आलोक जी के पिता जी की सदर बाज़ार में रेडीमेड कपड़ों की पुश्तैनी दुकान है उन्होंने अपने पिता से व्यापार के गुर सीखकर उनके व्यवसाय को सफलता की नई ऊँचाईयों पर पहुंचाया अब उनका छोटा बेटा बसंत उनके साथ बैठता है। अच्छे संपन्न लोगों में गिनती है उनकी।
बसंत के दो भाई ऊँचे पदों पर कार्यरत हैं। बड़ा भाई मुंबई के लीलावती हॉस्पिटल में हार्ट सर्जन है और उससे छोटा अमेरिका में एक मल्टीनेशनल कंपनी में मार्केटिंग हेड है। दोनों बहनों की अच्छे अमीर घरों में शादियाँ हो चुकी हैं।
पिता आलोक जी ने बहुत प्रयास किया कि बसंत भी पढ़ लिख कर कहीं जॉब करे पर उसका मन पढ़ाई में नहीं था वह रात दिन अपने पिता को कठोर परिश्रम करते देखता था जो दिनभर ग्राहकों के साथ माथापच्ची करते और रात को घर आकर भोजन करते ही निढाल होकर बिस्तर पर पड़ जाते।
जहाँ परिवार के अन्य सदस्यों को उनसे हमेशा उन्हें वक्त और प्यार न देने की शिकायत रहती वहीं उसे उनसे सहानुभूति का अहसास होता कि वह उन सबको अच्छा जीवन देने के लिए कितनी मेहनत करते हैं इसीलिए वह पिता का साथ नहीं छोड़ना चाहता था वह चाहता था कि वह हमेशा पिता के सुख दुःख में उनके साथ रहे।
वह देख रहा था कि कभी छुट्टी न मिलने के कारण तो कभी बच्चों की पढ़ाई के कारण उसके भाई बहुत ही कम घर आ पाते थे और उसकी माँ एवम् पिता नाती बेटों के सुख के लिए तरसते ही रह जाते। कभी उनके आने की खबर आती तो घर में उत्सव का माहौल होता पर अक्सर ही किसी कारण से कैंसिल होने पर कई दिनों तक घर में उदासी छाई रहती।
आलोक जी ने भी सोचा कि कोई तो उनके व्यापार को आगे बढ़ाये। उनकी दुकान बहुत अच्छी चलती थी परिवार की सारी जिम्मेदारियां उसी में से पूरी की थी उन्होंने। इस तरह बसंत पुश्तैनी व्यवसाय को संभाल कर बहुत खुश था। कुछ ग्राहक उनके सालों से बंधे हुए थे जो उनके अलावा किसी और की दुकान पर जाते ही नहीं थे और कुछ किसानों की उधारी चलती थी जो फ़सल आने पर पूरा हिसाब कर जाते थे।
पर इधर कुछ सालों से ग्राहकों की संख्या में अप्रत्याशित रूप से कमी आती जा रही थी कारण था लोगों का ऑनलाइन शॉपिंग की तरफ झुकाव। जब से इंटरनेट का प्रचार प्रसार हुआ है लोग बाज़ार जाने की ज़हमत नहीं उठाते और घर बैठे ही मनपसंद चीजें ऑर्डर कर देते हैं। इसके अलावा कंपनियां दाम ज्यादा बताकर उस पर भारी भरकम डिस्काउंट दे देती हैं जिसके जाल में ग्राहक आसानी से फंस जाता है। उसे वस्तु तो वास्तविक मूल्य पर ही मिलती है परंतु 50 या 80 परसेंट डिस्काउंट मन को तसल्ली जरूर दे देता है।
बसंत की दुकान पर जहाँ पहले दिन भर में पच्चीस ग्राहक आ जाते थे अब दिन में आठ – दस ही आते हैं, दुकान का किराया निकालना भी मुश्किल होता जा रहा है। दूर से दुकान की तरफ आते लोगों को देखकर उम्मीद की एक किरण जागती है जो उसके सामने से निकलते ही वह गाना याद आने लगता है उसे-
हम थे जिनके सहारे, वो हुए न हमारे।
डूबी जब दिल की नैया, सामने थे किनारे।
पाठकों से अनुरोध है कि एक बार जरूर इस बात पर गौर फरमाएं जिससे मंझोले और छोटे व्यापारी जिनका परिवार व्यापार के सहारे अपनी गुजर बसर कर रहा है वे भुखमरी
की कगार पर न आ जाएं यह आज के समय की एक गंभीर समस्या बनती जा रही है।
#सहारा
कमलेश राणा
ग्वालियर