शोभा और राजेश की गृहस्थी की गाड़ी सुचारू रूप से चल रही हैं। दोनों की शादी को 28 साल पूरे होने को आए। दोनों ने ही सदैव घर परिवार बच्चों के लिए स्वयं को समर्पित किया है। दोनों बच्चे पढ़ लिख कर ऊंची नौकरियों पर बड़े शहरों में सेटल हो गए हैं।
बच्चे कामयाब भी क्यों ना होते आखिर बच्चों के साथ-साथ मां-बाप ने भी तो पूरी तपस्या ही की थी।
जब शोभा ब्याह कर नई-नई इस घर में आई थी तब आमदनी का जरिया भी इतना अधिक नहीं था। उसे अच्छी तरह से याद है की कितने कम खर्चे में अपनी सास के साथ मिलकर गृहस्थी चलाया करती थी। ससुर जी हिसाब से घर का खर्च दिया करते थे। राजेश की तो शुरू में मामूली सी नौकरी थी जो बच्चों में ही खर्च हो जाती थी।
शोभा ने अपने खर्चों में चाहे कितनी ही कटौती क्यों ना कि हो पर बच्चों को उसने कहीं से कमी ना रखी। बढ़िया से बढ़िया खिलाया। एकदम फैशन के कपड़े पहनाती और शिक्षा के लिए भी शहर के नंबर वन स्कूल में दाखिला कराया।
घर में चकरी की तरह पिसती थी शोभा। सास ससुर की सेवा भी करती और बच्चों के लिए तो हर वक्त समर्पित रहती। कभी मायके जाती तो उसकी मम्मी उसको साड़ी दिलवाने के लिए कहती तो वह मना कर देती।
अपनी साड़ी की बजाय रुपए ही ले लेती ताकि बच्चों की इच्छाएं पूरी की जा सके।
उसे याद है कि कितनी सुबह जल्दी उठकर बच्चों को स्कूल भेजना होता था। जबकि उसे सुबह की सैर करनी बहुत अच्छी लगती थी लेकिन जिम्मेदारियां के चलते वह समय ही ना निकल पाती।
धीरे-धीरे उसकी दोनों बेटे बड़े-बड़े कॉलेज में प्रवेश पा गए। बच्चे भी व्यस्त थे अपनी पढ़ाई लिखाई में। राजेश भी धीरे-धीरे तरक्की करके अच्छी नौकरी पर पहुंच गए तनख्वाह भी अच्छी मिलने लगी। लेकिन तनख्वाह चाहे कितनी ही बढ़ क्यों ना गई हो, मध्यम वर्गीय परिवारों में कम ही पड़ती है। बच्चों की पढ़ाई लिखाई, आना जाना और कुछ ना कुछ खर्च लगा ही रहता है।
शोभा सोचती कोई बात नहीं है पैसा ना जुड़ा ना सही। कम से कम बच्चे तो कामयाब हो ही गए।
अब बड़े बेटे निशांत के विवाह शादी के विषय में घर में बातें चलने लगी। उम्र भी हो गई थी शादी की। कई जगह से रिश्ते भी आने लगे लेकिन निशांत कन्नी काट जाता। लड़की तो उसने पहले से ही पसंद कर रखी थी। घर पर निशांत ने जब अपने प्रेम की विषय में बताया तो शोभा और राजेश को एकदम धक्का सा लगा। हिंदुस्तान में माता-पिता का बच्चों की ब्याह शादी को लेकर बहुत अरमान होता है। समय की चाल है। परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। यह सोचकर शोभा और राजेश अंतर्जातीय विवाह को भी रजामंदी दे देते हैं। उनकी सोच थी,”जिसमें बच्चे खुश, उसमें हम खुश।”
शादी के तुरंत बाद ही पहले तो बच्चे घूमने फिरने निकल गए। फिर तुरंत ही अपनी नौकरी पर अपने अलग शहर में। शोभा का बड़ा अरमान होता कि कुछ समय बहू बेटों के साथ गुजारे।
लेकिन बहू बेटों ने उसे आने के लिए एक बार भी नहीं कहा। उसने सोचा शायद बच्चे व्यस्त होंगे इसलिए याद नहीं रहा होगा।
शोभा की बहुत इच्छा थी अपने बहू बेटे के पास रहने की इसलिए उसने अपने बेटे निशांत को फोन मिलाया और अपने आने के विषय में कहा।
निशांत तो खुश हुआ। शोभा जी निशांत के फ्लैट में कुछ दिन रहने आ गई। लेकिन यहां बहू बेटों का ढंग कुछ अजीब सा था। उनका मन कम ही लग रहा था। यहां पर भी रसोई में ही लगी रहती।
लेकिन समय परिवर्तित था। किसी समय उनके बनाए हलवे और खीर को निशांत चाट-चाट के खाया करता था। अब उसकी पत्नी रिद्धि इन चीजों को उसे छूने ही नहीं देती।
शोभा जी अपेक्षित से महसूस कर रही थी स्वयं को। थोड़े दिन बाद की वापस लौट आती है अपने यहां।
छोटा बेटा मयंक तो विदेश ही चला गया।
