*हरि* – मुकुन्द लाल : Moral Stories in Hindi

   सन्नाटे ने लीला के बढ़ते कदम को रुकने के लिए विवश कर दिया। ज्योंही वह अपनी कोठरी से बाहर निकली सुबह पौ फटते ही वह  कुम्हला उठी । उसने अपनी पैनी दृष्टि इधर-उधर दौड़ाई।अचानक उसकी नजर टकरा गई  छप्पर से लटकते पिंजड़े से उसका दिल धक् से रह गया।पिंजड़ा खाली पड़ा था फांसी पर लटकते बेजान देह की तरह। 

   वह तेज कदमों से चलकर पिंजड़े के पास पहुंँची। उसने लटकते पिंजड़े को उतार कर जमीन पर रखा। टकटकी लगाकर वह थोड़ी देर तक देखती रह गई ।

   पिंजड़े के अंदर कटोरी में चारे का अवशेष अब भी मौजूद था। श्मशानी शांति व्याप्त थी पिंजड़े में।  

   पंछी विहीन पिंजड़ा को देखकर वह व्याकुल हो उठी।खलबली मचने लगी उसके अंतस्तल में। अंतर्मन में उठने वाले प्रश्नों ने उसे बेचैन कर दिया। क्या किसी ने पिंजड़ा खोलकर हरि को उड़ा दिया या मार दिया उसको गला मरोड़ कर? 

   पर दूसरे ही  क्षण उसकी आत्मा कांप उठी, “नहीं! नहीं!… ऐसा नहीं हो सकता है पंछी का भला दुश्मन कौन हो सकता है?”

   अनहोनी की आशंका से लबरेज सवाल फिर उसके कलेजे में बरछी की तरह चुभने लगे, “क्या बिल्ली खा गई हरि को?” 

   उसके अंतर्मन से आवाज आई, “ऐसा कैसे हो सकता है… छप्पर से लटकते पिंजड़े तक बिल्ली कैसे पहुंँचेगी? “

   इन प्रश्नों के अंगारों पर वह चहलकदमी करने लगी। उसने घर का कोना-कोना छान मारा किंतु हरि का कहीं अता-पता नहीं था।  

   उसका पति केशव उसके उठने के पहले ही बिस्तर त्याग कर मैदान की तरफ निकल गया था। बेटा चन्दर और बहू कांति अपनी कोठरी में मीठी नींद का रसपान कर रहे थे। पोता अंशुल भी नहीं जागा था। 

   लीला चाह कर भी अपने बेटे और बहू को उस वक्त जगा कर हरि के संबंध में पूछताछ नहीं कर सकी। 

   थक हारकर वह बैठ गई पिंजड़े के पास रखी माचिया पर उदास  उदास सी। वह पिंजड़े को यूं देख रही थी मानो सब कुछ लुट गया हो उसका। उसकी आंँखें नम हो आई। 

    उस दिन भी तो इसी तरह उसके कलेजे का टुकड़ा सदा के लिए छोड़ कर चला गया था पिंजड़े का पंछी उड़ गया था शेष रह गया था खाली पिंजड़ा।

   लंबे अंतराल पर जन्मी संतान दांपत्य जीवन को इस प्रकार खुशगवार बना देती है जैसे पतझड़ के बाद आई बसंत की बहार। 

   नंदू के जन्म ने लीला के जीवन को खुशियों से भर दिया था यही कारण था कि पड़ोस की महिलाएं व्यंग्य भी करती नंदू के जन्म पर तो उसको गंभीरता से नहीं लेती वह। 

    उस दिन पिंटू की मां ने हंँसी-हंँसी में कह दिया, “चंदन की मां तेरे जैसा भाग्य तो  बिरले को नसीब होता है।… एक ही साथ अपने बेटे और पोते के बचपन का सुख तो किस्मत वाले को ही मिलता है। 

      तब लीला लाज से लाल हो गई थी, पर दूसरे ही क्षण मुस्कुराते हुए उसने कहा,” सब ऊपर वाले की मेहरबानी है पिंटू की मां।… जब ईश्वर ने अपनी कृपा दृष्टि मुझ पर की है तो उसे स्वीकार करना तो हमारा फर्ज है।” 

