hindi stories with moral :
खुमार प्रेम का…
कमलकिशोर को नयका से क्षमादान तो नहीं मिला पर आज वह यह समझ गये थे कि उनके जीवित रहते क्षृंगार त्यागी हुई पत्नी के मन के किसी कोने में वे जीवित हैं।
वह अपने हृदय से जानते थे कि वह नयका के और अपने बच्चों के अपराधी हैं। दरअसल जिस दिन वे चंदा को लेकर आये थे उसी दिन उन्होंने तेरह वर्षीय बेटे रघु के आंखो में जलती ज्वाला को देख लिया था। उसी क्षण वे कमजोर पड़ गये।
वह दिन और आज का दिन अपने ही बच्चों से संवाद को वह तरस गये थे।
कभी उन्होंने उससे कुछ कहने का प्रयास किया भी तो रघु ने उन्हें कभी जवाब नहीं दिया। सिर झुकाकर वहां से निकल गया।
इस अनबोले से वह दुखी तो रहते थे पर अपने कद से बड़े होते बेटे को देख वह सुखी भी थे। उनका यह बेटा उनकी प्रकृति का नहीं हुआ।
बड़ी कुशलता से अपनी अम्मा और अपनी छोटी बहनों को संभाल लिया था। जैसे-जैसे बडा होता गया, घर की खेती-बाड़ी की व्यवस्था से अपनी अम्मा को दूर रखता गया। शक्ल से हूबहू कमलकिशोर की प्रतिमूर्ति… वही कद-काठी, वही चाल पर स्वभाव से उनसे एकदम विपरीत। गंभीरता और मितभाषिता वह अपनी अम्मा का लेकर आया था और अपनी मां का ही बेटा निकला, ढूढ़ों भी तो कोई खोट न मिले।
आज सुबह से घर में कोई खट-पट सुनाई नहीं दे रही थी। आज तक उन्होंने नयका को देर सुबह तक सोते नहीं देखा था। गायें रंभा रहीं थीं। उन्हें चारा पानी नहीं मिला था। वे उठे, गायों के सार में जाकर चारा भूसा डालकर आये तो सामने ही रघु को देख हठात् कमलकिशोर के मुँह से निकला…बेटा…तुम्हारी अम्मा की तबियत तो ठीक है न। सूरज उगने को है और वह अभी तक उठी भी नहीं….
रघु की बेचैन नजर सार के हर कोने में घूम रही थी। यहां अम्मा तो कहीं नहीं है। इतना देर तो अम्मा कभी की ही नहीं है।
देखता हूं…कहकर रघु तेज कदमों से अम्मा के कमरे की तरफ दौड़ पड़ा।
कमलकिशोर को विश्वास नहीं हुआ कि इतने सालों बाद बेटे ने उनकी बात का कोई जवाब दिया है।
कान तरस गया था कि बेटा उनसे कुछ कहे। चाहे कितनी भी उनसे अपनी शिकायत करे। उनके ही मुंह पर उन्हें कोसे पर मौन तो न रहे।
बेटे और पत्नी का यह मौन ही उन्हें तोड़े दे रहा था। उनके तन को कोई रोग नहीं था पर मन के वे रोगी हो गये थे। उन्होंने गलती की है। वह स्वीकार भी करते हैं।
अच्छा होता कि उमा और रघु उनका तिरस्कार करते, शिकायत करते, झगड़ते, कोसते तो दिल का बोझ कुछ कम तो होता लेकिन उन्होंने तो जैसे पूर्णतया उनका परित्याग कर दिया। अपना यह परित्याग ही उनको शूल जैसे चुभता है। एक पल में उनकी अपनी दुनिया पराई हो गई थी।
आज उनका होना न होना उनके लिए कोई मायना नहीं रखता है। यह दुस्सह दुख ही उनकी पीड़ा थी। वह दिल से मानते थे कि यही उनके कर्मों का फल है।
उनका मन कातर हो गया। वह अपनी माई के दोषी हैं। अपने बच्चों के दोषी हैं। अपनी पत्नी के दोषी हैं।
मन ढ़ूंढ़ रहा था उमा को, उसे कुछ हुआ तो नहीं…
सिर झुकाए वह कमरे में आये, देखा कि चंदा
कमर पर हाथ रखे जैसे उन्हीं का इंतज़ार कर रही थी।
कहाँ गये थे दुबेजी। अपनी मेहरारू की चिंता लगी है। भोरे-भोरे देखे नाहीं चांद सा मुखड़ा। दिल कसक रहा है। हे भगवान…मैं तो ठगी गई। जाने क्या देखा था तुममें। काहे चली आई तुम्हरे संग। सोचा था कुछ सुख मिलेगा पर मालूम नहीं था कि जिसको मरद समझी, वह तो बेकार निकला। अरे, इतनी ही पियारी थी वह गुलबानो तो काहे हमरी डेहरी में आ के मरे थे।
