पून्नो सूखी लकड़ियाँ चुनते-चुनते जंगल में कितनी दूर निकल आई , उसे इस बात का अहसास तब हुआ जब पतली सी पगडंडी किसी दूसरी दिशा में मुड़ गई । चारों तरफ़ सन्नाटा, ऐसा लगा कि सूरज की किरणों की प्रचंडता से घबराकर जीव-जंतु तो क्या , पेड़-पौधों की परछाई भी छिप गई है ।
एक हाथ से सिर पर रखा लकड़ियों का गट्ठर सँभालती और दूसरे से मुँह- गले के पसीने को धोती के छोर से पोंछती पून्नो आगे बढ़ती जा रही थी । घर की ओर जाने वाला रास्ता तो दूर, किसी भी तरफ़ जाने का रास्ता नहीं दिख रहा था । क्या करती , शहर के आसपास पेड़ ही नहीं बचे तो लकड़ियाँ कहाँ से बटोरती इसलिए शहर से दूर आज पहली बार इस तरफ़ निकल आई ….
थक-हारकर सिर पर रखी लकड़ियों का गट्ठर उतारा और एक पेड़ के नीचे बैठ गई । उसे अपने दुधमुँहे बेटे कलवा की याद आने लगी—-
भूखा हो गया होगा….. उसकी मति मारी गई थी जो इधर अनजान रास्ते पर निकल आई । वह रोती-रोती अपनी क़िस्मत को कोसती जा रही थी ।
वैसे उसका पति बुधना परिवार के गुज़ारे लायक़ कमा लेता था । पहले दोनों मज़दूरी करते थे पर जब से कलवा हुआ, पून्नो ने मज़दूरी पर जाना बंद कर दिया । और पिछले चार महीने से बुधना ने कालोनियों में जाकर प्रेस करने का नया कार्य करना शुरू किया था । महीने भर बाद ही पून्नो ने पति के काम में हाथ बँटाना शुरू कर दिया था । बुधना घर-घर जाकर कपड़े इकट्ठे करता , दोनों पति-पत्नी उन्हें प्रेस करते और फिर बुधना कपड़े बाँट आता ।
बुधना ने गाँव से अपनी माँ और छोटी बहन को भी बुला लिया था । सड़क किनारे रेहड़ी पर सुबह से ही ग्राहकों की भीड़ लग जाती , उसका सबसे बड़ा कारण पून्नो और बुधना का नम्र व्यवहार था ——
ए भइया! मेरे पेंट-क़मीज़ को पहले प्रेस कर दो मुझे ऑफिस जाना है ।
ठीक है, भइया जी ! अभी कर देता हूँ । पून्नो , साहब के कपड़े इस्त्री तो कर दे , उन्हें ऑफिस के लिए देर हो रही है । हाथ का कपड़ा रख दे अलग , पहले …..
और अपने को महत्वपूर्ण समझ , ग्राहक का चेहरा खिल उठता फिर चाहे पून्नो दो मिनट लेट ही कर दे । रेहडी के पास ही दो सस्ती सी पुरानी प्लास्टिक की कुरसियाँ रखी होती , एक हिंदी का अख़बार होता …. कुल मिलाकर बुधना ग्राहक को खींचने के गुर सीख गया था ।
माँ और छोटी बहन ने कलवा और घर की ज़िम्मेदारी सँभाल ली थी, दिन भर छोटी बहन भतीजे को रेहडी के पीछे पेड़ के नीचे खिलाती क्योंकि बच्चे को दूध पिलाने के लिए बार-बार घर जाना पून्नो के लिए संभव नहीं था…… दोनों यही कोशिश करते कि सुबह इकट्ठे किए कपड़े शाम तक वापस कर दें और रात के समय रेहडी एकदम ख़ाली रहे ।
दोनों की मेहनत और लगन से चार पैसे बचने भी लगे थे ।पर ज़िंदगी इतनी आसान नहीं होती जितनी लगती है । एक दिन सुबह के समय बुधना कपड़ों का गट्ठर सिर पर रखे सड़क पार कर रहा था कि पीछे से तेज़ी से आती एक लंबी गाड़ी उसे टक्कर मारकर सर्र से निकलती नज़र आई पर बुधना की क़मीज़ कहीं इस तरह फँस गई कि वह गाड़ी के साथ दूर तक खिंचता चला गया । चीख- पुकार सुनकर कोयले सुलगाती पून्नो की नज़र जैसे ही उधर गई वह चीखती हुई तेज़ी से दौड़ी….
ए….. अरे नाश हो तेरा ….. बचाओ रे…..बुधना….