   रेगिस्तान में लंबे समय तक  भटकते मृग को सहसा जल प्राप्त हो जाने से जो तृप्ति मिलती है, कुछ इसी तरह की तृप्ति लीला को भी नसीब हुई थी ।

   लेकिन गरम तावे पर  छिड़के जल की बूंदों की तरह ही यह संतान-सुख साबित हुआ था। 

   नंदू शिकार हो गया था शीतलहर का।  

   उस दिन कड़ाके की ठंड पड़ रही थी बर्फानी हवा के थपेड़े चाबुक की तरह चोट कर रहे थे जिस्म पर। 

   लीला के मना करने पर भी नंदू अपने मोहल्ले के बच्चों के साथ खेलने के लिए बगल के मैदान में चला गया था। 

   घर  लौटने के बाद रात से ही उसकी तबीयत खराब हो गई थी। दो दिनों तक वह पड़ोस के डॉक्टर के इलाज में रहा। तीसरे दिन अर्द्धरात्रि के समय से ही उसकी दशा अचानक बिगड़ने लगी। 

   जल्दी-जल्दी लीला केशव और चन्दर के साथ नंदू को लेकर अस्पताल पहुंँची । 

   अस्पताल में चारों ओर अंधेरे का साम्राज्य था जिसको टिमटिमाता बल्ब असफल प्रयास कर रहा था दूर भगाने का। 

   डॉक्टर और कंपाउंडर का कहीं अता-पता नहीं था।  पर ठंड से ठिठुरते कुत्ते रो-रोकर अपनी वफादारी का परिचय अवश्य दे रहे थे। रह-रहकर वार्ड से मरीजों की  कराह सुनाई पड़ रही थी।   

    नर्सें अपने निर्धारित कक्ष में झपकियां ले रही थी।

   बाप बेटे चल पड़े थे अस्पताल के अहाते में बने क्वार्टर की तरफ डॉक्टर और कंपाउंडर की खोज में। 

   भागीरथी प्रयास के बाद डॉक्टर और कंपाउंडर को मरीज़ के पास लाने में सफल हुए पिता-पुत्र। 

   दौड़ धूप में  दो घंटे बीत चुके थे। नंदू की दशा बिगड़ती जा रही थी पल-पल। 

   लीला रोने-गिड़गिड़ाने लगी, “हाथ जोड़ता हूँ डॉक्टर साहब!… पांव पड़ता हूँ।… बचा लीजिए मेरे लाल को… ।” 

   जवाब में डॉक्टर ने तल्ख आवाज में कहा, “हुंह!… दिन में आते नहीं है, जब मरीज की हालत बिगड़ जाती है तो दौड़ पढ़ते हैं आधी रात को अस्पताल में… अपने भी मरते हैं और हम लोगों को भी तंग करके मारते हैं ।

   लीला और केशव ने समवेत स्वर में अपनी ज्ञात और अज्ञात गलती के लिए क्षमा याचना की फिर शीघ्र इलाज शुरू करने के लिए निवेदन किया उन लोगों ने, जबकि चन्दर की आंँखों से चिंगारियां निकलने लगी थी डॉक्टर की बात सुनकर। 

   डॉक्टर ने बडबडाते हुए कंपाउंडर की सहायता लेकर मरीज का मुआयना शुरू किया। 

   नंदू का इलाज काफी विलंब से शुरू हुआ अस्पताल में लाने के बाद भी। नतीजा यह निकला कि इमरजेंसी वार्ड में भर्ती करने की जहमत भी उठानी नहीं पड़ी डॉक्टर को क्योंकि ईश्वर ने उपचार के प्रथम चरण के दौरान ही उसे अपने वार्ड में स्थान उपलब्ध करवा दिया। 

   उस रात दिल दहला देने वाली  चीख और विलाप से अस्पताल का कोना-कोना कांप उठा था। 

   मोहल्ले में चहकने वाली लीला नंदू की मौत के बाद मौन हो गई थी तो न  खाती थी, न पीती थी।  अर्द्धविक्षिप्त सी हो गई थी वह। बैठती तो घंटों बैठी रह जाती।  ताकती रहती वह आकाश में शून्य की ओर । 

   मातमपुरसी लिए लोग उसके घर आते तो फफक-फफक कर रोने लगती। आगन्तुक की आंँखें भी भींग आती।  

