मुंबई की उमस भरी गर्मी में ‘कॉफी कॉर्नर’ की ठंडी हवा भी अरुण के मन की गर्मी को शांत नहीं कर पा रही थी। उसकी नजरें टेबल के दूसरी ओर बैठे विवेक पर टिकी थीं, जो अपनी नई कार की चाबियों को उत्साह से घुमा रहा था। वह चाबी सिर्फ धातु का टुकड़ा नहीं थी, बल्कि अरुण की नाकामियों और विवेक की उपलब्धियों के बीच खींची गई एक अदृश्य, कंटीली रेखा थी।
“क्या बात है यार ! अगले महीने गोवा ट्रिप भी प्लान कर रहा हूँ इसी ब्यूटी के साथ,” विवेक का स्वर उत्साह से भरा था, पर अरुण को वह आवाज़ कानों में सिर्फ एक तीखी सीटी की तरह चुभ रही थी।
“बहुत बढ़िया… शाबाश,” अरुण ने जबरन एक मुस्कान चिपकाते हुए कहा, उसकी आवाज़ में खोखलापन था। उसकी नज़र विवेक के नए फोन, महंगी घड़ी और आत्मविश्वास से चमकते चेहरे पर भटक रही थी। दोनों एक ही कॉलेज से निकले थे, एक ही समय में नौकरी शुरू की थी। पर आज? विवेक एक सफल प्रोजेक्ट मैनेजर था, जबकि अरुण अभी भी एक जूनियर एनालिस्ट के तौर पर जूझ रहा था। उसके घर की जिम्मेदारियाँ, पिता का मेडिकल बिल – सब कुछ उस पर भारी पड़ रहा था। विवेक की हर सफलता उसके अपने स्थिर जीवन पर एक कड़वी टिप्पणी लगती थी। ईर्ष्या, एक विषैला सर्प, उसके भीतर धीरे-धीरे फन फैलाए बैठा था।
समय बीतता गया। अरुण का व्यवहार बदलने लगा। वह विवेक के फोन कम उठाने लगा। मिलने के बहाने ढूंढ़ता। जब विवेक ने अपनी प्रोमोशन की खुशखबरी साझा की, तो अरुण का जवाब था – “अच्छा है… तुम्हारी किस्मत हमेशा चमकती ही रहती है।” उसके स्वर में छिपी कटुता, उस ईर्ष्या की गहरी जड़ों को उजागर कर रही थी, जो अब पेड़ बन चुकी थी।
एक शाम, जब भारी बारिश हो रही थी, विवेक अचानक अरुण के घर आ धमका। उसका चेहरा उतरा हुआ था। “अरुण, तुम्हारी तरफ से मिलने का वादा कैंसिल हो गया था। क्या बात है? क्या मैंने कोई गलती की है?” विवेक की आवाज़ में चिंता और दुख का मिश्रण था।
अरुण चुपचाप बैठा रहा। बाहर बारिश की बूंदों की आवाज़ और भीतर उमड़ते जहर के बुलबुले – दोनों ही तेज हो रहे थे। फिर, अचानक, वह विस्फोट हो गया।
“गलती? हाँ! तुम्हारी गलती यह है कि तुम हमेशा सफल होते हो! तुम्हारी गलती यह है कि तुम्हारे पास सब कुछ है – पैसा, नौकरी, आजादी! तुम्हारी गलती यह है कि तुम मेरी नाकामयाबी के सामने अपनी कामयाबी का परचम लहराते हो!” अरुण का स्वर काँप रहा था, आँखें क्रोध और शर्म से चमक रही थीं। वर्षों का दबा हुआ दर्द, ईर्ष्या का जहर, सब एक साथ फूट पड़ा था। “हर बार जब तुम कोई नई चीज़ दिखाते हो, मुझे लगता है मैं और पीछे छूट गया! यह दोस्ती? यह तो मेरे घावों पर नमक छिड़कने जैसा है!”
