family story hindi kahani : राम निवास जी एक साधारण आर्थिक पृष्ठभूमि के दुकान मालिक थे। दुकान की आमदनी में उनका घर खर्च तो भली भांति चल जाता था,पर आज के समय मे बच्चो की पढ़ाई में होने वाले भारी खर्चो में उन्हें कभी कभी काफी दिक्कत महसूस होती थी। वो तो भगवान का शुक्र था कि उनके दोनो बेटे मेधावी थे,अपनी पढ़ाई का अधिकतर खर्च दोनो खुद ट्यूशन पढ़ा कर निकाल लेते थे।
रामनिवास जी ने अपने दोनो बेटों को स्पष्ट कर दिया था कि उनकी दुकान से पूरे परिवार का वहन आगे चलकर होना संभव नही है,सो उन्हें ही प्रयास करना होगा।साफ था कि दोनो बेटों के सामने नौकरी करने के अतिरिक्त कोई रास्ता नही था।दोनो बेटे अनिल व सुनील खुद भी समझते थे कि उन्हें नौकरी ही करनी पड़ेगी।
रामनिवास जी को अहसास होता कि बेटे तो उनके हैं,उनको उच्च शिक्षा दिलाना उनका फर्ज है, पर कम आमदनी में उनके अरमान मर जाते।बच्चो के भविष्य की टेंशन उन्हें खाये जाती,बच्चे और पत्नी उनकी मनोदशा को समझते थे,पर क्या करे तो क्या करे ?
किसी प्रकार बड़े बेटे अनिल ने ग्रेजुएशन किया तो उसने नौकरी ढूढ़नी प्रारम्भ कर दी।एक कंपनी में सेल्स मैन का जॉब मिला।वेतन मात्र तीन हजार रुपये।कोई चारा न देख अनिल ने उस जॉब को स्वीकार कर लिया।इस जॉब में चुनौती थी सेल्स के लक्ष्य को प्राप्त करते रहने की।प्रतिदिन सेल्स की रिपोर्ट देना,कम रह जाये तो फटकार सहना,सेल्स का लक्ष्य पूरा हो जाये तो और अधिक लक्ष्य का मिल जाना,
यही रूटीन बन गया था।ये अच्छा था अनिल को पोस्टिंग पास के नगर में ही मिल गयी थी इसलिये शाम या रात्रि को घर आ जाना हो जाता,इससे नगर में रहने पर किराया और खाने का खर्च बच जाता।अनिल इस जॉब में मशीन बन कर रह गया था।राम निवास जी अपनी आंखों से बेटे की हालत देख दुखी होते रहते पर अपने को कोसने के अतिरिक्त कुछ करने का नही बनता।
धीरे धीरे इसी जॉब में अनिल को तीन वर्ष बीत गये, इस बीच सुनील ने भी ग्रेजुएट कर लिया।अब सुनील को जॉब ढूढ़नी थी,उच्च शिक्षा दिलाने लायक स्थिति अब भी नही बनी थी।किसी प्रकार कहसुन कर अनिल ने अपने छोटे भाई की नौकरी भी उसी कंपनी में लगवा दी।अब आमदनी का जरिया तीन व्यक्तियों से हो गया था,रामनिवास जी का दुकान से और अनिल व सुनील का अपनी अपनी जॉब से।भले ही तीनो की आमदनी कम हो पर पहले से अधिक तो हो ही गयी थी और सबसे बड़ी बात थी
अब फिलहाल कोई जिम्मेदारी भी नही थी,इस कारण घर में बरकत दिखायी देने लगी।रामनिवास जी अपने से असंतुष्ट थे,उन्हें लगता कि उन्हें जो शिक्षा बच्चो को दिलानी थी,वो नही दिला सका।होनहार बेटो का भविष्य उसके कारण सिमट कर रह गया।तीन वर्षों के अनुभव और अपनी मेहनत के कारण सेल्स में लक्ष्य प्राप्त करते रहने के कारण अनिल को कंपनी ने प्रमोट कर दिया अब अनिल का वेतन भी बढ़ गया था।पर काम की प्रकृति वैसी ही थी,अंतर केवल इतना आया कि अब उसे अपने जूनियर को फटकारने का अधिकार मिल गया था,पर उससे सीनियर को उसे फटकारने का अधिकार भी तो था।
रामनिवास जी को अनिल के काम काज में कोई फर्क दिखायी नही देता था।घर पर रहते हुए भी वही मोबाइल पर जोर जोर से बोलकर और सुनकर कंपनी के काम को अंजाम देते रहना ही मानो बेटो की नियति बन गयी थी।
रामनिवास जी को नौकरी करने का अनुभव तो था नही,उन्हें ये पता हो भी नही सकता था कि आज हर चीज में प्रतियोगिता है,सफल होने के लिये अपने को झौकना होता है, उन्हें तो लगता कि यदि बच्चो को उच्च शिक्षा दिला देते तो वो आराम से जीवन यापन करते।अनिल ने कई बार कहा भी पापा आप क्यों अपराध बोध पाले रहते हो हमे कोई परेशानी नही हमे इस प्रकार कार्य करने की आदत हो गयी है।रामनिवास जी को ये वाक्य बेटे द्वारा बाप को दी दिलासा मात्र लगते।
यूँ तो अनिल की पगार अब तक 15 हजार हो चुकी थी और सुनील को भी 8 हजार मिलने लगे थे कि अनिल को एक दूसरी बड़ी कंपनी से 25 हजार का ऑफर मिल गया।अनिल ने दूसरी कंपनी को जॉइन कर लिया।उधर पहली कंपनी वालो ने ये सोचकर कि कही सुनील भी कंपनी ना छोड़ दे,उन्होंने सुनील का वेतन 12 हजार कर दिया।अब रामनिवास जी के यहां आर्थिक तंगी नही थी,बच्चे प्रगति कर रहे थे।बस रामनिवास जी का अपना अपराध बोध था तो अनिल का सदैव कहना होता पापा क्यों टेंशन लेते हो हम है ना।
बालेश्वर गुप्ता,नोयडा
मौलिक एवं अप्रकाशित।
#आप टेंशन मत लीजिये वैसे भी मुझे आदत हो गयी है इस सबकी