ट्रेन की बढ़ती हुई गति सविता जी के मन को जोर जोर से धड़का रही थी की न जाने क्यों आज कौन सा मोड़ लेने वाली थी उनकी जिंदगी। उनके पोते अतुल ने अचानक ही जब हफ्ते भर पहले उन्हें गाजियाबाद आने का ट्रेन टिकट भेज कर बुला लिया था। अतुल शुरू से ही संकोची स्वभाव का रहा मगर अपनी मां बीना के अचानक देहावसान से वो और अपने तक ही सीमित रह गया था। सविता जी ने कोशिश भी करी की या तो अतुल उनके साथ बिहार चले या फिर वोही अपने बेटे सुमीत की गृहस्थी यहीं गाजियाबाद में रह कर संभाल ले।
मगर उनके छोटे पुत्र अमित और उसकी पत्नी आस्था को अपने स्वार्थ के चलते उनकी यह बात रास नहीं आई और वो उन्हें जबरदस्ती अपने बच्चों का वास्ता देकर उन्हें अपने साथ बिहार ले गए। सुमीत पढ़ाई में अच्छा होने के वजह से अपने दम पर दिल्ली में एक बहु प्रतिष्ठत कम्पनी में अति उच्चपद पर आसीन था। इधर अमित का झुकाव खेती बाड़ी में होने की वजह से उसने गांव में रह कर ही अपने कार्य को उत्तम बनाने में जी तोड़ मेहनत की जिसका परिणाम भी गांव के घर में आई बहार से साफ पता चलता था।
अमित दिल का साफ नेक था । मगर आस्था को अपने जेठ से एक अनदेखी सी हिरस चलती रहती थी। गांव में भी किसी चीज की कोई कमी नहीं थी। हां मगर शहर और गांव में जमीनी अंतर तो होता ही है जिसे वहां रहने वालों को खुशी खुशी स्वीकार करना चाहिए। मगर नही आस्था को अब एक मात्र राज्य चाहिए था , उसे अच्छा ही नही लगता जब तीज त्यौहार पर सुमीत का परिवार बिहार जाता। बीना सब समझती थी और सुमीत को भी समझाने का प्रयास करती । मगर सुमीत उल्टा उसे यह कह कर शांत कर देता की हम यहां चार दिन के लिए अपने मां बाप के पास मिलने आते है , वो समय हमे फालतू के बातों में बर्बाद नही करनी चाहिए।
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धीरे धीरे आस्था अब किसी को शादी ब्याह में क्या देना चाहिए , किसी के देन लेन का व्यवहार भी वहीं सुनिश्चित करने लगी। सविता जी ने भी सोचा की बहु अगर जिम्मेदारी ले रही है तो कोई हर्ज नहीं। थोड़े से शुरू हो कर यह बात कब बड़ा रूप ले चुकी थी इसका भान सविता जी को नही हो रहा था। मगर जब भी बीना बिहार के घर जाती तो यह देख दंग थी की आस्था जो भी कुछ बहन बेटी को देने के लिए निश्चित करती , सविता जी चुपचाप कठपुतली की तरह कर देती बिना अपनी बेटियों की इच्छा अनिच्छा जाने बिना।
सुमीत की वजह से बीना और मां बाप की भलाई के लिए बहनें चुप ही रह जाती। कभी कोई कुछ बोलना भी चाहता तो बीना जी के पति लाल बहादुर जी यह कह देते की हम सब का इतना ध्यान रखती है , सब बच्चे तो अपने अपने अलग अलग घर बसा कर रहते है , एक आस्था और अमित ही है जो उनका इतना ख्याल रखते है। वो अगर उनसे रूठ गए तो बुढ़ापे में रोटी के भी लाले पड़ जायेंगे।
बीना की आकस्मिक हुई मौत ने तो आस्था के पवारे 25 कर दिए , वो तो पहले ही सर्वे सर्वा थी । अब तो इकलौती बहु और हो गई थी। सुमीत भी अब अतुल की जिम्मेदारी संभालने में इतना व्यस्त हो जाता की अब गांव जाना धीरे धीरे कम कर दिया था। इसी बात का फायदा उठा कर अब धीरे धीरे संपतियां अपने नाम कराने का कार्यक्रम शुरू हो चुका था। सविता जी ने कहना भी चाहा की संपति पर दोनो बेटों का बराबर का हक है तो
