जलील – डाॅ संजु झा : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : कभी-कभी अपनों की भावनाओं की परवाह न कर उन्हें जलील करने की  इंसान  की फितरत बन जाती है।जब उसे अपनी गल्ती का एहसास  होता है,तब उसके पास पश्चाताप के सिवा कुछ नहीं बचता है।मुझे(सूरज)  अपनी गल्ती का एहसास तब हुआ, जब मैं जीवन-मरण के बीच संघर्ष कर रहा था।मेरे जीवन की एक घटना ने मुझे हिलाकर रख दिया।मेरी पूरी जिन्दगी में ऊथल-पुथल मच गई।

मैं अपनी जिन्दगी के अनमोल लम्हों को खूबसूरती से संजोए  माँ के आँचल  की छाँव में सुकून भरे एहसासों के साथ जी रहा था।मेरी जिन्दगी में रोज खुशियों भरी तारों की बरसात होती।मैं माँ के ममत्व की स्नेहधारा में रोज भींगा करता था।माता-पिता की शादी के बारह वर्ष बाद मेरा जन्म हुआ था।मैं घर का पहला पोता था।मेरे जन्म पर अत्यधिक खुशी का इजहार करते हुए  दादाजी ने कहा था -“पोता के जन्म लेने से मेरा घर-आँगन सूरज की भाँति आलोकित हो उठा,इस कारण इस बच्चे का नाम सूरज रहेगा।”

परिवार में सभी मुझे बहुत प्यार करते थे।अत्यधिक लाड-प्यार से मैं जिद्दी होता जा रहा था।मेरे नखरे भी  बहुत थे।कभी खाने के,कभी नहाने के तथा कभी किसी अन्य  बातों के।मेरे सभी नखरे मेरी माँ बड़े प्यार से झेलती।माँ की ममता की छाँव में मैं अपनी जिन्दगी के सुनहरे पलों को जी रहा था।मुझे किसी बात की फिक्र नहीं थी।माँ मेरे नखरे को उठाते हुए कहती -” बेटा! तू तो मेरी जिन्दगी सूर्य है,जिसके आने से बारह वर्ष का बाँझ का लगा हुआ तमगा  मुझपर से विलुप्त  हो गया।”

मैं खुश होकर माँ के गले पर झूल उठता।

अचानक से मेरी जिन्दगी में भयानक  तूफान आ गया,जिसने मेरी भावनाओं,इच्छाओं,आशाओं,उमंगों को पलभर में सागर की अतल गहराईयों में डूबो दिया।दूसरे बच्चे के जन्म के समय अचानक से मेरी माँ की मौत हो गई। उस समय मेरी उम्र बारह वर्ष थी।मैं बहुत कुछ समझने लगा था।माँ की करुण हृदयविदारक पीड़ा आज भी मेरे तन-मन को झकझोरती रहती है। सही इलाज के अभाव में माँ हमें छोड़कर  इस दुनियाँ से चली गई ।एकाएक मेरी दुनियाँ उजड़ गई। अंतिम समय मैं माँ से बुरी तरह लिपटकर रो रहा था।मैं माँ को अपने से दूर नहीं जाने देना चाहता था।मेरे दुख से  समाज-परिवार के लोगों के कलेजे विदीर्ण हो उठे।बड़ी मुश्किल से मुझे लोगों ने माँ से अलग किया था।

जिन्दगी का हर लम्हा तकदीर से जुड़ा होता है।मेरी  खुशियाँ   मेरी तकदीर से हार गईं।मुझे जो जिन्दगी सरल और सीधी लगती थी,अब मुझ मातृहीन बालक को वही जिन्दगी बोझ लगने लगी।प्रेमचन्द जी ने सही कहा है कि ‘मातृहीन बालक से ज्यादा अभागा इस दुनियाँ में कोई नहीं हो सकता है।’

मेरे जीवन और हालात दोनों बदल चुके थे।माँ के बिना मेरी जिन्दगी अमावस की काली रात बन चुकी थी।मेरी हालत उस पागल की तरह हो गई थी,जिसपर अचानक से  दुखों का पहाड़ टूट पड़ा हो और वह और विक्षिप्त हो उठा हो।मेरी मासूम  निगाहें हर पल माँ को ढ़ूढ़ती रहती।

मैं आत्मकेन्द्रित होता जा रहा था।मेरी स्मृति-सिन्धु में रह-रहकर माँ की यादों का ज्वार-भाटा उफनता रहता।माँ की मृत्यु से  मेरे दिल में बड़ा-सा शून्य स्थापित हो गया था,जो ताउम्र भी न भर सका।मैं धीरे-धीरे विद्रोही और जिद्दी बनता जा रहा था।मेरे दुखों से व्यथित होकर दादाजी मुझे अपने सीने से लगा लेते,परन्तु उनके सीने में मुझे माँ के प्यार की गर्माहट नहीं महसूस  होती।मैं बेकल होकर रोने लगता।दादी का स्वर्गवास  बहुत पहले हो चुका था।दादाजी ही मुझे संभालते तथा मेरा सारा कार्य करते।

