सुनंदा एक पढ़ी-लिखी, आत्मनिर्भर महिला थी। दिल्ली के एक प्रतिष्ठित स्कूल में शिक्षक थी। उसका विवाह एक मध्यमवर्गीय, परंपरागत सोच रखने वाले परिवार में हुआ था। पति विवेक सॉफ्टवेयर इंजीनियर थे, स्वभाव से सीधे-सादे और मां के बहुत आज्ञाकारी। सास, शोभा देवी, पुराने जमाने की थीं, जहां बहू को सिर्फ चुप रहना, सेवा करना और मायके से संबंध कम रखना ही सिखाया जाता था।
शादी के कुछ महीनों बाद ही सुनंदा को अहसास हुआ कि उसके हर काम पर सास की नजर रहती है। अगर वह फोन पर अपनी मां से बात भी करती, तो तुरंत शोभा देवी ताना देतीं,
“लगता है घर में फूट डालने की ट्यूशन चल रही है… ससुराल का हर राज मां को बताना ज़रूरी है?”
सुनंदा चुप रह जाती, सिर्फ इसलिए कि घर का माहौल ना बिगड़े। उसने कभी पलटकर जवाब नहीं दिया।
पर जब सुनंदा की ननद, रिमी, अपने ससुराल से रोते हुए फोन करती, तो वही शोभा देवी अपनी बेटी को भड़काने लगतीं —
“तू चुप क्यों रहती है? सास अगर तुझे ताने दे रही है तो उसे भी सुनाना सीख! आजकल की बहुएं कमज़ोर नहीं होतीं!”
और फिर फोन काटने के बाद सुनंदा को देखकर कहती,
“देखा बहुएं कैसी होती हैं आजकल? एक तुम हो, मायके वालों से चिपकी रहती हो!”
सुनंदा का मन अंदर ही अंदर टूटता जा रहा था। उसके मायके से रिश्ता रखना उसके लिए अपराध जैसा बना दिया गया था, जबकि रिमी को हर बात पर छूट थी।
एक दिन सुनंदा की मां बीमार पड़ीं। सुनंदा ने पति विवेक से कहा कि वह दो दिन के लिए मायके जाना चाहती है। विवेक ने अनुमति तो दे दी, पर जब उसने सास से बात की तो शोभा देवी ने फिर वही ताना मारा —
“अब सास-ससुर की सेवा छोड़, मां का दरबार सजाने चली?”
सुनंदा की आंखों में आंसू आ गए, पर चुपचाप चली गई।
वहां पहुंचकर मां ने उसे गले लगाकर कहा,
“बेटी, तुम क्यों सब सह रही हो? क्या अब भी जमाना ऐसा है?”
सुनंदा ने जवाब दिया,
“मां, वो मेरी सास हैं… उनका सम्मान करना मेरा धर्म है। पर कभी-कभी बहुत घुटन होती है।”
इन्हीं दिनों सुनंदा ने देखा कि उसकी ननद रिमी ससुराल छोड़कर मायके आ गई थी और अब सास के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने की धमकी दे रही थी। शोभा देवी के होश उड़ गए। वही सास जो हर वक्त बहू को दबाकर रखने की सलाह देती थीं, अब अपनी बेटी को समझा रही थीं,
“बेटी, सास तो मां जैसी होती है। थोड़ा सह लिया करो, घर बसा कर चलाना आसान नहीं होता।”
पर रिमी ने साफ कह दिया,
“मां, आपने ही सिखाया था कि सास की बात मत सुनो, पलटकर जवाब दो। अब भुगतो!”
अब शोभा देवी के चेहरे पर चिंता की लकीरें उभर आईं। पहली बार उन्होंने वक्त को पलटते देखा। जो बोया था, वही सामने था।
इसी बीच एक दिन सुनंदा ने रिमी और शोभा देवी की बातचीत रिकॉर्ड कर ली — जिसमें साफ़ था कि सास अपनी बेटी को भड़काती रही हैं। यह रिकॉर्डिंग विवेक ने भी सुनी। वह स्तब्ध रह गया। उसने पहली बार महसूस किया कि उसकी मां ने न केवल सुनंदा के साथ अन्याय किया, बल्कि रिमी की जिंदगी भी गड़बड़ा दी।
विवेक ने अपनी मां से बहुत शांति से कहा,
“मां, आपने वक्त को कभी गंभीरता से नहीं लिया। जो आज की बहू है, वो कल की सास बनती है। रिश्तों को इज्ज़त से निभाना सीखिए। वक्त से डरो, मां। वक़्त किसी का नहीं होता, और जब पलटता है तो हर ताना, हर बात वापस लौटकर आती है।”
शोभा देवी की आंखों में आंसू थे। पहली बार उन्होंने चुपचाप सुनंदा से माफ़ी मांगी,
“बहू, शायद मैंने तुम्हें कभी बेटी माना ही नहीं। पर वक्त ने मुझे सिखा दिया है कि तुम तो मुझसे कहीं ज़्यादा समझदार और सहनशील निकलीं।”
सुनंदा ने हाथ पकड़कर कहा,
“मां जी, समय हर किसी को सिखाता है… बस उसे सुनने की समझ होनी चाहिए।”
उस दिन से घर का माहौल बदल गया। शोभा देवी ने खुद आगे बढ़कर सुनंदा की मां को फोन किया और हाल-चाल पूछा। अब अगर सुनंदा अपनी मां से बात करती तो कोई ताना नहीं आता। बल्कि कभी-कभी शोभा देवी खुद पूछतीं —
“बहू, मांजी कैसी हैं?”
कुछ महीनों बाद रिमी भी अपने ससुराल लौट गई, क्योंकि अब उसकी सोच भी बदली थी। उसे भी अहसास हुआ कि हर सास बुरी नहीं होती, और रिश्तों में संवाद जरूरी है।
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इस कहानी ने साबित कर दिया — “ वक़्त से डरो, क्योंकि वक़्त वही करवाता है जो इंसान सोच भी नहीं सकता। आज तुम किसी को गिरा रहे हो, कल खुद उसी जगह खड़े हो सकते हो।”
Rekha saxena
#वक्त से डरो