आस्था ने अपने पति की जी तोड़ मेहनत का वास्ता देकर खेत अपने नाम करा लिया और चूंकि मकान को पहले ही लाल बहादुर जी के पिताजी अपने दोनो पोतों के नाम पहले ही कर चुके थे तो मकान में से दो हिस्से की बात कह कर सविता जी और लाल बहादुर जी को आसानी से मना लिया। जब यह बात जब सुमीत के सामने आई तो उसने भी बड़प्पन दिखाते हुए हामी भर दी।
यदा कदा अब आस्था भी नए नए तेवर दिखाने लग गई थी। इधर लाल बहादुर जी के देहांत के बाद तो थोड़ा बहुत डर और शर्म भी जाने लगी थी। अब अमित भी आस्था की मर्जी के बिना मां के किसी कार्य को हामी नही भरता था। आस्था की बिना मर्जी के अगर वो कुछ कर भी देता तो उस दिन आया तूफान कई कई सप्ताह तक रहता। आस्था के व्यवहार और सविता जी की चुप्पी को देख बेटियों ने भी आना बंद ही कर दिया था
लगभग। सविता जी घर की इज्जत और शांति की खातिर घुट घुट कर जीती थी। कई बार सुमीत के घर जाने की भी इच्छा जताई तो घर के कामों का उलहाना देकर आस्था उनके पैरों में बेड़ियां डाल देती। आस्था अब गांव के उस पुराने मकान को नए तरीके से बनाना चाहती थी मगर सुमीत का हिस्सा होने की वजह से मजबूर थी। उसने कई बार कोशिश की या तो सुमीत उस हिस्से को भी उनके हवाले कर दे या फिर पैसे लेकर कम दामों में अपना हिस्सा उन्हें बेच दे। मगर सुमीत मां की ममता और घर के प्रति लगाव को देख कर बात को टालता रहता।
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एक रात सुमीत ऐसा सोया की सुबह उठा ही नहीं, डॉक्टर का कहना था की सोते सोते अटैक आया होगा जिस वजह से सुमीत की मृत्यु हो गई। सविता जी तो गम के सागरों में डूब गई की पहले बीना, फिर उनके पति और अब बड़ा बेटा। और ऊपर से आस्था की बढ़ती मनमर्जियां। अब तो बेटियों ने भी साथ छोड़ दिया था। ऐसे में उनकी सुनने वाला कोई नहीं था। गांव के लोग भी आस्था को समझाने का प्रयास करते तो वो उनको ही
आडा हाथ लेकर अपने काम से काम रखने का मशविरा देती। किसी को भी घर आने की मंजूरी नही थी। सविता जी को अब वो घर जेल खाना लगने लगा था। उन्हे रह रह कर अकेले में बीना और उनकी बेटियों की कही वो बातें याद आती जिन्हे अगर उन्होंने नजर अंदाज ना किया होता तो शायद आज वो भी चैन की ,आजादी की जिंदगी जी रही होती। कहते है सच्चे मन से कुछ मांगो तो भगवान भी मदद करते है जरूर।
पड़ोसियों के बताने पर सविता जी की बेटियां सुधा और माया जब मां से मिलने पहुंची तो आस्था के बेटे मयंक ने बुआओं को यह कह कर मना कर दिया की या तो अम्मा को साथ ले जाओ या फिर अब दुबारा यहां लड़ने मत आना नही तो पुलिस में खबर कर दूंगा की यहां आकर आप अपने हिस्से के लिए अम्मा को भड़का कर घर में कलेश करती है जिस वजह से मेरी मां ने खुदकुशी करने की कोशिश की है। अब तो बुआओं के साथ साथ
