“जाने कहाँ गए वो दिन” – कुमुद मोहन : Moral Stories in Hindi

देविका जी उम्र के आठवें शतक में अपने आलीशान मकान के बरामदे में अकेली बैठी बाहर होती घनघोर बारिश देख रही थी!बिजली चमकने और बादलों की घड़घड़ाहट से उनका बूढ़ा शरीर डर के मारे रह रह कर कांप जाता!

आंघी की वजह से लाईट भी चली गई थी!

बैठे बैठे उनका मन अतीत के गलियारे में जा पहुंचा!

घर वही है ,आंगन वही है ,दरवाजे पर हवा के झोंकों से बार-बार हिलते आम के दो दरख्त भी वही हैं!आते जाते मौसम भी वही हैं!

नहीं है तो बस घर की रौनक,बहू बेटियों की दबी सी हंसी,बच्चों की किलकारियां,एक दूसरे से झगड़ना,हल्ला गुल्ला ,नौकरों की आवाजाही,उनके पति रामपाल जी की दबंग आवाज़!

कभी यही भरा पूरा घर कैसे गुले गुलजार रहा करता था!

रामपाल जी के दोस्तों की आवभगत,पूरे आंगन में सूखते अमचूर के आम,हल्दी,मिर्चें तो कभी गेहूं,मक्का!

होली पर बनते पकवान तो बेटियों का तीज का सिंधारा!दुपहर को आसपड़ोस की बहू बेटियां सिलाई बुनाई सीखने आती ,खिलखिलाती हंसती!

उन्हें याद आ रहा वे सिर्फ अठारह बरस की थी तीन बहनों और दो भाईयों में सबसे छोटी! घर में सारे बहन भाई अच्छे खासे खेले खाऐ थे पर उनकी मां का कद छोटा था तो सिर्फ देविका ही एक दम दुबली पतली मरियल गाय की तरह सींक सलैया सी रह गई! 

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सब भाई बहन ब्याह कर अपने घर के हो गए! देविका जी के लिए कई रिश्ते आऐ पर उनकी कमज़ोर कद काठी देखकर बात न बनती!घर में ही रहने के कारण वे बहुत पढ़लिख तो नहीं पाईं पर घर के कामों में होशियार उनके पूरे परिवार में कोई नहीं था!स्वभाव से सौम्य,सुशील ,शांत और मृदुभाषी देविका अपने और चाचा ताऊ सबके बच्चों मे सर्वप्रिय थी!धैर्य, बर्दाश्त और जिम्मेदारी जैसे गुण उनमें कूट-कूट कर भरे थे!

फिर किसी दूर के रिश्तेदार ने कोशिश कर के उनका ब्याह ठाकुर रामपाल जी से करवा दिया!देश के एक सिरे पर मायका तो दूसरे सिरे पर ससुराल! 

ये बना देविका जी का भविष्य! 

ब्याह होकर आई तो मिले तीन सौतेली बेटियां,बूढ़ी सास और विधवा ननद उनके दो बेटे!

रामपाल जी की पहली पत्नि बेटे के होने में चल बसी थी!

बेटा भी नहीं रहा!

बाग बगीचे,खेत खलिहान,गाय भैंस नौकर-चाकर,घोड़ा गाड़ी सबकुछ था पर उनसे बढ़कर थी जिम्मेदारियाँ! 

छोटी बेटी चार साल की थी !

रामपाल जी के बाकी भाई कोई काम नहीं करते थे इसलिए दादी उनके बच्चों को भी एक एक करके ले आई! और बच्चों के साथ वे भी पढ़लिख गए! 

तीनों बेटियों ने नई मां को और देविका जी ने भी बेटियों को खुले मन से स्वीकार किया!

कभी सौतेलेपन का विचार न देविका न ही बच्चियों के दिमाग में आया!

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घर में किसी चीज की कमी नहीं थी देविका वैसे भी गृहस्थी के काम काजों में निपुण थी!सुबह से शाम तक नौकरों से काम कराना सबका ख्याल रखने में व्यस्त रहती!

अंतराल में देविका भी दो बेटों और दो बेटियों की मां बन गई! 

पैसा रूपया घन दौलत के साथ अपने परायों की जिम्मेदारियों के बोझ तले दबती चली गई!

मायका इतनी दूर कि न कोई आसानी से आता ना ही वे जा पाती!बड़ी मुश्किल एक बार पिता के मरने में ही जा पाई!

ना अपने मन का खाया,न पहना,न पति के साथ कहीं घूमी न फिरी!उनकी दुनिया तो जैसे चूल्हे-चौके,बच्चे पैदा करने और सबका ध्यान रखने में बीतती चली गई! 