कुछ समय पश्चात् मेरे घर में मेरी नई माँ का आगमन हो गया।मैं नई माँ को बिल्कुल ही पसन्द नहीं करता था।अब नई माँ के साथ-साथ पिताजी को भी नापसंद करने लगा।मैं अपनी माँ की जगह अन्य किसी औरत को सपने में भी नहीं सोच सकता था।अब मैं हर समय नई माँ को जलील करने की फिराक में रहता।घर में दादाजी का वर्चस्व था।दादाजी ने मेरी नई माँ को मेरी रुचि -अभिरुचि बताते हुए कहा था-” बहू! मेरे पोते सूरज को रत्तीभर भी किसी बात की तकलीफ होगी,तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा!”

मैं  दादाजी की शह पाकर खाने-पीने से लेकर हरेक बात में मीन-मेख निकालता और उन्हें दादाजी से जलील करवाता।अपने दुर्व्यवहार से माता-पिता दोनों को चोट पहुँचाता।

मैं दादाजी के साथ दालान(बाहरी बैठकी)पर बैठे-बैठे गाय,भैंस को अपने नवजात बछड़े को चाटते,प्यार करते हुए घंटों देखा करता था।अपनी माँ का बिछोह यादकर मेरी आँखों से अनवरत आँसू बहने लगते।दादाजी मुझ मातृहीन बालक पर स्नेह-वर्षण करते हुए अपने अंक में भर लेते।

मेरे सभी काम मेरी नई माँ ही करती थी,परन्तु मैं कभी उनका एहसान नहीं मानता था।उल्टे हर बातों में नुक्स निकालकर उन्हें जलील करता और उनके खिलाफ दादाजी के भी कान भरता।मैं दादाजी की हरेक बातों को मानता।उनका वरदहस्त मेरे ऊपर था,इस कारण मेरे खिलाफ घर में कोई कुछ नहीं कहता।दादाजी ने मेरी पढ़ाई के लिए  स्कूल मास्टर को दालान पर ही रख लिया था।प्यार के साथ-साथ  दादाजी का कड़ा अनुशासन भी मुझपर था,इस कारण मन लगाकर  पढ़ाई करता था।

मैं जब-जब नई माँ को अपनी माँ की जगह पर देखता,तो मैं दुख से बेकाबू होकर बेबात उन्हें जलील कर बैठता।मेरे तेरहवें बर्ष में दादाजी ने मेरे उपनयन-संस्कार के उत्सव रखे।हमारे इलाके में इसे बहुत व्यापक रुप में मनाया जाता है।मेरे उपनयन संस्कार के दिन आँगन में गाँव के बहुत सारे लोग और सगे सम्बन्धी इकट्ठे हुए थे।उपनयन-संस्कार में बाँस की डलिया में फल,मेवा,पकवान वगैरह सजाकर माँ पहली भिक्षा अपने पुत्र को देती है,उसके बाद  परिवार की अन्य महिलाएँ भिक्षा देती हैं।सबसे पहले मेरी नई माँ भिक्षा की डलिया लेकर मेरी ओर बढ़ रही थी।अचानक से अपनी माँ की यादों से मैं भावविह्वल हो उठा।मेरे दिल के कोने से विद्रोह की आवाज आई -” ये औरत मेरी माँ की जगह कैसे ले सकती है?”

मेरा किशोर मन खुलकर विद्रोह कर बैठा।मैंने सबके सामने नई माँ को जलील करते हुए कहा -“मैं आपको अपनी माँ जिन्दगी भर नहीं मानूँगा,फिर आप मुझे भिक्षा कैसे दे सकती हैं?” कहकर  रोते हुए मैंने उनसे भिक्षा लेने से साफ इंकार कर दिया।लोगों के लाख समझाने पर भी मैंने नई माँ से भिक्षा नहीं ली।मेरी नई माँ भिक्षा की डलिया हाथों में लिए  हुए  खामोश खड़ी रही।मुझे उनकी भावनाओं से कोई  मतलब  नहीं था।आखिरकार मैंने अपनी चचेरी दादी से जनेऊ की प्रथम भिक्षा ली।मेरी जिद्द ने सारे लोगों की आँखों में आँसू ला दिए।मैं भी फूट-फूटकर रोया।मेरी नई माँ हाथों में भिक्षा लिए निरीह-सी  अलग-थलग खड़ी रही।

