जब से मुम्बई आयी हूँ जाने क्यों मन बार-बार पुराने दिनों में चला जा रहा है। ‘चंचला’ दादाजी ने यही नाम दिया था मुझे ! अक्सर माँ से कहते बहू इसका नाम शालिनी से बदलकर चंचला कर दो, तब माँ कहती अरे पिताजी ! इस नाम पर तो ये लड़की एक जगह नहीं ठहरती ! चंचला कर दूँ तो जाने क्या करेगी ! पर शादी के बाद सास की घूरती नजरों ने मेरी लगाम थाम ली थी। ननद की शादी में ‘मेरे हाथों में नौ नौ चूड़ियाँ’ पर सबके सामने नाचने पर उन्होंने जो हंगामा किया कि फिर पैर ही नहीं उठे।शिवेन ने भी उनका मौन समर्थन देकर मेरी हिम्मत तोड़ दी ! ढोल की आवाज पर मचलने वाली चंचला दिन प्रति दिन शांत होती जा रही थी। फिर सोचा बेटी होगी तो उससे अपने सारे शौक पूरे करूँगी । पर वो सुख मेरी किस्मत में ही नहीं था।दोनों बेटे भी शिवेन पर ही गए थे, शांत और स्थिर ! कहीं शादी ब्याह या नवरात्र के पंडालों में लोगों को ठुमकते देखती तो एक हुक सी उठती थी।अपनी सहेलियों को उनकी बेटियों के संग झूमते,गाते और बातें करते देखती तो मन तड़प उठता।
फिर अचानक एक दिन सौम्य ने स्निग्धा की फ़ोटो दिखाते हुए कहा, “माँ मैं इससे शादी करना चाहता हूँ!”
मैं तो बरसों से बेटी के शौक बहू से पूरे करने के सपने देख रही थी।स्निग्धा को देख कर मन हुआ उसे अपने हृदय से लगा लूँ ! कह दूँ कहाँ थी तुम अब तक !लेकिन रिश्तेदारों और सहेलियों की बहुओं के कड़वे अनुभव ने मुझे रोक दिया। शादी के दो हफ्ते बाद ही स्निग्धा सौम्य के साथ मुम्बई आ गयी। फिर तो कभी कभार फोन पर ही बात हो पाती थी।स्नेह भी पुणे में जॉब करने लगा था। यहाँ मैं और शिवेन अकेले ही रह गए थे अपनी-अपनी व्यस्तताओं में खामोशी की चादर ओढ़े!
सौम्य के बहुत जिद करने पर कल मैं और शिवेन भी मुम्बई घूमने आए हैं। एयरपोर्ट से घर आते समय बड़ी-बड़ी अट्टलकाएँ देख यहाँ आने का सालों पुराना सपना सच हो रहा था। सौम्य और शिवेन मेरी उत्सुकता देख मुस्कुरा रहे थे।रात दस बजे भी ऐसी चहल पहल की शाम ने अभी-अभी रात के डेहरी पर कदम रखा हो !
घर आये तो पता चला, स्निग्धा घर में नहीं है! सौम्य ने सफाई देते हुए कहा, माँ ! यहाँ नवरात्र में डांडिया और गरबा खेल जाता है ! उसीकी तैयारी के लिए नीचे गयी होगी बस अभी आ जायेगी । स्निग्धा तुरंत ही आ गयी और बहुत खुशी व आत्मीयता से मिली। शिवेन को बहू का इतनी रात बाहर रहना अच्छा नहीं लगा ! लेकिन मेरा मन यहाँ की चहल – पहल से बहुत खुश है इसीलिए सुबह से ही खुद में छिपी चंचला को याद कर रही हूँ ! न जाने कब से अपने ख्यालों में खोई हुई थी कि स्निग्धा ने कहा,”मम्मा ! चलिए नीचे क्लब में चलते हैं।”
“मैं !”
“हाँ आप !”
“पर बेटा वहाँ जाकर, मैं क्या करूँगी !”
“मुझे उठाते हुए वो बोली, मम्मा यहाँ हर नवरात्र पर सोसाइटी में डांडिया होती है।इस बार भी पाँच अलग-अलग ग्रुप्स डांडिया और गरबा करेंगे।मेरे ग्रुप की प्रैक्टिस मैं करवा रही हूँ।” बात करते-करते हम लिफ्ट से नीचे आ चुके थे। ” फ्रेंड्स इनसे मिलो ! ये मेरी मम्मा हैं , कल ही मिर्जापुर से यहाँ आयी हैं ! और मम्मा भी हमारे साथ डांडिया करेंगी।” “ओ वाओ यार ! योर मम्मा इस सो क्यूट ! वेलकम आंटी, वेलकम इन स्निग्धाज डांडिया ग्रुप !” तब तक स्निग्धा ने मुझे डांडिया पकड़ाते हुए कहा मम्मा देखिये ऐसे करिये ! वन, टू ,थ्री,फोर…… पीछे से संगीत बज रहा था , हे शुभारंभ ओ शुभारंभ मंगल बेला आयी………..
मैंने गले लगा लिया अपनी स्निग्धा को ! वो पूछ रही थी क्या हुआ माँ ! मैंने कहा,” कुछ नहीं”!क्या बताती उसे कि चंचला के जीवन में भी भीगी आँखों के साथ नई खुशियों का शुभारंभ हो रहा था !!
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कॉपीराइट @ पल्लवी विनोद ……धन्यवाद ।