किसी गहरी सोच में डूबी सी प्रतिभा देशपांडे रसोई के काम में लगी थी। तभी उन्हे लगा कि कोई उस से सटकर खड़ा हो गया है। उसकी सांसें गर्दन को छू रही थीं। उन्होने पीछे मुड़कर देखा तो बेटी अनुष्का सजल आँखों से उसकी ओर देख रही थी।
“अरे, क्या हुआ अनु। परेशान सी क्यूँ लग रही हो। पापा के जाने से दुखी हो न बेटा। काम है तो जाना तो पड़ेगा न।”
“माँ… ।” कहते हुए उसने एक गहरी सुबकी ली और माँ से लिपट गई।
“क्या हो गया बेटा। काम धंधे में बाहर तो जाना ही पड़ता है। इसी व्यापार से तो हमारा परिवार कहाँ से कहाँ पहुंचा है न अनु। ये कोठी, कार और तुम्हारी महंगी पढ़ाई।”
“बाहर जाना या बाहर रहना मम्मा।”
“हाँ… लेकिन… मतलब क्या है तुम्हारा?”
“वहाँ नॉर्वे में कोई और भी है न माँ…।”
“क… कहाँ कोई और है। कौन कहाँ है बेटा।” बोल तो रही थी रश्मि किन्तु उसकी आवाज हर शब्द के साथ कमजोर होती जा रही थी।
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“अंजान मत बनो माँ। तुम्हें सब पता है। मैंने पापा की स्ट्रोली बैग देखा था। कन्नौज का लेडीज इत्र, ब्रा और न जाने क्या क्या लेडीज़ आइटम वे भारत से ले जा रहे हैं। किसके लिए?” फिर थोड़ा रुककर बोली “तुम ये सब जानती थीं न माँ।”
“अरे! क्यूँ देखा तुम ने पापा का बैग। पिता हैं वो तुम्हारे। तुम उनकी जासूसी कर रही थीं।” प्रतिभा ने रोष के साथ कहा।
“मम्मा, कितने ज्वाला मुखी भीतर छुपकर रखोगी। मैंने पापा को रातों को बालकनी में खड़े होकर किसी से बातें करते हुए सुना है।”
कुछ पल के लिए मौन छा गया। प्रतिभा किंकर्तव्य विमूढ़ सी शून्य में देखती रही। फिर उनकी सजल निगाहें झुक गईं। उन्होने एक दीर्घ निःश्वास लेकर कहा।
“जिंदगी है न बेटा। जीना तो पड़ेगा। न जाने कितने समझौते करने पड़ते हैं।”
फिर थोड़ा संभलते हुए कहा “हजारों मील दूर रहते हुए भी साल में दो बार आते हैं न हमारे पास। और इतना पैसा…। रिश्तों को पोसना पड़ता है। उन्हे ज्यादा कुरेदने से कीड़े ही निकलते हैं बेटा। और तुम्हें तो कितना प्यार करते हैं। कल ही कह रहे थे कि कितना भी पैसा खर्च हो जाए, अनु को देश की सबसे बड़ी डॉक्टर बनाना है।”
“मुझे कॉलेज जाना है माँ।” अनु ने माँ से अलग होते हुए कहा।
“मगर पाँच बजे तुम्हारे पापा की फ्लाइट है। तीन बजे निकलेंगे।”
“लौटने में देर हो जाएगी। पापा से मेरी तरफ से भी बाय बोल देना।” और अनुष्का लापरवाही से अपना बैग उठाकर निकल गई।
रवीन्द्र कान्त त्यागी