गोपाल मिल का सायरन ऊँची आवाज में बजते ही गेट लोगो का सैलाब बाहर आता नजर आ रहा था। बाहर निकलने वालों में होड़ लगी हुई थी कौन जल्द से जल्द पहले निकले। यह इस शहर की सबसे बड़ी कपड़ा मिल है। यहाँ हजारों कामगार सुबह शाम और रात तीनों पालियों में काम करते हैं। चौबीस घंटे चलने वाली मशीनों के साथ काम करते इंसान भी मशीनी होते जा रहे है।
आजकल आम आदमी की दिनचर्या यंत्रवत चलती रहती हैं। सारा काम मशीनो की तरह व्यवस्थित रहे तब तक ठीक हैं, पर लोगो के व्यवहार भी बिना तेल की सूखी मशीनो की तरह होता जा रहा है। संबंधो के बीच स्नेह व प्रेम का तेल, ग्रीस मानो समाप्त ही हो चला हो। व्यवहार का रूखापन बहुत आम बात हो गई है।
वामन राव व सुधाकर भी इसी मिल के कर्मचारी हैं । वे दोनो भी इसी भीड़ का हिस्सा बने अपनी साइकल पर पेडल मारते चले जा रहे थे।
सुधाकर और वामन दोनों ही प्रिटिंग विभाग में काम करते थे। साथ साथ काम करते हुए दोनो के बीच आपसी समझ अच्छी तरह विकसित हो गई थी। सुधाकर की उम्र पैंतालीस वर्ष थी और उसके दो बच्चे थे। वामन राव सैतालीस वर्षीय प्रौढ़ और संतान सुख से वंचित था।
घर ग्रहस्थी में बच्चो की जहाँ अपनी परेशानियाँ होती है तो निस्संतानता भी अपने आप में एक बडा दुःख है।
समाज में प्रायः निस्संतान पति-पत्नी को हेय नजरों से देखा जाता है। वामन की पत्नी विमला को रात दिन बस यही दुख सताता रहता था। यही वजह थी की उसके चेहरे में असमय बुढ़ापा झलकने लगा था।
वामनराव तो आठ घंटे के बाद थका घर आता। वह सोचता घर जाकर सुकून की साँस लूँगा पर विमला की हालत देखकर वह भी दुखी हो जाता। उसने डॉक्टरी, दवाइयाँ, झाड़फूँक, तंत्र-मंत्र, गंडे-ताबीज, मस्जिद-मजारे, पीर-फकीर, मंदिर, गुरूद्वारे कुछ भी तो नहीं छोड़ा था। कई जगहो पर मानता भी मानी, पर होनहार पर किसका बस, विमला की कोख सूनी ही रही।
एक लंबे समय के बाद वामन भी निराश हो गया था। विमला मानसिक अवसाद की शिकार हो गई थी। डॉक्टरो की महंगी फीस और दवाइयों के खर्च से वामन चिड़चिड़ा सा रहता था तो विमला भी दवाइयाँ खाते खाते बेहाल हो गई थी।
अंतरमन के दुःख का इलाज दवाइयाँ तो नही हो सकती न। वामनराव विमला को छुट्टी के दिन सिनेमाघर, बाग-बगीचों में ले जाता ताकि उसका मन बहल जाए। कई बार सुधाकर के घर पर भी ले गया, पर विमला वहाँ भी औपचारिक ही रहती।
बाग-बगीचों में हॅंसते-खेलते, दौड़ लगाते छोटे-छोटे बच्चों को देखकर वह आहें भरती, उसके मन में टीस उठती थी। घर आकर उसकी उदासी और बढ़ जाती।
नतीजा ! धीरे-धीरे उसने घर से बाहर निकलना बंद कर दिया था। वामन को भी छोटी-छोटी बात में बड़ा गुस्सा आने लगा था। कई बार विमला की छोटी सी बात पर गुस्सा हो जाता फिर बाद मे उसे दुःख भी होता की वह धैर्य क्यों नहीं रख पाता है। दोनों के बीच काफी तनाव रहता था।
जिंदगी की गाड़ी इन्हीं नीरस संदर्भो के साथ घिसटती चली जा रही थी। दोनो का जीवन के प्रति कोई आकर्षण नहीं रहा था।
सुधाकर भी अपने दोस्त व उसकी पत्नी के इस हाल को देख बहुत दुखी होता था। पर दुःख तो ऐसी चीज है जिसे ईसा की सलीब की तरह खुद ढ़ोना पड़ता है। आसपास के लोग तो सिर्फ महसूस कर सकते है।
भादौ महीने के एक दिन तूफानी बारिश हो रही थी। रात को सुधाकर अपनी ड्यूटी कर साइकल पर भीगता-भागता घर चला जा रहा था।
यह सोचता जा रहा था की – ’’जल्दी से घर पहॅुच कर हल्दी वाला दूध पी लूँगा तो बारिश की वजह से बदन के पोर पोर में जो अकड़न भर रही थी दूर हो जाएगी।