   केशव और  चन्दर के समझाने और सांत्वना देने पर वह जोर-जोर से विलाप करने लगती, तब केशव और चंदर की आंँखों से भी आंँसू बहने लगते। इन लोगों को रोते देखकर बहू कांति भी रोने लगती।  

   उस घर में दुख का सागर उमड़ पड़ा था। परिवार के सभी सदस्यों के चेहरे विवर्ण हो गए थे। 

   उस दिन लीला अपने घर के दरवाजे पर बैठी यंत्रवत गली में आने-जाने वालों को देख रही थी कि अचानक उसकी नजर सामने के वृक्ष पर बैठे तोते के बच्चे पर पड़ी। 

   मासूम बच्चा ‘चीं-चीं ‘कर रहा था डाल पर बैठा हुआ। 

   एक टक वह देखती रह गई थी उसके नन्हे -नन्हे दो पैर, गोल-गोल दो काली आंँखें , कोमल कोमल खूबसूरत हरे पंख, लाल चोंच और गले के चतुर्दिक उभरी लाल कलात्मक लकीर ने उसके अंतर्मन को हर्ष से सराबोर कर दिया। 

   उसने  चुचकारते हुए कहा, “आ जा!.. आ जा!.. “

   वह भी ‘चीं-चीं’ करके नीचे की डाल पर आ बैठा। वह लीला को देख रहा था अपनी भाषा में शोर मचाते हुए। 

   लीला को लगा मानो कह रहा हो, “मुझे अपना लो मांँ जी!… मैं अपनी माँ से बिछुड़ गया हूँ।… खोज- खोज कर थक गया हूँ लेकिन वह नहीं मिलती है।” 

  थोड़ी देर तक वह उसे निहारती रही। उसके अंत स्थल में ममता की लहरें उठने लगी वह बेचैन हो उठी 

   वह दरवाजे पर से उठकर वृक्ष की तरफ चल पड़ी लेकिन ज्योंही वह वहाँ पहुंँची, त्योंही ही तोता का बच्चा उड़कर ऊपर की डाल पर जा बैठा। 

   पल भर वह ताकती रही ऊंँची डाल पर बैठे तोते के बच्चे को फिर निराश होकर वह लौटना चाह ही रही थी, कि वह फिर नीचे की डाल पर आ बैठा नन्हे-नन्हें पंँखों  से उड़कर।  

   लीला ने फुर्ती से तोते को पकड़ लिया उसने स्नेहिल आंँखों से उसकी चोंच को देखा, फिर उसने चूम लिया उसे। वह रोमांचित हो उठी थी मासूम तोते का मखमली स्पर्श पाकर। कुछ समय तक वह तोते के बच्चे को अपने सीने से लगाए अपने दग्ध अंतस को शीतल करती रही फिर उसे लेकर वह घर चली आई ।

   घर में आते ही पुलकित होकर सबसे पहले उसने तोते की मुलाकात अपनी बहू से करवाई फिर चंदर से। 

   थोड़ी देर के बाद अंशुल भी पहुंच गया गली से तोते के बच्चे के साथ खेलने के लिए। 

   लीला ने तुरंत चंदर को एक पिंजड़ा लाने के लिए कहा। 

   घंटे भर बाद ही पिंजड़ा भी आ गया ।

   चंदर को सुकून मिला था यह सोचकर की मांँ का मन बहल जाएगा इस तोते के साथ ।

   कई सप्ताह के बाद उस दिन लीला के चेहरे पर हर्ष की लकीरें उभर आई थी और टपक रही थी खुशी उसकी आंँखों से। 

   उस दिन से ही उसकी एक नई दिनचर्या शुरू हो गई थी। 

   नवजात शिशु की तरह उस तोते के बच्चे का पालन पोषण और देखभाल शुरू कर दिया था लीला ने। उसे पंछी को ‘हरि’ के नाम से पुकारना शुरू कर दिया। 

   सुबह उसके पिंजड़े को साफ करती फिर नहलाती उसे। इसके उपरांत पिंजड़े की कटोरी में सत्तू पानी में गूंथकर डालती उसके खाने के लिए। 

