जीवन के यह आखिरी पल – उमा वर्मा

प्रभा जी  बिस्तर पर पड़ी हैं ।डाक्टर ने जवाब दे दिया है ।अस्पताल में भर्ती थी।अब घर आ गई है ।आज कुछ ज्यादा ही तबियत खराब लग रहा है ।सांस उखड़ने लगी है ।शरीर हल्का हो रहा है ।एक गहन अंधेरा छा रहा है ।स्मृति शेष है ।पुरानी बातें चलचित्र की तरह आखों के सामने घूम रही है ।वह अभी छोटे बेटे के पास है  ।कितनी शानदार गृहस्थी थी।पति पत्नी और दो बच्चे ।पति की सरकारी नौकरी थी ।सारी सुख सुविधा मिली हुई थी ।अच्छा क्वाटर, अस्पताल,स्कूल, सबकुछ ।पैसे कम थे लेकिन एक संतुष्टि थी।।जीवन में लयबद्धता थी ।सब कुछ घड़ी की नोक पर ।समय से सब कुछ करना ।

आज जिंदगी कितनी बदल गई है ।बच्चे  बड़े हो गये ।उनकी शिक्षा पूरी हुई तो शादी भी हो गई ।पति रिटायर  कर गये ।सोचा एक छोटा सा आशियाना बना लेंगे तो जीवन आराम से कट ही जायेगा ।बच्चे अपनी राह ,वह अपने पति के साथ, अपने आशियाने में सुख पूर्वक जीवन  बिता लेगी।पर सोचा हुआ कहाँ होता है ।चार साल के बाद ही पति एक छोटी सी बीमारी में थे,एक दिन सोये तो फिर उठे ही नहीं ।प्रभा की जिंदगी उजाड़ हो गई थी ।बेटे बाहर नौकरी करते थे ।

माँ को अकेले कैसे छोड़ते ।बहुत जिद किया कि वह उनके साथ चलें ।लेकिन प्रभा, अपने पति के यादों के सहारे इसी घर में जीवन बिताना चाहती थी ।बहरहाल बेटे वापस चले गए ।घर में देख भाल के लिए एक काम वाली  को रख दिया ।थोड़ा दिन चैन से बीता ।बड़ा बेटा सिद्धांत वाला था आफिस में राजनीति और चमचागीरी नहीं सह पाया नौकरी छोड़ कर घर आ गया ।




लेकिन दुनिया सिद्धांत पर कहाँ चलती है ।रखे हुए पैसे खत्म होने लगे।सलाह हुआ ।माँ छोटे के पास चली जायेगी ।बड़ा अपने घर में रहते हुए दूसरे जगह कोशिश करेगा ।वह पूना आ गयी ।छोटा बेटा  बहू ठीक ही था ।लेकिन पहले अपने लिए सोचने वाला था ।बहू ने सुना सास आ रही है तो वह मायके भाग गई ।अब प्रभा जी पर काम का बोझ बढ़ गया ।घर के सारे काम, रसोई बनाने की तैयारी, सबकुछ देखना पड़ा ।थक कर चूर हो जाती वह।एक दिन बेटे से कहा ” रवि,तेरी बहू मायके चली गयी, कोई बात नहीं है, लेकिन बेटा, एक फोन तो कर सकती थी ।

मेरी भी उम्र हो गयी है उसे हालचाल लेना चाहिए कि नहीं? मुझे बहुत बुरा लगता है कि मेरे आने की सुनकर वह चली गई बेटा तुरंत बोला ” माँ वह अपने परिवार से मिलने गयी है तो क्या गलत है? और रही बुरा लगने की बात तो उसे भी तो कुछ बुरा लग सकता है ।प्रभा एक दम चुप हो गयी ।अब कुछ बोलना बेकार है ।यह मेरे मन को समझने वाले नहीं है ।जितना हो सके करती रहो।यही  बेटा था माँ के आगे पीछे डोलने वाला।और बहू की क्या गलती? जब अपना ही खून समझने को तैयार नहीं है ।

