सौंदर्य की शान्ति और चारों ओर की हरियाली का आनंद ले रहा था, जो उसके दिल को बहुत अच्छा लग रहा था। वह एक सुंदर और आनंददायक वातावरण में अपने आसपास की प्रकृति की सुंदरता को उचित रूप से महसूस कर रहा था।
रुकते, चलते और सुस्ताते हुए वे पेड़ों की डालियों को झूला बनाते और उनमें झूलते, चिड़ियों की चहचहाहट में अपनी आवाज मिलाते हुए, वे झरने के पास पहुँच जाते हैं। उनकी यह सरलता और प्रकृति के सानिध्य से भरी गतिविधियाँ उनके दिल को आनंदित और प्रसन्न कर रही थीं। यह वास्तविक जीवन के छोटे-छोटे पल हैं जो उन्हें खुशियों से भर देते हैं और आत्मा को ताजगी से भर देते हैं।
आरुणि तो पहले भी कई बार आ चुकी थी और उसकी सहेलियाँ भी एक दो बार आ चुकी थी, बच्चों के लिए यह एक पूरी तरह से नया अनुभव था और रोहित भी यहाँ पहली बार आया था। जैसे ही वे झरने की ऊँचाई से नीचे गिरते पानी की धारा देखते हैं, उनका उत्साह और खुशी का स्तर और भी ऊपर चढ़ जाता है। उनकी आँखों में उत्साह की चमक दिखाई देने लगती है। उनकी तालियों की गूँज से उनके आनंद का इजहार हो रहा था, उनकी खुशी का यह संदेश प्रकृति भी सुन रही थी। तब राधा ने बताया कि “यह तीन सौ पचास मीटर की ऊँचाई है और पानी में जब सूर्य की किरणें पड़ती हैं तो य़ह बिल्कुल चाँदी की तरह चमकता है.. इसीलिए इसे रजत जल प्रपात कहते हैं।”
“हाँ और ये पचमढ़ी के सबसे ऊँचे जल प्रपात में से एक है…इसे सिल्वर फाॅल भी कहते हैं”, योगिता ज्ञान में वृद्धि करती हुई कहती है। बच्चे, रोहित और बाकी लड़कियाँ बहुत ध्यान से उन लोगों की बात सुन रही थी।
ये जो झरने का पानी है ना, यह चटटानों से रिसने वाले पानी से बनता है, मतलब की चटटानों से रिस क़र जो पानी आता है, ये वो है। पचमढ़ी की पहाड़ी चटटानों में पानी को अवशोषित करने की क्षमता होती है और इन चटटानों में अवशोषित पानी इस झरने के द्वारा एक खूबसूरत जलप्रपात बनाता है”… तृप्ति झरना के उद्भव के बारे में बताती है।
अगला भाग
जीवन का सवेरा (भाग -8 ) – आरती झा आद्या : Moral stories in hindi
आरती झा आद्या
दिल्ली
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