सविता जी को भी सांप सूंघ गया की अब क्या होगा। जब बुआओं के जरिए अतुल को पता चला की किस तरह दादी को उनके ही घर में कैद कर दिया गया है तो अतुल ने अपने चाचा अमित को फोन करके दादी को गाजियाबाद भेजने के लिए यह कर बोला की आप दादी को यहां भेज दे क्योंकि गांव के पैतृक मकान में अपनी भागेदारी को उसके पिता सुमीत पहले ही अपनी मां यानी अतुल की दादी सविता जी के नाम कर चुके थे।
चाचा के लाख समझाने पर भी अतुल अपनी जिद पर अड़ा रहा की वो गांव नही आएगा , अगर आएंगी तो सिर्फ दादी। अब आस्था का लालच जोर मारने लगा की बिन लाठी सांप मर गया और पूरा मकान भी अपने नाम हो जायेगा। इसीलिए खुशी खुशी अतुल के भेजे टिकट के साथ सविता जी को गाजियाबाद रवाना कर दिया गया। स्टेशन पर ही अतुल दादी को लेने पहुंच गया था ,
महीने भर तक दादी की अच्छी खातिर दारी और खूब आदर के साथ आज सारी कागजी कार्यवाही कर अतुल दादी को गांव छोड़ने जा रहा था। दादी के आंसू रुकने का नाम ही नही ले रहे थे। सविता जी को यह समझ ही नही आ रहा था की सुमीत अपने जीते जी अपना हिस्सा उनके नाम क्यों कर गया था। सविता जी के बार बार पूछने पर अतुल ने बताया की चाची का व्यवहार मां की आंखों में शुरू से खटकता था। मां की ही दूरदर्शिता थी
की उन्होंने अपना हिस्सा आप सबके नाम करने के लिए पिताजी को पहले ही मना लिया था । मां जानती थी की चाची एक दिन देर सवेर यह सब जरूर करेंगी। उनका जो रूप उनके साथ रहकर भी आप और बाबा देख सकने में असमर्थ थे वो मां पहले ही भांप गई थी। और वो ही हुआ आज सविता जी लचारगी की उस सीमा पर थी की अपने ही घर में कैद कर दी गई थी। अतुल आज भी दादी के करे पक्षपात के लिए दादी के साथ असहज था। दादी के आत्मा से बस एक ही आह निकली,”
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“हम लोग कितने भाग्यशाली थे जो हमें ऐसी बहू मिली थी”
मगर अब वो गलती दुबारा नहीं करूंगी । स्टेशन पर दादी को सकुशल छोड़ कर अतुल वापस लौट गया और इधर तो सविता जी के भव्य स्वागत में आस्था पलक बिछाए घूम रही थी। जैसे ही सविता जी ने घर में कदम रखा तो झट उनके हाथ से अटैची झीन कर कमरे में जाकर पेपर ढूंढने लगी। मगर यह क्या पेपर की तो जेरॉक्स कॉपी थी जिस में साफ साफ लिखा था की घर के आधे हिस्से पर सविता जी और उनके बाद उनकी दोनो बेटियों का उस हिस्से पर बराबर बराबर का हक होगा। अब तो आस्था गुस्से के मारे पागल हो गई । उसके तो सारे सपनो पर पानी फिर गया था ।
उसने तो सोचा था की मां जी को बहला फुसला कर बचा हुआ हिस्सा भी अपने बेटे के नाम करा लेगी। सविता जी ने घर आने से पहले ओरिजनल पेपर गांव के ही बैंक लॉकर में जमा करवा दिए थे। और कागजों की जेरॉक्स कॉपी जो अतुल ने पहले ही उन्हें दे दी थी वो अपने साथ ले आई थी।
गांव में जब सविता जी की दोनो बेटियों और उनके ससुराल वालों और जिस जिस को यह बात पता चली उनके मुंह से बस यही निकला की सविता जी कितनी भाग्यशाली हो जो ऐसी समझदार बहू मिली थी, जो दुनिया में न होते हुए भी आपका उद्धर
कर गई।
सोनिया अग्रवाल
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