माँ थी  बड़े बेटे की नौकरी न होने से चिंता करती ।कैसे घर चलेगा? क्या  भूख मरने की नौबत आ जायेगी? पति का सरकारी नौकरी तो था लेकिन पेंशन की सुविधा नहीं थी ।पेंशन भी होता तो कुछ मदद कर पाती ।कोई रखा हुआ पैसा भी नहीं था ।रिटायर होने के बाद जो कुछ मिला बच्चों में खर्च कर दिया ।थोड़े पैसे लगा कर छोटा सा रहने लायक घर बना लिया ।अब वह खाली हाथ क्या करें? कैसे करें? बेटे को नहीं समझा पायी कि बेटा, दुनिया सिद्धांत पर कहाँ चलती है ।जैसे चलता है, चलने दो।तुम दुनिया को नहीं बदल सकते हो ।वह दिन रात सोचते रहती ।




भगवान से हाथ जोड़ती मेरे बच्चे सुखी रहें, अगर मैंने जीवन में कुछ गलत किया है तो उसकी सजा मेरे बच्चों को न दें।बहुत सोच से वह बीमार रहने लगी ।बहू को मायके से लेकर आ गया बेटा ।लेकिन वह भी तेज तरार थी।काम की अधिकता बढ़ जाने से  सास पर गुस्सा निकालती ।कभी प्रभा जी बेटे से बड़ी बहू के बारे में कहती तो तुरंत बेटा बोल देता ” माँ, सबका नेचर एक तो नहीं हो सकता ना? सब कोई भाभी जैसा नहीं हो सकता ।सब का तरीका, रहन सहन अलग होता है ।वह चुप  हो जाती ।अब इनको कुछ भी कहना बेकार है ।नहीं समझेगा यह ।घुटती रहती मन में ।एक दिन तबियत ज्यादा ही खराब हो गई  तो अस्पताल ले जाया गया तो डाक्टर ने पूरी जाँच की और ब्रेन ट्यूमर बता  दिया ।उन्होंने  माँ को कुछ नहीं बताया ।लेकिन पढ़ी लिखी तो थी ही ।सब समझ रही थी ।

सिर में भयंकर दर्द हो जाता तो बेचैन हो जाती।क्या कहती, किससे कहती? पति थे नहीं कि अपना दुख सुख साझा करती ।बेटों से क्या उम्मीद करना ।सब की अपनी परेशानी थी ।वह अपने बेटे की परेशानी बढ़ाना भी नहीं चाहती ।अब खुद ही सहना है ।दिन कहाँ रुका है कभी? वह तो चलता ही रहता है ।किसी से कुछ  कह भी नहीं पाती।सोचती ,मेरी तो उम्र हो चली  है ।जान तो है ही ।बस हे ईश्वर, मेरे बच्चे सुखी रहें ।यही कामना करती हूँ ।सब की अपनी दुनिया है ।

अपनी परेशानी है ।दो दिन से सिर में बहुत तकलीफ है।आंखो से देखने में भी दिक्कत है।आज तो सुबह से उठा भी नहीं जा रहा ।शरीर एक दम  कमजोर हो गया है ।बहुत जोरो की प्यास लगी है ।किससे कहें? कोई आता तो पानी माँग लेती।बेटा बाहर निकला है कुछ काम से ।बहू अपने कमरे में टीवी देख रही है ।शरीर ठंढा हो रहा है ।लगता है अंत निकट है ।चलचित्र घूम रहा है दिमाग में ।कितनी उछलकूद करती थी, अब कैसी हो गई ।उठने की ताकत नहीं बची है ।

कम पैसे में कितना सुखद जीवन था ।कोई आपाधापी नहीं थी।सुख संतुष्टि थी।जीवन कहाँ से कहाँ भाग गया ।” हे भगवान, शान्ति दे दो” अब नहीं सहा जाता ” ओम नमो भगवते वासुदेवाय नमः” एक हिचकी आ रही है, शायद यही अंत है ।और एक हिचकी—- प्रभा को मुक्ति मिल गई इस असार संसार से ।

उमा वर्मा, नोएडा । स्वरचित, मौलिक और अप्रसारित रचना ।

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