एक भारी सन्नाटा छा गया। बारिश की आवाज़ अब और तेज लग रही थी। विवेक स्तब्ध था। उसकी आँखें चौंधिया गईं। उसने कभी नहीं सोचा था कि उसकी खुशियाँ अरुण के लिए इतनी पीड़ा का कारण बन सकती हैं।
कुछ क्षणों के गहरे मौन के बाद, विवेक ने धीरे से, बिना किसी रक्षात्मकता के कहा, “अरुण… मुझे माफ करना। सच में माफ करना। मैं… मैं अंधा था। मैंने कभी सोचा ही नहीं कि मेरी बातें तुम्हें ऐसा महसूस करा सकती हैं। यह मेरा घमंड था, मेरी संवेदनहीनता।”
विवेक की आँखें नम थीं। “तुम्हें पता है, कॉलेज में जब मैं फेल होने के कगार पर था, तो तुम ही थे जिसने रात-रात जागकर मुझे पढ़ाया। तुम्हारा त्याग, तुम्हारी दोस्ती… वही तो थी जिसने मुझे आगे बढ़ने का हौसला दिया। मेरी ये सारी ‘कामयाबियाँ’,” उसने अपने आसपास इशारा किया, “इनकी नींव में तुम्हारा सहारा, तुम्हारा विश्वास ही तो है। मैं तो बस… बस खुशी साझा करना चाहता था। पर मैं भूल गया कि हर किसी का सफर एक जैसा नहीं होता।”
विवेक की बातें, उसकी ईमानदारी और आत्मस्वीकृति ने अरुण के भीतर जमी बर्फ को पिघला दिया। वह झेंप गया। उसका क्रोध धुंधला पड़ गया, उसकी जगह शर्म और ग्लानि ने ले ली। उसने महसूस किया कि उसकी ईर्ष्या ने न सिर्फ उसकी खुशी छीन ली थी, बल्कि उस सच्चे रिश्ते को भी विषाक्त कर दिया था जिसकी उसे सबसे ज्यादा जरूरत थी। विवेक की आँखों में छलकता पानी उसके लिए दर्पण बन गया।
“नहीं विवेक… माफ करने वाला मैं हूँ,” अरुण का गला भर आया। “यह मेरा अपना दर्द था, मेरी अपनी नाकामी का अहसास… और मैंने उसे तुम पर निकाल दिया। तुम तो सिर्फ… तुम्हारे साथ हो रहा था। मैंने अपनी हताशा को तुम्हारी सफलता से जोड़ दिया। यह ईर्ष्या… यह कैंसर की तरह है, जो अंदर ही अंदर खा जाता है। मैं खुद से घृणा करने लगा था।”
विवेक ने अरुण के कंधे पर हाथ रखा। “यार, मुश्किलें हर किसी की जिंदगी में आती हैं, बस उनका रूप अलग होता है। तुम्हारा संघर्ष, तुम्हारा परिवार के प्रति समर्पण… वह ताकत है जो मुझमें नहीं। तुम किसी से कम नहीं हो। और याद रखो, मेरा दरवाजा, मेरा सहारा हमेशा तुम्हारे लिए खुला है। बस बात करो।”
उस रात, घंटों तक वे बातें करते रहे। अरुण ने अपनी वित्तीय चिंताओं, पिता की बीमारी और करियर में अटके होने की पीड़ा खुलकर बताई। विवेक ने सिर्फ सुना, समझा। उसने सलाह देने के बजाय, सहयोग का हाथ बढ़ाया – नेटवर्किंग के जरिए बेहतर अवसरों के बारे में बात की, एक अच्छे डॉक्टर से संपर्क करने का वादा किया।
ईर्ष्या का विषैला सर्प अभी पूरी तरह नहीं मरा था, पर उसकी पकड़ ढीली पड़ गई थी। उसकी जगह एक नई समझ, एक नई संवेदनशीलता ने ले ली थी। विवेक भी सीखकर गया था – सफलता का उत्सव मित्रता की संवेदनाओं को कुचले बिना मनाना होता है।
कुछ महीनों बाद, जब अरुण को एक अच्छी कंपनी में बेहतर पद पर नौकरी मिली, तो सबसे पहले उसने विवेक को फोन किया। इस बार, उसकी खुशी में कोई कड़वाहट नहीं थी, बल्कि एक शुद्ध उमंग थी। विवेक की खुशी भी वास्तविक थी, बिना किसी अहंकार के।
“कॉफी कॉर्नर” में एक बार फिर बैठे थे दोनों। अरुण ने विवेक की आँखों में देखा और मुस्कुराया। “यार, उस दिन… तुम्हारे सामने मेरा विस्फोट… शायद मेरे जीवन का सबसे कठिन, पर सबसे जरूरी पल था।”
विवेक ने कॉफी का घूंट लिया। “और शायद मेरे लिए सबसे बड़ी सीख। दोस्ती सिर्फ खुशियाँ बाँटना नहीं, बल्कि एक-दूसरे के अंधेरे कोनों में भी रोशनी की किरण ढूँढ़ना है। ईर्ष्या तो आएगी,” उसने समझदारी से कहा, “पर उसे स्वीकार करना, उस पर बात करना… यही वह पुल है जो उस दरार को पाट देता है जिसे वह खोदती है।”
जीवन की यह कड़वी सचाई – ईर्ष्या की क्षणिक ज्वाला – उनकी मित्रता की नींव को भले ही हिला गई थी, पर उसी आँच में तपकर वह रिश्ता और भी मजबूत, और भी वास्तविक होकर उभरा था। वे अब जान गए थे कि सच्चा उजाला, छाया को मिटाने में नहीं, बल्कि उसे समझकर उसके साथ संतुलन बनाने में ही है। और यही संतुलन, यही स्वीकार्यता, उनकी साझा यात्रा का नया, अधिक सचेतन और सुखद अध्याय था।
# ईर्ष्या
डॉ० मनीषा भारद्वाज
ब्याड़ा (पालमपुर)
हिमाचल प्रदेश
साप्ताहिक विषय 21 July – ईर्ष्या