    जब पिंजड़े की सफाई के लिए पिंजड़े का द्वार खोलती तो तोता अपनी भाषा में प्यार प्रदर्शित करता उसके हाथ को अपनी नन्ही चोंच से चूम लेता तब लीला कहती, ” अरे!… साफ करने दे तब बातचीत करेंगे तेरे साथ। 

   जब हरी अपनी लाल चोंच से चारा खाता तो एक टक देखती रहती लीला उसे। इसमें उसे आंतरिक सुख की प्राप्ति होती। 

   उसी क्रम में वह हरि से वार्तालाप शुरू कर देती, “बोल हरि!… सीता राम… सीता राम… उठ अंशु भोर हो गया…. अंशु उठ… सीता राम बोल हरि!… सीताराम…. “

  प्रत्युत्तर में हरी भी अपनी भाषा में बोलने का प्रयास करता। 

   मातमी वातावरण दूर होने लगा था खुशियाँ आहिस्ता-आहिस्ता अपना पांव फैलाने लगी थी उस घर में।  

   कुछ रोज बाद अंशुल भी अपनी दादी का साथ देने लगा हरि को पाठ पढ़ने में।  

   देखते देखते शिशु हरि जवान हो गया उसकी हरी पंखें लंबी व  सघन हो गई, उसी अनुपात में उसकी लाल चोंच नुकीली और बड़ी हो गई। उसकी काली काली गोल आंँखों में चमक आ गई।  

   सुबह होते ही हरि की आवाज माहौल में गूंजने “लगती, उठ अंशु!… भोर हो गया… सीता राम कहो रे… कहो रे… सुबह हो गया… सीताराम… राम जी…” 

  कभी-कभी प्यार से लीला डांटती, “चुप!… हल्ला कर रहा है सुबह-सुबह…” 

 तब  हरि भी उसी अंदाज में लीला के शब्दों को दोहराता, “चुप!… हल्ला कर रहा है…” 

   लीला अपने संवाद को तोता की भाषा में सुनकर आनंद से विभोर हो उठती। वह खिलखिला कर हंँसने लगती। क्षण-भर बाद कहती, “अरे!… तू हमको ही पाठ पढ़ने लगा। “

 लीला और हरि के संवादों के आदान-प्रदान के क्रम में कभी-कभी वह पंख फैलाकर या अपना एक पंजा उठाकर ‘टांय-टांय’ की आवाज करते हुए अपना प्रेम प्रदर्शित करता तो उसके अंतस्तल में आनंद का झरना फूट पड़ता था।लीला के स्नेह के बंधन में हरि पूर्ण रूप से बंध गया था। 

   कांति अपनी सास और हरी का वार्तालाप सुनकर क्षुब्ध हो उठती ।वह अपने होठों में बड़बड़ाती, “हुंँह!… भोर होते ही शुरू हो गया इनका नाटक… ओह!… कान देना मुश्किल है… इतना शोर?… यह घर है या चिड़यांखाना। ” 

   चंदर कहता भी, “छोड़ो भी!… मांँ का मन लग गया है इस तोते के साथ ।” 

   “घर में और कोई काम नहीं है मन लगाने के लिए… इनकी तो बुद्धि सठिया  गई है… कुछ करना ना धरना…. दिन-रात ‘हरि हरि’ चिल्लाती रहती है। “

    कांति, लीला और हरि के बीच के मेलजोल व स्नेह को सहन नहीं कर पाती थी वह चाहती थी कि घर के कामकाज में अधिक से अधिक समय दे उसकी सास।    लीला घरेलू काम तो करती ही थी लेकिन बीच-बीच में कुछ समय निकालकर हरि के साथ अपना मन भी बहला लेती थी।  

   उस दिन कांति का व्रत था। वह उपवास में थी। सुबह से ही आंगन में बर्तन का ढेर लगा था। कांति अपनी कोठरी में झाड़ू पोछा लगाकर चुपचाप बैठ गई थी। 

   होता यह था की सास-बहू मिलकर बर्तन मांजने और धोने का काम करती थी। सास बर्तन मांज देती तो बहू धो देती, जब बहू मांजती तो सास धो देती। इसी तरह घर के अन्य कार्य भी साझेदारी में निपटाने का प्रचलन था उस घर में।  

