संस्मरण लिखना हो वह भी विवाह पर । फिर क्या एक से बढ़कर एक सुमधुर यादें पलकों में बोलने लगती हैं।हम कलमकारों को कहां से शुरू करूं और कहां अंत…..उलझन में डाल देती है। फिर भी….!
मन के तहों में वर्षों से दबा स्मृतियों का पिटारा,हमारा अनमोल खजाना है।
यह उनदिनों की बात है जब बिजली और आधुनिकता का प्रवेश हमारे जीवन में नहीं हुआ था।देश आजादी के सपने देख रहा था।पर्दा प्रथा चरम पर था।
रात्रि के बारह से एक के बीच का समय होगा । छोटी लाइन से धुआं फेंकती ,छुक छुक करती रेलगाड़ी विराने स्टेशन पर आकर खड़ी हुई। मात्र दो मिनट का ठहराव था। रौशनी के नाम पर प्लेटफार्म पर एक लैम्पपोस्ट लगा हुआ था।जिसकी पीली रौशनी में सब-कुछ धुंधला ही नजर आ रहा था।
ट्रेन रूकते ही अफरा तफरी मच गई। ट्रेन की बोगी में निकट गांव के बाराती दुल्हन व्याह कर ला रहे थे। बैलगाड़ी इन्तजार में खड़ी थी।
“हे भईया ,से दादा एने आईए “
“ओने जाइए।”का चिल पों। बैलगाड़ी में दुल्हा दुल्हन , बाराती, साथ में आया टीन का रंगीन पेंटी ,खाजा, लड्डू, बूंदी का टोकरा,साजो सामान ,अगड़म -बगड़म!
बैलगाड़ी के अगले हिस्से में भुकभुक करती लालटेन की मटमैली रौशनी। बैलों के गले की घण्टियों का टन- टन, झिंगुर का झन -झन।गर्मी के उमस के बाद पुरवैया हवा का झोंका एक दिलकश समां बांधे हुए था। अंधेरे में अभ्यस्त आंखें,हाथ में बैलों का पगहा पकड़े गाड़ीवान “हो…हे…”करता पूरे जोश में बैलगाड़ी गंतव्य की ओर हांके जा रहा था।शेष लोग जिसमें बाराती , दुल्हा दुल्हन सभी शामिल थे नींद और थकान से लस्त थे।
“कनिया आ गई, कनिया आ गई”के शोर से विवाह का घर गूंज उठा। विवाह में शामिल होने आई महिलाएं जो थककर चूर हो नींद के आगोश में गईं ही थी हड़बड़ाकर उठ बैठी।पूरे जोश खरोश से दुल्हन के गृह-प्रवेश की तैयारी होने लगी विधि विधान से।: ढिबरी, लालटेन का युग। विवाह के घर में एकाध पेट्रोमेक्स जिसे जलाने वाला विशेषज्ञ छोकरा कहीं दुबककर सोया हुआ था , आंखें मलते आ पहुंचा।
“लाईट लाओ ,लाईट ‘भीतर से आवाजें आ रही थी।
“अभी लाया “लड़का तेजी से पम्प मारने लगा।
इधर दुल्हा दुल्हन का दऊरा में डेग डलाई के पश्चात कोहबर में जाते जाते रात्रि का तीसरा प्रहर बीत गया।
चुचुहिया चुहचुहाने लगी _चीं-चीं…. मुर्गे बांग देने लगे। सुहागिनें घर भराई के रश्म के बाद कोहबर गाने लगी–“चंदन भीति परोरिले , जहां उतरे नबाव कोहबर।
कह बाबा के नाम कोहबर …कह आपन नाम कोहबर….”
जैसे ही गाने के बीच दुल्हन के गांव, पिता, कन्या का नाम आने लगा गर्मी और थकावट से अलसाई दुल्हन सचेत हो उठी। यह किसका नाम लेकर महिलाएं गीत गा रही है”यह न मेरा नाम है न मेरे गांव और न मेरे पिता का।गजभर घूंघट , उपर से नीचे तक विवाह के जोड़े में लिपटी कन्या लिहाज भूल चीख पड़ी,”मेरा नाम यह नहीं न मेरे गांव और पिता का यह नाम है’!
“क्या “स्वरलहरियों को ब्रेक लग गया।
फिर तो पूछिमए मत, घर के भीतर से बाहर तक अफरा तफरी मच गई।लोकदिन की खोज होने लगी। नींद और थकान की मारी लोकदिन एक ओर लुढ़क मीठे सपनों में खोई हुई थी।टहोके जाने पर उठ बैठी। कुछ समझी कुछ नहीं समझी –दौड़कर ढिबरी के फीकी रौशनी में दुल्हन का घूंघट पलट दिया। फिर चीख उठी”ई हमार बबुनी नईखी ,हाय ये देवा इ तो कोई और है……!”
दुल्हन भी चिहूंक उठी,”कौन हो तुम मैं नहीं पहचानती …..”और बुक्का फाड़कर रो पड़ी नवेली।
फिर क्या था , बड़े बुजुर्ग सोंच में पड़ गए। सुबह का उजाला फैलने लगा था। भगवान भास्कर की लालिमा आकाश में छाने लगी थी। किसी ने भी दुल्हन का चेहरा नहीं देखा था।उन दिनों लड़की देखने का रिवाज ही नहीं था।नऊआ ,ब्राह्मण विवाह तय कराते थे।साथ आई लोकदिन भी जब पहचानने से इन्कार कर दिया तो हद ही हो गई…..समझ नहीं आ रहा था माजरा क्या है?
तभी पूरब की ओर से दो साइकिल सवार दरवाजे पर आ पहुंचे और घर के बड़ों से बात की।तब जाकर मामले का पर्दाफाश हुआ।
हुआ यह था कि दो दुल्हन समान वेश भूषा ,कद काठी की एक साथ रात्रि के अंधेरे में एक ही रेल से उतरीं और भूलवश दुल्हनें आपस में बदल गईं। वहां भी कोहबर गाने के नाम, गांव पर दुल्हन चिहुंक उठी थी।
……. फिर आपसी सहमति से दोनों दुल्हनों को एक दूसरे के यहां सही स्थान पर पहुंचाया गया।लोकदिनों ने अपनी अपनी कन्याओं की पहचान की तब जाकर सभी के जान में जान आई।
उस जमाने में संचार का माध्यम सीमित था। अतः बिना किसी हंगामे के दोनों नववधूओं का गृह प्रवेश शांति पूर्वक हो गया।
पर्दा प्रथा की परम्परा तत्कालीन जन जीवन को प्रतिबिंबित करता है। स्मृतियों के समृद्ध खजाने से —आज भी उस घटना को याद कर बड़े बुजुर्ग विहंस उठते हैं ,”हाय रे .…घूंघटा….!”
सर्वाधिकार सुरक्षित-डाॅ र्मौलिक रचना–डा उर्मिला सिन्हा