इस हादसे में बुधना के दाएँ हाथ और पैर की हड्डी टूट गई पर दया उस ईश्वर की , जान बच गई ।
इलाज के पैसे तो कार वाले से मिल गए पर शरीर और मन का कष्ट तो स्वयं ही झेलना पड़ा । अस्पताल से छुट्टी मिलते ही कमाई की चिंता सताने लगी ।
घर आने के अगले ही दिन बुधना की माँ बोली—
पून्नो , हम मज़दूरों का घर में बैठने से गुज़ारा ना होगा जब तक बुधना पूरी तरह ठीक ना होगा , हमें खुद ही हिम्मत करनी पड़ेगी तभी भगवान मदद करेगा …. चल लकड़ियाँ चुनने मेरे साथ, कल से रेहडी खोलनी है। छोटो घर में बुधना को देख लेगी । हम दोनों सास-बहू प्रेस का काम सँभाल लेंगी , मैं कलवा को भी सँभाल लूँगी ।
हाँ माँ, हमारे नसीब में चार दिन का सुख था ….
दिल छोटा ना कर पून्नो , तेरा पति बच गया … यही बहुत है…दुख का वक़्त गुज़र जाएगा ।
इस तरह सास- बहू ज़िंदगी को पटरी पर लाने की जद्दोजहद में जुट गई ।रोज़ तो पून्नो आसपास के मैदानों और खेतों से लकड़ियाँ इकट्ठी करती पर आज ज़्यादा लकड़ियों के लालच में वह इस जंगल में भटक गई ।
अचानक पून्नो ने जी कड़ा किया और खुद से ही कहा——
क्या बैठने से रास्ता दिख जाएगा…. आदमी को हिम्मत तो करनी ही पड़ती है तभी भगवान मदद करता है ।
उसने लकड़ियों का गट्ठर उठाया और मन ही मन दुर्गा का जाप करती रही—
हे मैया , तुम्हीं एक औरत की पीड़ा को समझ सकती हो । मुझे रास्ता दिखाओ माँ ….. मेरी लाज बचाना माँ! आज सौगंध खाती हूँ, आज के बाद कभी इस तरफ़ ना आऊँगी….
सचमुच ईश्वर सहायता करने का कोई न कोई माध्यम भेज ही देता है । ऐसा ही पून्नो के साथ हुआ….. थोड़ी दूर चलने पर उसे दूर एक बंगला दिखाई पड़ा । उसका हौसला बढ़ा और वह उसी दिशा की ओर चल पड़ी…. आगे जाने पर पून्नो को बड़े से बंगले के पास कुछ गाड़ियाँ दिखी , बंगला नहर के किनारे बना हुआ था । वह हिम्मत करके आगे बढ़ी , उसने पेड़ की आड़ लेकर, बंगले के अंदर झांका। उसे वहाँ स्कूल के बच्चे और अध्यापक दिखाई दिए । तभी पीछे से आवाज़ आई—-
ए लड़की, कौन हो और क्या देख रही हो ?
पून्नो ने चौकीदार को सारी बात बताई और उससे प्रार्थना की कि वह शहर जाने का रास्ता बता दे ।
तू तो शहर से बहुत दूर निकल आई है । जंगल के रास्ते से जल्दी तो चली जाओगी पर अब सूरज ढलते ही जंगल सुरक्षित नहीं है, पूछता हूँ …..ये दस- बारह बच्चे अपने दो मास्टरों के साथ चार- पाँच दिन से इस गेस्ट हाउस में रूके हैं और इस वक़्त एक आदमी खाने-पीने का सामना लेने शहर जाता है…..
चौकीदार ने पूछताछ कर कहा—-
तेरी क़िस्मत अच्छी है कि ट्रेक्टर- ट्राली लेकर एक आदमी अभी शहर जा रहा है… मैंने उसे कह दिया , जा ट्राली में बैठ जा …
जी साहब , देवी माँ, तुम्हें बनाए रखे … तुम्हें खूब तरक़्क़ी दे । मेरी मैया ने आज तुम्हारे रूप में मेरी सहायता की है । तुम्हारे बाल-बच्चे बने रहे …
चौकीदार उसकी बात सुनकर हँसता हुआ बोला —-
ये तो बात ठीक है पर किसी अनजान रास्ते पर चलने से पहले आँखें खुली रखनी चाहिए….
पून्नो ने अपना लकड़ियों का गट्ठर ट्राली में रखा और खुद भी पीछे बैठकर अपने परिवार के पास चल दी और सोचने लगी कि जीवन की हर घटना से मनुष्य को सीख लेनी चाहिए । भगवान किसी न किसी रूप में हमारी मदद अवश्य करते हैं पर हमें अपने दिमाग़ से सोचना- समझना भी चाहिए ।
करुणा मलिक