शोभा अब स्वयं को बहुत अकेला महसूस करती। बच्चों को याद कर करके उसकी आंख भी भर जाती है लेकिन बच्चे अपनी दुनियाँ में व्यस्त है।
दोनों मियां बीवी एक दूसरे से मन तन की कहकर मन की निकाल लेते।
राजेश जी को लंबे समय से शुगर की समस्या थी। खास परहेज भी नहीं करते। सोचते सब ठीक ही तो है। लेकिन एक दिन अचानक से उनके सीने में दर्द उठा। शोभा अकेली, अस्पताल में ले जाने में भी समय लग गया। किसी स्त्री के जीवन का सबसे भयंकर समय उसके सुहाग का छिन जाना पत्थर से पत्थर हृदय को भी द्रवित कर देता है।
शोभा पत्थर का वुत बन गई। निशांत तो आ गया अपने पिता को मुखाग्नि देने के लिए। मयंक विदेश में होने की वजह से आ ही नहीं पाया। जबकि राजेश जी का कितना लाड़ला था मंयक।
रस्म पगड़ी तक बड़ा बहू बेटा यही रहे। तेरहवीं भी जल्दी करवा दी गई क्योंकि नौकरी से छुट्टी नहीं मिल रही थी। मयंक वीडियो कॉल पर ही बात कर लेता।
कार्यक्रम समाप्ति के पश्चात निशांत और रिद्धि अपने बैग पैक करके वापसी के लिए रवाना हो लिए। दोनों ने माँ से एक बार भी नहीं कहा कि, “माँ तुम हमारे साथ चलो।”
उन्होंने विचार भी नहीं किया की माँ अकेली कैसे रहेंगी।
बल्कि जब तक यहां रहे पूरी कोशिश की जानने की पिताजी क्या क्या छोड़ गए हैं?
शोभा घर में अकेले पड़े-पड़े रोती रहती। बहू बेटों को कॉल मिलाती है तो सब व्यस्त होते। एक तो उड़कर विदेश ही चला गया था। सारी गलती मंयक की भी तो नहीं थी। राजेश जी का ही तो सपना था बच्चों को विदेश भेजने का। उनका ही तो सपना साकार हो रहा था। चाहे इसके लिए बेटा मिट्टी पर भी ना आ सके।
परिंदों का इतना ऊंचा आसमान ना कर
कि लौटने को जमीन ही ना मिले।
शोभा की काया बहुत दुर्बल होती जा रही थी। बुढ़ापा झलकने लगा। इतनी उम्र थोड़ी थी जितनी लगने लगी।
अब बच्चों की तरफ से प्रस्ताव आने लगा कि इतने बड़े घर में माँ अकेली रहकर क्या करेंगी?
बड़ी बहू रिद्धि ने प्रस्ताव दिया,”इसको बेचकर माँ के लिए छोटा सा घर देख लेते हैं। चाहे किराए का ले लिया जाएगा। पैसा मिल बाट लेंगे।”
शोभा को जब यह बात पता चली तब उसके पैरों के नीचे से जमीन ही निकल गई। जिन रिश्तो को उसने इतना सींचा था आज उनमें इतनी कड़वाहट। जिम्मेदारियां का एहसास नहीं था उसकी औलादे को सिर्फ अपनी-अपनी हिस्सेदारियों की बात करते।
अब उसको समझ आ गई थी ज़मीनी हकीकत। उसको पता चल गया था की रोने धोने या कमजोर बनने से कुछ नहीं होगा। अगर जीना है तो ठानना ही पड़ेगा। मजबूत बनना ही पड़ेगा। उसने #आखिरी फैसला कर लिया। उसने सख्ताई से सबको मना कर दिया कि वह अपने पति का घर किसी भी कीमत पर नहीं बेचेगी।
समय बढ़ता है। शोभा ने भी हिम्मत करके अपनी दिनचर्या को व्यवस्थित किया। भगवान की कृपा से उसके पास पर्याप्त बैंक बैलेंस था। उसके पति समय रहते ही काफी एफ डी भी कर गये थे उसके नाम की। अब उसने अपने घर के काफी हिस्से को किराए पर चढ़ा दिया जिससे उसकी आमदनी का फिक्स जरिया भी बन गया। पढ़े लिखे घर गृहस्थी वाले किराएदार रखती तो फालतू का झंझट भी नहीं रहता। बल्कि अब उसका अकेलापन भी दूर होने लगा। अब उसने कई सामाजिक संस्थाओं में भी भाग ले लिया। इनके माध्यम से कुछ सामाजिक कार्य,कुछ दान-पुण्य भी वह कर लेती थी। कीर्तन भागवत में भी समय बिताती। घर के आगे कच्चे हिस्से में उसने काफी अच्छे पेड़ पौधे लगा लिए जिससे हरियाली भी रहती और उनकी देखभाल करने में उसको सुकून भी मिलता। घर में लहराती रामा श्यामा तुलसी को देखकर तो उसका हृदय आनंदित ही हो जाता। अब अपने दुखों को भूलती जा रही थी। क्योंकि जीना तो पड़ता ही है ना चाहे परिस्थिति कुछ भी क्यों ना हो?