   रोज की तरह उस दिन भी सुबह लीला उठते ही पिंजड़े के पास पहुंच गई। 

   लीला को हरी ज्यादा ही खुश नजर आ रहा था उसके पिंजड़े के पास पहुंँचते ही वह मनमोहक अंदाज में पिंजड़े में शरारत करने लगा। कभी वह पिंजड़े की परिक्रमा करता, अपनी गोल-गोल आंँखें बंद करता , कभी खोलता। फैलाता कभी अपने पंखों को लीला के स्वागत   में तो कभी आंँखें मटका कर अनुराग प्रकट करता उसके प्रति। उसके साथ ही वह लीला द्वारा सिखाए गए शब्दों का मधुर आवाज में उच्चारण भी करता। 

   पिंजड़े के नटखट पंछी की लीला ने लीला के अंत- स्थल में ऐसी हलचल मचा दी कि वह भूल गई कि उसके बहू का व्रत है घर का सारा काम उसे ही अकेले निपटाना है ।

   उसके चंचल, चप्पल खेल व सरस संवाद के वशीभूत होकर स्नेहिल दृष्टि से उसको थोड़ी देर तक देखती रही, सुनती रही, उसकी मीठी आवाज मंत्रमुग्ध सी, फिर लीला भी उसके स्वर में स्वर मिलाकर बोलने लगी, “बोल हरि!… सीता राम… सीता राम… उठ अंशु भोर हो गया।” 

   पल भर बाद अंशुल भी अपनी चारपाई पर से उठकर आंँख मलता हुआ अपनी दादी के  बगल में आकर खड़ा हो गया।  

   अंशुल को देखते ही लीला बोल उठी, “तू भी आ गया रे  अंशु !… देख कैसे ‘टांय-टांय’ बोल रहा है हरि।”  

   अंशुल भी अपनी दादी के साथ बतियाने लगा हरी से। इसके साथ ही बाल सुलभ हरकत शुरु हो गई थी उसकी। कभी वह पिंजरे के अंदर उंगली डालकर तोता को छूता तो कभी उसके पंख को खींच लेता।

   लीला ने मना भी किया लेकिन अपनी दादी की नजर बचाकर वह हरि का पंख खींच लेता और जब पीड़ा से हरी चीखता तो अंशुल को मजा मिलता। 

   उसकी हरकत से बचने के लिए हरि पिंजड़े में कभी इधर कभी उधर भागता फिर भी अंशुल की छेड़खानी जारी रही। 

   हरि क्रोधित हो उठा। उसने दहकती आंँखों से अंशुल को देखा फिर भी अंशुल पर कोई असर नहीं पड़ा। इस बार उसने ज्योंही अपनी उंगली पिंजड़े के अंदर घुसाया, हरि ने अपनी पैनी चोंच से पकड़ लिया उसे। उसकी नुकीली चोंच अंशुल की उंगली में चुभ गई। 

   उंगली से खून बहने लगा। 

   लीला की नजर ज्योंही उसकी उंगली पर पड़ी, उसने  दयार्द्र स्वर में कहा, “मैं मना कर रही थी न कि हरि को मत छेड़ लेकिन तू तो… अच्छा ठहर!.. पट्टी बांध देती हूंँ…” 

   अंशुल चीख-चीखकर कर रोने लगा। 

   “क्या हुआ अंशु!… क्यों रो रहा है रे?” कहती कांति अपनी कोठरी से बाहर आ गई। 

   अपने बेटे की उंगली से खून बहता देखकर दुख व  आश्चर्य से उसने कहा,” कैसे खून बह रहा है?… क्या हुआ? “

 ” हरि ने काट लिया माँ “रोते हुए अंशुल ने कहा। 

      घर का काम छोड़कर तोते के साथ व्यर्थ समय गंवाने के कारण कांति सुबह से ही गुस्से में थी पर लोक-लाज के भय से कुछ बोल नहीं पा रही थी किंतु तोते द्वारा उसके पुत्र की उंगली के जख्मी होने की घटना ने उसके क्रोध को भड़का दिया।  