पहले बच्चों की पढ़ाई फिर ब्याह फिर उनके बच्चे, इतने बड़े परिवार को संभालना उसपर चेहरे पर शिकन भी नहीं!ऐसी थी देविका, देवी समान! 

जेवर कपड़ा सब था पर गाहे बगाहे किसी अड़ोस पड़ोस के ब्याह शादी में ही निकलता!

देविका को रामपाल जी का आख़री वक्त याद आया!उन्होंने सारी उम्र तो चैन से दो घड़ी पास न बैठाया था पर उस दिन देविका से माफ़ी मांगते हुए कहा”जीते जी मैं तुम्हारा कोई ख्याल न रख पाया!बहुत ना इंसाफी हुई तुम्हारे साथ! 

मैंने अपनी सारी जायदाद तुम्हारे और दोनों बेटों के नाम कर दी है! बेटियों के ब्याह खूब अच्छी तरह अच्छे घरों में कर दिये हैं!तुम्हें किसी चीज की कमी नहीं होगी”

रामपाल जी के मरने के बाद दोनों बेटों ने घर के और जमीन के तीन हिस्से कर लिये!

कुछ दिन ठीक चला!बेटियां आती तो देविका उनको अपने हिसाब से लेती देती!

बाद में बेटों ने सोचा मां को इतने बड़े हिस्से की क्या जरूरत?रही किचन की तो एक वक्त इधर खा लेंगी एक वक्त उधर!उनका खाना ही कितना है?

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बेटों के बहकावे में आकर देविका ने अपना हिस्सा भी दोनों को आधा आधा दे दिया!

इतने बड़े घर जिसको उन्होंने अपने जी जान से संभाल रखा था, उसी घर में उन्हें एक कमरे और बाथरूम में समेट दिया!

अब वे एक एक चीज के लिए बहुओं की मोहताज हो गई ।

खाना पीना रहना सब बहुओं के हिसाब से होने लगा!उनकी पसंद,उनके टाइम पर!

बड़े बेटे ने यह कहकर उनके बैंक का अकाउंट में अपना नाम डलवा लिया कि आप कभी बैंक वैंक गई नहीं आपको क्या पता?फिर आपको पैसे की जरूरत भी क्या खाना पीना कपड़े तो हम दे ही रहे हैं!

कुछ दिन बाद एक बेटा अपने परिवार को लेकर छुट्टियां बिताने योरोप जा रहा था!और दूसरा अपने ससुराल की शादी में जाने वाला था! 

देविका ने सोचा वह बड़ी बेटी को बुला लेगी कुछ दिन रह जाऐगी!बेटों को पता चला तो तमक कर बोले “ये रोज-रोज का जीजी लोगों का आने का क्या मतलब?”आप किचन गंदा करके रख देती हैं!फिर उनके जाते वक्त शगुन के नाम पर पैसा लुटाने का कोई तुक नही!

वे आऐंगी और आपको उल्टा सीधा हमारे खिलाफ भड़काऐंगी ये हमे पसंद नहीं!

हम पड़ोसन चाची से कह जाऐंगे कोई जरूरत होगी देख लेंगी!वैसे भी तो आप हमेशा घर के अंदर ही रही हैं वैसे ही रह जाईये”!हां आपके लिए दोनों वक्त के लिए टिफिन लगा दिया है!

देविका धक् से रह गई! अपना सबकुछ होते हुए भी अपना घर आंगन जीते जी क्यों पुत्र मोह में पड़कर बेटों को दे दिया, अपने पैर पर खुद ही कुल्हाड़ी मार ली!

आज भरापूरा घर होते हुए भी वे आँखों में आँसू भर अपने सूने आंगन को देख रही थी जहाँ ऐसी ही बरसात में दोनों भाई भीगते और देविका को भी खींचकर अपने साथ भिगोते!

एक गहरी सांस लेकर देविका के मुँह से निकला”जाने कहाँ गए वो दिन “!भीगी आखें पोंछ कर वे सोचने लगी “ना घर मेरा-ना बच्चे”!

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ज़िन्दगी के उस पड़ाव पर खड़ी थी जिसमें समझौते के सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं था!

बेटी का मन था उनको अपने घर ले जाने का पर अपने पति का रवैया देख वह भी मजबूत थी!दामाद इस लिए नाराज हुआ बैठा था कि अपने हिस्से में से देविका जी ने बेटी दामाद को क्यों नहीं दिया?

 समय को नियती मान कर यही सोचकर तसल्ली करतीं की अब ज़िन्दगी बची ही कितनी?बच्चों से मनमुटाव करके कुछ हासिल नहीं होगा!जब पहले कभी मुँह नहीं खोला तो अब झगड़ा झंझट क्यूं करूं!

और वे उठकर भरे मन से अपने कमरे में चली गईं!

 कुमुद मोहन 

स्वरचित-मौलिक 

#ये जीवन का सच है

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