आज दोपहर से ही तेज बारिश की झड़ी लग रही थी। नदी-नाले पानी से लबालब हो गए थे। सुधाकर तेजी से पैडल मारता चला जा रहा था, पर होनी को कुछ और ही मंजूर था। सुधाकर की साइकल में कोई कील या कॉटा लगा और फिस्स………….पिछले पहिए की सारी हवा निकल गई। सुधाकर का मन बहुत खराब हुआ । ऊपर से झमा- झम गिरती बारिश और साइकल पंचर ! खैर घर तो पहुँचना ही था। सुधाकर साइकल हाथ में लिए भीगता हुआ लंबे-लंबे डग भरता चला जा रहा था।
सुधाकर जब अपनी गली के कोने में पहुँचा तो स्ट्रीट लाईट बंद हो रही थी। गहन अंधकार छाया था। वह अंदाजे से धीर धीरे आगे चलता जा रहा था। उसने अपने घर के बाहर हैज से बनी बाउंडरी वाल तक पहुँचकर बीच में लगे लोहे के गेट को खोला। साइकल खड़ी कर दरवाजा बजाने लगा। तभी उसे अंधेरे में कुछ सुगबुगाहट सी महसूस हुई। उसे लगा कि कंपाउंड के दाहिने कोने में कोई चीज हिल रही है। उसने सोचा या तो हैज हिल रही होगी या कोई कुत्ता बारिश से बचने के लिए झाड़ियों की आड़ में बैठा हो। उसकी पत्नी रमा और बच्चे गहरी नींद में सो रहे थे। उसने एक बार फिर कुंडी खटखटाई।
तेज बारिश की वजह से घरों की लाइटे भी बंद थी। पत्नी रमा टार्च हाथ में लिए उनींदी सी दरवाजा खोलकर वापस आकर लेट गई। सुधाकर ने टार्च की रोशनी कंपाउंड में घुमाई। टार्च की रोशनी जैसे ही कंपाउंड के दाहिने भाग में पड़ी उसे एक नीला प्लास्टिक का टुकड़ा हिलता नजर आया। पहले तो वह डर ही गया कि – ’’पता नहीं क्या बला हैं ?’’ उसने हिम्मत करके उस नीले प्लास्टिक को हटाया तो देखा एक सुंदर सा बच्चा लोहे की तगारी में लेटा हुआ था। प्लास्टिक ढ़का होने से वह पानी से बचा हुआ था।
जैसे ही प्लास्टिक हटा कुछ पानी की बूंदेउसके शरीर से छु गई, वह “ऑ….ऑं…..’’ करके रोने लगा। रमा भी उठकर आ गई। दोनो पति-पत्नी बुरी तरह घबरा गए। रात को एक बजे मुसीबत जो गले पड़ गई थी।
सुधाकर बोला, “लगता है अभी कोई इसे यहाँछोड़ गया हैं, मैं इसे पुलिस स्टेशन ले जाता हैं।’’
रमा बोली, “है भगवान ………! कैसे निर्दयी लोग होते हैं। कैसा पत्थर सा कलेजा होगा जिसने इतने सुंदर बच्चे को ऐसी बारिश में छोड़ दिया। सुनो जी ! आप इसे पुलिस थाने मे देकर आओगे तो वहाँ से यह अनाथ आश्रम में जाएगा और बिना मॉ-बाप, घर-बार के पलेगा। कुछ और सोचो!’’
रमा और सुधाकर दोनों के दिमाग में एक साथ एक विचार आया और दोनों के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई।
सुधाकर बोला, “चुप! दीवारों के भी कान होते है।’’
रमा बोली, “बहुत रिस्क है।’’
सुधाकर ने कहा, “कोई परवाह नही। इस काम को अंजाम देना ही होगा।’’
रमा ने घर में से शहद की शीशी में से कुछ बूंदे निकालकर रूई में डाली और बच्चे के होंठों पर वह रूई का फाहा रख दिया बच्चा शहद चाटने लगा। दोनों को बच्चे पर बहुत प्यार और दया आई, पर उससे क्या होता है। सुधाकर ने जल्दी से एक गिलास दूध पीया, बरसाती ओढ़ी और छतरी में बच्चे को तगारी सहित छिपा कर घर से निकल पड़ा।
रात के अंधेरे में सुधाकर का दिल बहुत काँपरहा था। सुधाकर मन ही मन जय जय विट्ठल, जय जय विट्ठल का जाप करता हुआ आगे बढ़ रहा था।
करीब बीस मिनट तक चलने के बाद, वह एक गली में मुड़ गया और जा पहुँचा अपनी मंजिल पर। हाथ में तगारी उठाकर धीरे सेदेखा तो पाया बच्चा गहरी नींद में है। उसने घर के मुख्य द्वार पर धीरे से तगारी को रख दिया। वह फिर सड़क पर अंधेरे में गुम हो गया।
रात के दो बज रहे थे। वामन और विमला गहरी नींद में थे। अचानक विमला चौंककर उठ बैठी। “यह क्या !’’