    जब मलहम-पट्टी करने के लिए लीला अंशुल का हाथ पकड़ कर ले जाने लगी तो बाज की तरह झपट्टा मारकर अपने बेटे का हाथ अपनी सास के हाथ से छुड़ा लिया फिर शेरनी की तरह दिहाड़ी, “मेरे बच्चे की दुर्दशा तेरे कारण हुई… तेरी करनी का फल मेरे बेटे को भोगना पड़ा… हाय! हाय!… कितना खून बह रहा है… ऐसे तोता को गर्दन मरोड़ कर मार देना चाहिए… लगता है मार झाड़ू के…” कहती हुई कांति ने अपने बेटे का हाथ छोड़कर बगल में रखा झाड़ू को उठा लिया और लगी पिंजड़े पर प्रहार करने झाड़ू से। 

   भयभीत हरि पिंजड़े में कभी इधर, कभी उधर भाग रहा था। इसके साथ ही चीख-चीख कर अपनी भाषा में गलती के लिए माफी मांग रहा था कांति से। 

   लीला मूकदर्शक बनी रही उस वक्त हरि की चीख और छटपटाहट उसके अंतस को आहत करती रही, कलेजा फटता रहा उसका। 

   अपना गुस्सा जब पिंजड़े के पंछी पर कांति ने उतार लिया तब उसने नागिन की तरह फुफकारते हुए कहा, “सासू जी इस तोते को संभाल कर रखिए नहीं तो किसी दिन इसकी जान हम ले लेंगे!… कैसे दर्द से बिलख रहा है अंशु..”  

   “बहू!… बार-बार हरि का पंख खींच लेता था अंशु… आखिर उसमें भी तो जान है उसको भी तो दर्द हो रहा था।” उसकी हरकत से लीला ने संयत स्वर में कांति को समझाने का प्रयास किया।  

   ” हाँ! हांँ!… उसकी तो जान ले रहा था। इस तोता के कारण तो इसकी पढ़ाई- लिखाई सब चौपट हो गई है। घर का काम धंधा यूं ही पड़ा रहता है। आंगन में जूठे बर्तन पड़े हैं। मक्खियाँ भिन-भिना  रही है उन पर, अब यह घर नरक में डूब गया है… यहांँ तो अब धरम-करम करना भी मुश्किल है।… इस पंछी ने तो परेशान करके रख दिया है।… “आवेश में वह बड़बड़ा रही थी। 

   हरि सास बहू के बीच चल रहे वाद -विवाद को यूं देख रहा था मानो वह पश्चाताप कर रहा हो। 

   अंत में कांति ने अपने बेटे को डांटते हुए कहा,”आइंदा कभी देखा इस तोते के साथ खेलते तो एक नतीजा बाकी नहीं छोड़ेंगे तेरा… “कहती हुई अपने बेटे के साथ अपनी कोठरी में चली गई थी। 

   लीला ने अपनी बहू को क्रोधित देखकर मौन रहना ही उचित समझा। 

   बच्चे तो आखिर बच्चे ही हैं। कुछ रोज बाद अंशु अपनी माँ की नजर बचाकर हरि के साथ फिर खेलने लगा लेकिन कांति की नजरों से यह मेल-जोल छिपा नहीं रहा। 

    कांति क्रोधित होकर दांँत पीसती लेकिन कुछ कर नहीं पाती। वह मन मसोसकर रह जाती। कभी वह सोचती कि पिंजड़े के बाहर निकाल कर उड़ा दें, पर दूसरे ही क्षण उसकी यह सोच हाशिये पर चली जाती यह सोचकर कि कहीं चंदर नाराज न हो जाए यह विचार करके कि मेरी मांँ के मन बहलाने वाले को उसने भगा दिया। 

   फिर भी वह निराश नहीं हुई थी। हमेशा कोई ना कोई जुगत लगाने की कोशिश में उसका दिमाग क्रियाशील रहता जिससे तोता की विदाई हो जाए उस घर से। 

   उस दिन सुबह जब लीला ने पिंजड़ा खाली पाया तो वह बेचैन हो उठी। उसका कलेजा फट पड़ा उसी प्रकार जैसे नंदू को दुनिया से विदा होने पर हुआ था। वह चीख पड़ी अचानक, “अंशु!… हरी रे!… कल पिंजड़ा तो खुला नहीं छोड़ दिया था तुमने।” 

   क्षण भर बाद फिर चीखी, “अरे अंशु!…” 

   अंशुल आंखें मलते हुए कोठरी से बाहर आ गया अपनी दादी की चीख सुनकर । 

आते ही उसने पूछा, “क्या है दादी?…” 

