सुबह राधिका देवी की हृदयाघात से मृत्यु हो गई थी । उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होने सगे-संबंधी, मित्रगण और मुहल्ले वासी इकट्ठे हुए थे। उनके बेटे और बेटियों का रो-रोकर बुरा हाल था। सबकी आँखें उनके करूण-क्रन्दन से भीग चुकी थीं लेकिन ऐसे भी एक इंसान वहां मौजूद थे न तो वह रो रहे थे न ही कुछ बोल रहे थे पर एकटक राधिका देवी के चेहरे को निर्विकार भाव से देख रहे थे । मानो मूक वाणी में उनसे कुछ बात या शिकायत कर रहे हों।
तभी वहां उपस्थित एक बुजुर्ग उठे और परिवार जनों को ढाढस बंधाते हुए बोले विधि के विधान के आगे तो सब नत मस्तक हैं। लेकिन अंतिम संस्कार की सारी रस्में भी पूरी करनी है, उठो बेटी- जाओ । तब उनकी बड़ी बेटी श्रृंगार का सामान लेकर आई और रोते हुए उनका श्रृंगार करने लगी।
तभी किसी ने कहा- श्याम बाबू को बुलाइये वे उनकी मांग में सिंदूर भर दें। उनकी पत्नी भाग्यवान थीं, जो अखंड सौभाग्यवती थीं। बेटियाँ पहले तो अपने पिता से लिपट कर खूब रोईं लेकिन सिंदूर दान का रस्म भी तो पूरा करना था न , वे अपने पिता को सहारा देकर मां के पार्थिव शरीर के पास ले आईं ।
श्याम बाबू ने अपनी पत्नी की मांग में सिंदूर लगाया और फफक कर रोते हुए बोले- तुम हर वक्त मेरी हम सफर रही हो तो इस सफर में मैं तुम्हें अकेले कैसे जाने दूं। हमने हरदम साथ चलने का वादा किया था, तुम अपना वादा भूल गईं लेकिन मैं नहीं भूला हूं ऐसा कह श्याम बाबू अपनी पत्नी के माथे को चूमने के लिए झुक गए । जब वह बहुत देर तक नहीं उठे तो बेटियों ने रोते हुए उन्हें उठाने का प्रयास किया लेकिन यह क्या ?
उनके पिता तो उनकी मां के साथ “अंतिम-सफर” पर जा चुके थे। यहां तो उन दोनों का निर्जीव शरीर ही बाकी था । जिसने भी यह दृश्य देखा या सुना उनकी आंखें डबडबा गईं और दोनों की एक दूसरे के प्रति लगाव की तारीफें करते नहीं थक रहे थे।
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अब राधिका देवी के साथ श्याम बाबू के अंतिम- सफर की भी तैयारी की गई। दोनों “हमसफर” आज अपने आखरी सफर पर भी साथ ही निकले।
एक ही चिता पर दोनों का अंतिम संस्कार किया गया। उनके बेटे ने उन्हें मुखाग्नि दी ।
अंतिम संस्कार के बाद सब घर लौट आए और चौथे दिन श्रद्धांजलि का कार्यक्रम रखा गया ।
चौथे दिन के रस्मों को पूरा कर सभी आंगन मेें श्रद्धांजलि देने के लिए इकट्ठे हुए तब राधिका देवी और श्याम बाबू को नम आँखों से श्रद्धांजलि दी गई। सभी लोग दोनों के दांपत्य जीवन की तारीफ करते नहीं थक रहे थे।
तभी उनकी बड़ी बेटी कल्याणी ने बताया कि उनके माता-पिता ने अपने बच्चों को अपने जीवन की सारी बातें बताई थीं।
श्याम बाबू और राधिका की मां बचपन की सखि थीं। दोनों एक ही मोहल्ले में रहा करती थीं। माया और ममता साथ खेलीं, पढ़ीं और बड़ी होने पर दोनों की शादी एक ही गांव के एक ही मोहल्ले में हो गई। अब यहां दोनों की दोस्ती और भी गहरी हो गई। समय बीतता रहा।
कुछ समय बाद माया ने एक पुत्र को जन्म दिया। ममता उसे अपने बेटे के समान ही प्यार करती । ममता ने ही उसका नाम श्याम रखा था । श्याम जब दो वर्ष का हो गया तब माया ने एक बेटी को जन्म दिया। माया बोल पड़ी अब बच्ची का नाम मैं रखूंगी और उसने उसे गोद में लेकर बड़े ही लाड से राधिका पुकारा।
दोनों ही परिवार के लोग दोनों बच्चों को बहुत प्यार करते । एक ही समाज से संबंधित होने के कारण दोनों परिवार में आना-जाना और मेल मिलाप था ।
दोनों बच्चे साथ ही खेलते । धीरे-धीरे दोनों बड़े होने लगे साथ पढ़ाई भी करने लगे। अब श्याम अठारह वर्ष का तथा राधिका सोलह वर्ष की हो चुकी थी।
परिवार ने वालों कब दोनों की शादी करने का फैसला कर लिया । श्याम और राधिका को पता भी नहीं चला।
एक दिन दोनों की सगाई कर दी गई । कुछ समय बाद शादी भी हो गई। बचपन के साथी अब पति-पत्नी बन चुके थे । दोनों एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते । कोई भी कार्य एक दूसरे की सहमति और साथ के बिना नहीं करते । लोग दोनों की तारीफ करते न थकते।
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कुछ समय बाद सरला यानि मेरा जन्म हुआ उस समय भी दोनों सामंजस्य स्थापित कर कार्य करते रहे। फिर समीर और संध्या का भी स्वागत उन्होंने बड़े ही स्नेह से किया ।
उनके जीवन का ऐसा कोई भी कार्य नहीं था जहां वे दोनों साथ न हों। हमारे मुंडन से लेकर शादी हो या पढ़ाई से लेकर नौकरी । मां ने पिताजी की एक अच्छी और सच्ची हमसफर होने का फर्ज निभाया तो पिताजी ने भी उन्हें अंतिम सफर तक साथ दिया ।
कल्याणी से माता-पिता की बातें सुनकर वहां उपस्थित लोगों ने दोनों के जीवन को आदर्श जीवन बताया तथा सभी को उनसे प्रेरणा लेना चाहिए ऐसा कह कर उनकी तारीफ करते हुए अपने घर लौट गए।
लेखिका : साधना वैष्णव