माँ के बिछोह का गम मेरे लिए असंभव था।घर के सारे लोग मेरा ख्याल रखते थे,परन्तु माँ के प्यार से मरहूम मैं अनजाने में परिवारवालों को व्यथित कर बैठता।अच्छे अंकों से दसवीं उत्तीर्ण कर मैं पास के शहर में पढ़ने चला गया।हर पन्द्रह  दिनों में मैं शहर से गाँव आता,फिर वापस जाने के समय  मेरी दूसरी माँ पन्द्रह  दिनों का नाश्ता और सारे जरुरी सामान दे देती।मैं अपना अधिकार समझकर चुपचाप सारे सामान रख लेता।एकबार भी कभी उन्हें आभार प्रकट नहीं करता।समय के साथ  मेरी पढ़ाई पूरी हो गई। मैं सरकारी अफसर बन गया,परन्तु दूसरी माँ के साथ मेरा अड़ियल रवैया पूर्ववत् ही रहा।

समय के साथ मेरे तीन सौतेले भाई भी हुए। दूसरी माँ के साथ-साथ तीनों भाई मुझे सम्मान की नजरों से देखते थे,परन्तु मैं उनलोगों से कोई भावनात्मक लगाव नहीं रखता था।कई बार  मेरी दूसरी माँ ने दबी हुई  जबान में कहा था -“बेटा!एक भी भाई को अपने पास ले जाते,तो तुम्हारी सेवा भी करता और पढ़-लिखकर कुछ बन भी जाता!”

परन्तु मैंने रुखाई से जबाव देते हुए कहा था -“इन तीनों का पढ़ने में दिमाग तेज नहीं है।यहीं रहकर जो पढ़ना होगा,पढ़ लेंगे।मैं अपने पास नहीं ले जा सकता!”

मेरी दूसरी माँ मेरी बातों को सुनकर खामोश हो गईं।मैं हमेशा उनलोगों के प्रति उपेक्षित व्यवहार करता।मेरे पिता-भाई,मेरी दूसरी माँ कभी मेरे खिलाफ कुछ नहीं बोलते,उल्टा परिवार में बड़े बेटे का सम्मान देते।आज सोचता हूँ ,तो आश्चर्य होता है कि क्या सौतेली माँ और सौतेले भाई भी इतने अच्छे हो सकते हैं?

समय पंख लगाए हुए अपनी गति से रहा था। दादाजी की मौत हो चुकी थी।मेरी शादी हो गई। मेरे बच्चे भी हो गए। तीनों भाई पढ़-लिखकर साधारण नौकरी करने लगें।सभी अपनी दुनियाँ में मस्त  थे,परन्तु मेरे प्रति उनके मन में आदर-भाव कम न हुआ था। पर्व-त्योहार में गाँव आने पर  तीनों भाई और माँ जी-जान से हमारी सेवा करते।मैं कुछ पैसे देकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ लेता।

सच ही कहा गया है’सबै दिन रहत न एक समान ।’वही मेरे साथ  होनेवाला था।कभी-कभी मैं माँ की यादों की तड़प से बेचैन होकर अपनी पत्नी और बच्चों को भी बेवजह जलील कर बैठता।अपने कुंठित  मन से छुटकारा पाने के लिए मैंने शराब का सहारा  ले लिया,जिसके फलस्वरूप मेरा लीवर खराब हो गया।

अब  न तो मेरे चेहरे पर ओज था ,न ही शरीर में स्फूर्तिऔर न ही पुरातन उच्श्रृंखलता।मेरे सामने निराशा का साम्राज्य था,परन्तु उस कठिन घड़ी में मेरा एक सौतेला भाई  देवदूत  की तरह अपना लीवर देने को तैयार हो गया।ऑपरेशन से लेकर एक महीना तक भाई और माँ मेरी सेवा करती रही।उनकी सेवा देखकर  मेरा अन्तर्मन धिक्कार रहा था।

मैं आत्मग्लानि से भर उठा।आजतक जिसको अपना भाई नहीं माना,जिस औरत को कभी  माँ नहीं माना,हमेेशा जलील ही किया,आज वही सब निस्वार्थ भाव से मेरी सेवा कर रहे थे।उनका त्याग  और समर्पण ने मेरी आँखें खोलकर दी।आज माँ मुझे साक्षात् ममता की मूरत लग रही थी।उनके चेहरे में मेरी अपनी माँ का चेहरा गड्ड-मड्ड  नजर आ रहा था।जिन्दगी में पहली बार  उन्हें माँ कहकर पुकारा।माँ सुनकर उनकी आँखों के कोर भींग उठे,चेहरे पर स्मित मुस्कराहट फैल गई। तीनों भाईयों को मैंने अपने गले से लगा लिए। उनके प्यार की मीठी छुअन से मेरा मातृहीन  अतृप्त हृदय प्यार के समंदर में गोते लगा रहा था।

समाप्त। 

लेखिका-डाॅक्टर संजु झा(स्वरचित)

#ज़लील

1 thought on “जलील – डाॅ संजु झा : Moral Stories in Hindi”

  1. इतना तिरस्कार झेल लेने के बाद एक माँ के पास कुछ संवेदना बच नहीं जाती। इस तरह के संतान को इतनी तरजीह देनी भी नहीं चाहिये। ताली दोनों हाथों से बचती है।

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