   “कल पिंजड़ा खुला छोड़ दिया था रे…” 

    ” नहीं दादी!… हमने तो कल हरि को बिस्कुट खिलाया… पिंजड़ा हमने नहीं खोला था दादी।” 

   इस शोर-गुल से कांति, चंदर और केशव की नींद टूट गई वे लोग कोठरी से बाहर निकल आए। 

   चंदर ने अपनी मांँ के पास जाकर पूछा,” क्या हुआ मांँ?… क्यों चीख  रही हो सुबह-सुबह।” 

    ” अरे!… हरि नहीं है… शाम को तो था पिंजड़े में…” कलपते हुए लीला ने कहा। 

   उसके चेहरे पर पीड़ा उभर आई थी। 

   पल भर चंदर मौन रहा फिर लापरवाही से हंँसते हुए उसने कहा, “मांँ!… तुम तो ऐसे कह रही हो जैसे कोई अपना आदमी खो गया हो ।”

   लीला दहकती निगाहों से उसे देखने लगी। 

     ” मांँ अगर तोता उड़ ही गया तो क्या हुआ? … एक दूसरा तोता ला देंगे” सांत्वना देते हुए नरम स्वर में चंदर ने कहा। 

   “उंगली भर का था हरी रे!… उसी समय से पोषकर बड़ा किया।… हमारा कलेजा फटता है रे!… “

 ” दूसरा तोता लाने से क्या होगा जी!… इनका तो दिमाग फिर गया है।… मांँ जी का प्राण तो उसी तोता में बसता था” तल्ख आवाज में कांति ने कहा। 

 “क्या  तोता-मैना का झंझट लगा रखा है उड़ गया तो उड़ गया, यह कौन नई बात है… क्या पंछी हमेशा पिंजड़े में रहता है?… अरे कभी न कभी तो उड़ ही जाता है। ” केशव जो अब तक अपनी पत्नी, बहू और बेटे की बातें मौन होकर सुन रहा था इस झमेले को टालने की नीयत से उसने कहा। 

 ” रात में बिल्ली म्याऊं- म्याऊं कर रही थी बाबूजी।… हो सकता है हरि जी को वही चट कर गई हो “कुटिल मुस्कान भी बिखेरते हुए कांति ने कहा। 

” ऐसा मत कह बहू!… मेरा मन नहीं मानता है कि हरि को बिल्ली खा गई होगी।” 

   “क्या तुम लोग छोटी सी बात को लेकर बहस कर रहे हो। बवाल मचा रहे हो।… जाओ तैयार हो न दुकान खोलनी है कि नहीं आज” रूखे स्वर में केशव ने चंदर को कहा। 

  ” सुबह से  मांँ जी नाटक कर रही हैं ।… हम लोग क्या कर रहे हैं ” मुंह बिचकते और हाथ नचाते हुए कांति ने कहा। 

   ” तू चुप रह!… जा काम पर लग… चूल्हा- चौका का सारा काम यूं ही पड़ा है” तीखी आवाज में चंदर ने फटकारा अपनी पत्नी को। 

   “हम पर आंँख लाल – पीला क्यों करते हो जी!… समझाओ न अपनी माँ को, जो तोता के लिए तमाशा लगाए बैठी है”  प्रत्युत्तर में कांति ने कहा ।

   घर का वातावरण गर्म होता जा रहा था। परस्पर आरोप- प्रत्यारोप से कटुता बढ़ती जा रही थी उत्तर- प्रत्युत्तर की चुभन से वे लोग तिलमिला उठे थे। दहकती निगाहों से देख रहे थे एक दूसरे को। 

   क्षुब्ध केशव घर से बाहर निकाल कर मैदान की तरफ चला गया और चंदर यह कहते हुए दुकान जाने की तैयारी में जुट गया कि एक पंछी के लिए तुम लोग लड़ मरो।

   घर के माहौल के तनाव की तपिश एकाएक घटने लगी जब अचानक अंशुल चिल्लाया, “हरि छप्पर पर है… छप्पर पर हरी बैठा है… “

   इस समय कांति अपने होठों में बुदबुदाई, ”  हुंह!… कैसा तोता है। पिंजड़ा खोलकर उड़ा देने पर भी नहीं भागा… लगता है मेरी मूरख सास के उस जन्म का बेटा हो।” 