फिर भगवान के दिए हुए इस जीवन को सही से क्यों ना किया जाए?
अपने संग साथ की महिलाओं के साथ कभी-कभी यात्रा पर भी निकल जाती है। कभी धार्मिक यात्रा होती है तो कभी मन को आनंदित करने वाली प्रकृति की गोद।
अब उसका जीवन सही चल रहा था। दिल में पति की कसक तो थी लेकिन उसने अपने आप को सामाजिक कार्यों में लगाकर व्यस्त कर लिया था।
कई महीने गुजर जाने के पश्चात 1 दिन बड़े बेटे का फोन आता है। बड़ा खुश था उसका बेटा। खुशी-खुशी बता रहा था कि माँ तुम अब दादी बनने वाली हो। बस अब जल्दी से उसके घर आ जाओ क्योंकि उसकी पत्नी रिद्धि को अब उनकी जरूरत थी।
शोभा बहुत दिन बाद अपने बेटे की आवाज सुन रही थी। दिल में खुशी तो हुई बहुत सुनकर लेकिन अब वह किसी के हाथों की कठपुतली नहीं बनना चाहती थी। अब उसने अपनी दुनियाँ को व्यवस्थित कर लिया था।
उसने अपने बेटे से बड़े प्यार से कहा, “बेटा माफ करना लेकिन मैं नहीं आ पाऊंगी क्योंकि अब मेरी व्यस्तता बढ़ गई है। पहले तो मेरे पास तुम दोनों बेटों की ही जिम्मेदारी थी लेकिन अब मैं समाज से भी जुड़ गई हूँ। मेरा भी अपनी दिनचर्या है। मेरा भी खुद का एक सर्कल है जिसमें मुझे भी अपनी उपस्थिति दर्ज करानी होती है। इसलिए तुम अपना इंतजाम कुछ और कर लो।”
बेटे को यह सुनकर तिल मिले लग जाते हैं। वह चीखकर कहता है,”क्या यह आपका फर्ज नहीं है कि आप अपनी बहू की ऐसे समय में सेवा करो।”
फर्ज की बात तुम मत करो। मुझे अच्छे तरीके से पता है कि किसने कितना फर्ज निभाया है। क्या औलादों का काम अपने अधिकारों को लेना ही है अपनी जिम्मेदारियां निभाना नहीं?
ऐसा कहकर शोभा जी ने फोन रख दिया। उन्हें देर भी तो हो रही थी अनाथ आश्रम जाने की जहां पर आज उन्हें बच्चों को कॉपी किताबें व खाद्य सामग्री भी बांटनी थी।
अब उन्होंने अपनी खुशियां दूसरों के चेहरे पर खुशी देखकर ही तो ढूंढ ली थी।
शोभा जी जैसे ही अनाथ आश्रम पहुंची सारे बच्चे उनको घेरकर खड़े हो गए। आंटी आ गई आंटी आ गई ऐसा कहकर बच्चे दूर से ही चिल्लाने लगे। उन्हें भी बड़ा सुकून मिलता बच्चों के चेहरे पर मुस्कुराहट देखकर।
यह आज बहुत लोगों की समस्या बन गई है। बच्चे अपनी दुनियांँ में मस्त हैं। वृद्ध लोग अकेलेपन की समस्या से जूझ रहे हैं। रोने और डिप्रेशन के शिकार होने से अच्छा है कि अपने मन को मजबूत करके सदुपयोगी कार्यों में लगाया जाए।
स्वरचित मौलिक अप्रकाशित
प्राची अग्रवाल
खुर्जा बुलंदशहर उत्तर प्रदेश
#आखिरी फैसला शब्द पर आधारित बड़ी कहानी