कमलकिशोर की आंखों में नमी उतर आई।
इस फूहड़ सी औरत के लिए उन्होंने यह नर्क मोल ले लिया था। आज इसका विश्वास करना उन्हें कठिन लगता था।
जाने जवानी की वह कौन सी प्यास थी कि
घर के गंगाजल को छोड़कर नाले में डुबकी लगाने चले गए थे।
पर बीते दस सालों में अब वह इन सबसे एकदम विरक्त हो चुके थे।
तो तुमको रोका किसने है। चली जाओ वापस। काहे नरक भोग रही हो। जाओ वहाँ जहाँ से आई हो। मैं नहीं रोकने वाला…
ये शब्द ही चंदा की दुखती रग थे। जहाँ से आई थी, वहाँ तो तब भी कुछ नहीं था।
यहाँ मान के सिवाय आसान जिंदगी तो थी। वह डरती थी कि सच में कहीं हाथ पकड़कर घर से निकाल ही न दें। उसके पक्ष में खड़ा होने वाला यहाँ और वहाँ या कहें कि पूरी दुनिया में कोई नहीं था।
मुँह बिचका कर उसने कहा …हूँह…और बेवजह अपनी दोनों सोते हुए बेटियों को झंझोड़ कर जगाने लगी।
सुबह-सुबह ही कमलकिशोर को लगने लगा कि वह बेहद थक गए हैं। वह आंगन में निकलकर बड़े से नीम के पेड़ की छांव में लगे खाट पर आकर ढ़ह से गए।
तभी उनके कानों में रघु की आवाज आई जो रूनझुन को पुकार रहा था…अरे रूनझुन देखो तो अम्मा को ज्वर हो गया है। तुलसी अदरक का काढ़ा तो बना लाओ…
तभी नयका की आवाज सुनाई पड़ी।
अरे नाहीं बिटवा…देखो हमको छूकर। कोई ताप-वाप हमको नहीं चढ़ा है। रात जरा देर से आंख लगा। हे भगवान, दिन चढ़ आया है।अरे…जरा गाय को भूसा डाल आयें, बेचारी हमारी राह तक रही होंगी।
लेटी रहो अम्मा, बाबू ने डाल दिया है भूसा गायों को। आज कसम है हमारी तुम्हें।
आज सारा दिन आराम करोगी।
सारा दिन हटर-हटर करती रहती हो।
अपनी जान की दुश्मन आप स्वयं बनी बैठी हो। सुन रही हो न रूनझुन, आज सब संभाल लेना। अम्मा को कुछ करने न देना।
नयका की आवाज़ आई…अरे बिटवा, हमका कुछ न हुआ है। तुम बेकार ही चिंता कर रहे हो।
कमलकिशोर ने देखा कि चंदा आंगन की दीवार से कान लगाए सब कुछ सुन रही थी। उन्होंने सोचा, यह तो उसकी रोज की ही आदत है।
कमलकिशोर नीम के पेड़ की छांव तले रखी खाट पर लेट गये। आंखें मूंद लीं। अधनींद की अवस्था में उन्हें यह क्या दिख रहा है।
गांव का रेलवे स्टेशन…
जब वह गौना कराके उमा को लेकर रेलवे स्टेशन पर पहुंचे थे। वहां से कमलकिशोर का गांव दो कोस की दूरी पर था।
माई ने दो छकड़ा उन्हें लेने के लिए स्टेशन पर भेजा हुआ था।
छुई-मुई सी चौदह वर्षीय बालिका वधू को हाथ का सहारा देकर छकड़े पर चढ़ाते हुए कमलकिशोर रोमांचित हो उठे।
अठारह वर्षीय सुदर्शन दूल्हा के आंखों से दप-दप झरते सपने पर पहला तुषारापात तभी हो गया जब देखा कि छकड़े पर घूंघट में उनकी बड़ी भाभी पहले से विराजमान थी जो नईं बहु को साथ लाने के लिए माई ने भेजा था।
जब कमलकिशोर ने स्वयं साथ जाने के लिए छकड़े पर चढ़ने का प्रयास किया तो मना करते हुए भावज ने परिहास किया…
अरे कहाँ चढ़े आ रहे हो देवर बाबू, तुम्हारी दुल्हनिया का हरण करने ही हम आए हुए हैं। तुम तो बस पीछे-पीछे आओ। दुल्हिन का सामान रखवा दो इस छकड़े पर और घर पहुंच मिलो।
कमलकिशोर का मुंह छोटा सा हो गया।
कहां तो वह कस्बे में भाग-भागकर देखे हुए फिल्मों के जाने कितने डायलॉग याद किए हुए थे जो उन्होंने रटे हुए थे। सोचा था कि दुल्हिन का कोमल हाथ अपने हाथों में ले वह धाराप्रवाह कह ही देंगें कि पिछले एक साल के उनके वियोग में वह जोगी हुए जाते थे।