   लीला खुशी से उछल पड़ी। वह दौड़कर आंगन में गई उसने देखा की हरी छप्पर पर बैठा उसे यूं देख रहा है मानो कह रहा हो, “मैं क्या करूंँ हमें तो भगा दिया… पिंजड़ा खोलकर जबरन बाहर कर दिया… मेरी गलती नहीं है। “

   लीला पल भर तरसती निगाहों से उसे देखती रही फिर उसने चुचकारते हुए कहा, “हरि!… आ जा!.. आ जा हरि!… आ जा सत्तू में चीनी मिलाकर देंगे खाने को…” 

   उसने क्षण भर बाद फुदककर थोड़ी दूरी तय किया छप्पर पर। 

   लीला हर्ष से पुलकित हो उठी हरि को आगे की ओर बढ़ता देखकर। स्नेह का सागर उमड़ने लगा उसके अंतस में उसने खुशी से लबरेज स्वर में कहा,” अरे अंशु!… पिंजड़ा ले आ!… “

   अंशु दौड़कर ओसारे में आया और पिंजड़े को फुर्ती से उठा लिया उसने। वह आगे दो कदम बड़ा ही था, कि कांति तेजी से आई और अंशुल के हाथ से पिंजड़ा छीन कर पटक दिया जमीन पर फिर दांँत पीसते हुए एक तमाचा रसीद कर दिया था उसकी गाल पर उसने। 

   लीला एक टक देखती रह गई अपनी उग्र बहू के चेहरे को लेकिन कुछ कह नहीं पाई। 

   क्षणांश बाद ही कांति का कर्कश स्वर गूंजने लगा, “दिन-रात यह लड़का तोता, मैना, कुत्ता, बिल्ली के साथ समय बर्बाद करेगा… परीक्षा में फेल हुआ न तो चमड़ी उधेड़कर रख दूंँगी… जा अपनी कोठरी में पढ़ाई कर!” 

   अंशुल  रोता हुआ कोठरी के अंदर चला गया ।

   कांति  के इस अप्रत्याशित व्यवहार ने लीला के अंतस्तल में उठते हर्ष के ज्वार – भाटे को दफन कर दिया। 

   पल भर उसने चोर निगाहों से कांति के चेहरे का मुआयना किया, फिर हिम्मत बटोर कर चल पड़ी आंगन से ओसारे की तरफ पिंजड़ा लाने के लिए ।

  सहमते हुए उसने पिंजड़ा उठाया ही था कि कांति की कर्कश आवाज सुनाई पड़ी, “इस घर को मैं चिड़यांखाना नहीं बनने दूंँगी बहुत दिन तक मनमानी चली आपकी, अब सहन नहीं करूंगी…” कहते हुए उसने कोने में रखे  हुए बांँस को लपक लिया था और चल पड़ी थी आंगन की तरफ। 

   उसके सिर पर जैसे जुनून सवार हो गया था। उसने बांँस छप्पर पर पटकना शुरू कर दिया। बांँस के प्रहार से बचने के लिए हरि छप्पर पर कभी इधर, कभी उधर भागने लगा। 

   हरि ने उस घर में अपना अस्तित्व कायम रखने के लिए काफी संघर्ष किया कांति के साथ, लेकिन क्रूर बहू का दिल नहीं पसीजा। वह अनवरत बांँस से उस पर प्रहार करने का प्रयास करती रही। 

   भयभीत हरी बांँस के आघात से बचने के लिए आकाश की ओर उड़ने लगा। 

   बेबस लीला भींगी आंखों से हरि को आसमान में उड़ते देखती रह गई। वह चाह कर भी कुछ कर पाने में असमर्थ थी। 

   उसके मुंह से अनायास निकल पड़ा, “हरि!… हरि!… छोड़कर हमको चला ही गया हरि। 

    प्रत्युत्तर में तोते की आवाज आई,” हरि!… हरि!… हरि!…” 

   लीला शून्य में देखती रह गई थी अपलक जब तक हरि ओझल नहीं हो गया था उसकी दृष्टि से। 

       स्वरचित 

       मुकुन्द लाल 

        हजारीबाग(झारखंड) 

         23-03-2025

          #  ‘स्नेह के बंधन’ पर आधारित कहानी

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