पहले तो उसे लगा कि कोई सपना देख रही हैं, पर नहीं, उसे वास्तव में लगा कोई आवाज आ रही है। उसने वामन को धीरे से हिलाकर उठाया। वामन गहरी नींद में कुनमुनाया।
वह बोली, “बाहर अपने दरवाजे पर कुछ आवाज सी आ रही है।’’
वामन ने उनींदे स्वर में कहा –“सो जा भाग्यवान! बाहर बारिश हो रही है और पानी से बचने के लिए कोई जानवर बैठा होगा उसकी ही आवाज होगी”।
विमला ने थोड़ी देर बार उसे फिर हिलाया।
“सुनो, सुनो जी। मुझे किसी बच्चे के रोने की आवाज आ रही है।’’
नींद में खलल पड़ते ही अब तो वामन भड़क उठा –“तुम खुद भी नहीं सोती हो और मुझे भी नहीं सोने देती”।
अरे जो चीज अपनी किस्मत में नही उसके बारे में क्यों सोच-सोच कर अपनी जिंदगी खराब कर रही हो। तुम्हारे सोचते रहने से कुछ भी नही होने वाला। तुम्हें तो उठते, बैठते, सोते, जागते, बच्चे के ही सपने आते रहते है। तुम्हारे कान बजने लगे है, तुम्हारा दिमाग चल गया है ! तुमने मेरा भी जीना हराम कर रखा है!’’ वामन ने तकिया उठाया और दूसरे कमरे में जाकर सोने की कोशिश करने लगा।
विमला ऑसू बहाती अपनी किस्मत को कोस रही थी, तो उधर वामन बैचेनी से करवटे बदल रहा था। वह विमला को रोती छोड़कर दूसरे कमरे में आ तो गया पर सो नहीं पा रहा था। तनाव में नीदं काफूर हो जाती है।
लेटे लेटे वामन का गुस्सा थोड़ा ठंडा हुआ।
उसने इरादा किया, “चलकर विमला से बात करके उसका दिल हल्का कर दूँ।’’
उधर विमला भी अफसोस कर रही थी कि, “व्यर्थ की बात में आधी रात को झंझट खड़ाकिया। मैं उसे सुख न दे सकू तो दुःख तो नही देना चाहिए।’’
वामन वापस तब बेडरूम में आयाा तो देखा कि विमला औंधे मुंह लेटे सुबक सुबक कर रो रही हैं तो उसका मन द्रवित हो उठा।
उसने विमला से कुछ कहना चाहा इसके पहले ही विमला उठकर बैठ गई और बोली- “वामन मुझे माफ कर दो मैंने तुम्हें व्यर्थ ही परेशान कर दिया।’’
वामन बोला -’’नही विमला, माफी तो मुझे मांगनी चाहिए”।
दोनो आगे कुछ बोलते इसके पहले ही बच्चे के रोने की जोरदार आवाज गूंजी।
अब तो वामन भी चौंका, वास्तव में विमला सच कह रही थी। वह दरवाजा खोलकर बाहर आ गया। विमला भी उसके पीछे पीछे बाहर आ गई।
बच्चे के रोने का स्वर फिर बंद हो गया था। दोनों को कुछ नजर नही आया।
तभी विमला की नजर खिड़की की तरफ पड़ी तो मुंह से निकला, “वामन उधर देखो वह क्या हैं?”