पिछले एक साल से अपने मन-मंदिर में उन्हें बिठाकर वह रोज उनकी पूजा करते थे।
पर सारा सपना उनकी आंखों के आगे धड़ाम हुआ जाता है…
हाय…यह भौजी भी न, उनकी अनारकली का हरण कर रही है और वह शील-संकोच के मनों पहाड़ के नीचे दबे जा रहे थे।
तभी भौजी ने उनके गालों की एक चुटकी काट दी। दुखी न हो देवर बाबू…दुल्हिन तो तुम्हारी ही है बस अभी ही नहीं मिलेगी। जब हमारी बहुत सुपारिस करोगो तो हम बहुत तरसायेंगे नहीं, मिलवा देंगे।
तब-तक दूसरे छकड़े पर साथ का सारा सामान चढ़ाया जा चुका था।
बड़के बाबू ने हांक लगाई…ए कमल…इस छकड़े पर बैठ जा भइया।
हम सब भी पीछे-पीछे घर पहुंचते हैं।
कितना दुख हुआ था कमलकिशोर को। हाय…भौजी को माई ने क्यों भेजा, और भेज ही दिया था तो भौजी काहे नहीं दूसरे छकड़े पर बैठ गईं। उमा के साथ तो उन्हें ही बैठना था न।
वे इसी मनोंभाव में डूबे हुए थे कि भौजी ने फिर परिहास में जीभ निकाल चिढ़ा दिया और हाथ हिला दिया।
तब तक छकड़ा को गाड़ीवान ने हांक लगा दिया और छकड़ा रेंगने लगा और हाय…कमलकिशोर को लगा कि छकड़े का पहिया तो उनके दिल को रौंद आगे बढ़ रहा।
उन पुराने दिनों को सजीव होते देख रहे थे कमलकिशोर, और सोचते-सोचते कमलकिशोर के होठों पर एक सुंदर सी स्मित मुस्कान छा गई।
क्या दिन थे तब। गांव के समव्यस्क लड़कों का उनका अपना समूह था। सभी दो कोस दूर गांव के माध्यमिक विद्यालय में पढ़ते थे। जहाँ से कभी कभार भागकर पास के कस्बे के इकलौते टाकीज में सिनेमा देखते थे। दिलीप कुमार, राजेंद्र कुमार, शशि कपूर के जैसे स्टाइल अपनाने का प्रयास करते थे। मधुबाला, सायरा बानो, साधना जैसी हिरोइनों के दीवाने थे।
पढ़ने लिखने का कोई बोझ किसी के सिर था नहीं। पास हुए तो बढ़ियां, नहीं हुए तो कोई दुख नहीं। नौकरी तो करना था नहीं… कमोबेश सभी के घर की जोत इतनी थी कि बढ़ियां गुजर-बसर हो जाती थी। सबको खेती-कृषि ही करना था।
तिस पर सभी पितआऊर भाई ही थे और भाई थे तो बालिग, नाबालिग भौजाइयां भी तो थीं। गांव के रिवाज के अनुसार सभी पंद्रह-सोलह साल तक ब्याहे ही जाते थे।
बड़ों से उन सभी की एक दूरी थी लेकिन आपस में सभी कच्ची समझ के लोगों का जमावाड़ा था। भौजाइयां घूंघट में रहतीं थीं… अकेले किसी से किसी का मिलना-जुलना नहीं था लेकिन फिर भी देवरों से हास-परिहास तो चलता ही रहता था।
अब देखे हुए फिल्मों के प्रेम-प्रसंग, और भौजाईओं के फूहड़ मजाक-कटाक्ष कमलकिशोर को मदमस्त किए हुए थे। नये-नये आए मूछों की रेखा उन्हें मर्द होने के अहसास में लपेटे हुए थीं।
किशोरावस्था में ज्यादा समझ तो होती थी नहीं। अब प्रेम की कपोल-कल्पित दुनिया भी सामने थी और कमलकिशोर आतुर हो रहे थे कि वे सोने के दिन-चांदी की रातों के फोटो फ्रेम में कैद प्रेम को उमा पर उड़ेल ही दें।
उन्हें जल्दी थी, और इतनी जल्दी थी कि सब्र का दामन उनके हाथों से छूटा जा रहा था….
क्रमशः …..
हमारी नयका (भाग-6)
हमारी नयका : एक अव्यक्त प्रेम कहानी(भाग-6) – साधना मिश्रा समिश्रा : hindi stories with moral
हमारी नयका (भाग-4 )
हमारी नयका : एक अव्यक्त प्रेम कहानी(भाग-4) – साधना मिश्रा समिश्रा : hindi stories with moral
साधना मिश्रा समिश्रा
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