दोनों खिड़की के पास गए। वामन ने नीला प्लास्टिक हटाया तो एक प्यारा सा गोलमटोल सुन्दर -सा बच्चा ठंड के मारे गुडी-मुडी होकर सिकुड़ा पड़ा था। वामन तो परेशान हो उठा।
विमला का मातृत्व उमड़ आया। उसे अपनी छातियाँभीगती महसूस होने लगी। उसने तो आगें बढ़कर बच्चे को गोद में उठा लिया और छाती से भींच लिया। बच्चे को भी गरम-गरम स्पर्श अच्छा लगा। वह निश्चिंत होकर कंघे पर सिर टिका कर सो गया। विमला का तो खुशी के मारे बुरा हाल हो गया।
वह तो मानो बौरा गई, “देखो वामन, देखो ! मेरे पास कितना निश्चिंत है यह ! अरे यह तो भगवान का प्रसाद है। विट्ठलनाथजी ने मेरी सुन ही ली आखिर! वामन हम इसे पालेगें, हाँ हम इसे पालेंगे”।
वामन तुम कुछ भी करो, कैसे भी करो यह बच्चा मेरा है ! बस मेरा है बस मेरा ! अब मैं किसी को भी नहीं दूँगी।
उसने बच्चे को लिहाफ में घुसा दिया। बच्चा भी नर्म नर्म बिस्तर मेंचुपचाप सो गया।
ऊघर वामन सोच में पड़ गया, “पता नही कौन इतने सुंदर से बच्चे को मेरे दरवाजे पर छोड़ गया। मैं क्या करूँ, कुछ तो सोचना होगा।
वह बिस्तर पर लेटा सुबह होने का इंतजार करने लगा। आज तो उसकी रात ऑखों में ही निकल गई।
सुबह के सात बजते ही वह सीधा सुधाकर के पास गया, एक वही तो था उसका परम मित्र! सुधाकर और रमा मंद मंद मुसकुराते उसकी सारी बातें ध्यान से सुनते रहे। दोनो पास की पुलिस चौकी पर गए और सारी घटना ज्यों के त्यों बयान कर दी। इंस्पेक्टर भी पशोपेश में पड़ गए।
इंसपेक्टर ने सुधाकर की सारी बातें सुनकर वादा किया कि, “यदि इस बच्चे को अड़तालीस घंटे तक कोई लेने नहीं आता है तो कुछ कानूनी कार्यवाही कर के बच्चा वामन को सौंप देंगे तब तक वामन, तुम इसे अपने पास रखो।’’
वामन और विमला घबराए हुए थे कि, “कहीं बच्चे को लेने वाला आ गया तो एक बार फिर उनकी जिंदगी की खुशियाँचली जाएंगी।’’
ऐसा लगता था की विधाता को उनकी वीरान जिंदगी पर तरस आ गया हो।
अखबार में सूचना देने के बाद भी दो दिनतक उस बच्चे के बारे में कोई पूछने नहीं आया। इंस्पेक्टर ने वामन को फोन करके थाने पर बच्चे केा लेकर बुलाया।
इंस्पेटर साहब ने वामन को बताया की, “बच्चे को लेने कोई भी नही आया अतः बच्चा तुम दोनों को गोद दिया जा सकता है।’’
इंस्पेक्टर ने वकील साहब की मदद से कुछ औपचारिक कार्यवाही कर बच्चे को कानूनी तौर पर वामन को सौप दिया और बधाई दी।
वामन और विमला ने अपने रिश्तेदार, मित्रों और परिचितो को अगले दिन शाम को घर पर दावत का निमंत्रण दिया।
आज जन्माष्टमी थी। सारा शहर कृष्णमय हो रहा था। शहर में जगह जगह मंदिरों में सुन्दर झाँकिया सजाई गई थी। मंदिरों से कीर्तनों की आवाज आ रही थी और लाउड स्पीकारों पर कृष्ण भक्ति के गीत बज रहे थे। मंदिरो को बहुत ही अच्छे तरीके से सजाया और रोशनी की गई थी।
सारा घर विमला के हाथों से बने पकवानों और व्यंजनो की खुशबु से महक उठा था। शाम को मेहमानो के एकत्रित होने पर वामन ने सभी को बच्चे के बारे में विस्तार से बताया। अब बच्चे के नामकरण की बारी थी। पंडित जी बोले, “आज कृष्ण जन्माष्टमी के शुभ दिन यह बच्चा इस घर में आया है अतः इसका नाम ‘कन्हैया’ रखना उत्तम होगा”।
सभी ने करतल ध्वनि से पंडित जी की बात का समर्थन किया। वामन, विमला और बच्चा बधाइयों और उपहारों से लद चुके थे। घंटे-घड़ियाल और मंदिर से जोर-जोर से गूँजती यह आवाज सुनाई दे रही थी, “नन्द के घर आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की’’।
सभी वामन और विमला में, नन्द-यशोदा का प्रतिरूप देखकर आनंद से भर उठे थे।
विजय शर्मा “विजयेश”
कोटा, राजस्थान
स्वरचित, अप्रकाशित