हल्दी वाला दूध – कंचन श्रीवास्तव

 

जैसे ही रेखा ने कमरे में प्रवेश किया,कल गिरने पर ज्यादा लगी तो नहीं वहां बैठे सभी ने उससे पूछा।

तो उसने कल की ही घटना के साथ साथ एक और बार की घटना का भी जिक्र किया।उसने बताया कि ” ज्यादा तो नहीं लगी, के थे हुए उस बार तो पति देव ने करवट बदल लिया था, इस बार तो शाम का वक्त था और वो भी साथ थे ,पर ज्यादा लगी तो नहीं ,  ये कहते हुए रेखा के चेहरे पे जो भाव उभरा वो  देखने लायक था।

खैर जिसे समझना था वो समझ गए,बाकी तो सुनकर कोई अफसोस ,तो कोई आश्चर्य ,और कोई मुंह बना कर निकल गया।

पर जिसने उसके भावों में दर्द को महसूस किया, वो कोई और नहीं एक स्त्री थी।

क्यों न महसूस करती, आखिर कहीं न कहीं वो भी , नहीं- नहीं वो ही क्या? सभी स्त्री जाति इस दर्द से कराहती है। पर कहती नही ,वो! इस लिए की कोई समझने वाला  नही होता।

बस सभी को अपनी जरूरत से मतलब होता है, आखिर क्यों ना रेखा ऐसा महसूस करें।घर ,बाहर,हाट बाजार सभी की तो जिम्मेदारी है उस पर कैसे सुबह चार बजे से चकरघिन्नी की तरह चलने लगती है तो रात बारह बजे ही आराम नसीब होता है।

जिम्मेदारी अधिक और आमदनी कम होने की वजह से वो चार पैसे कमाने में लगे गई,जब इसमें भी लगी तो काम और भी बढ़ गया।



फिर तो उसे दम मारने की भी फुर्सत नहीं मिलती।

वक्त के साथ रोमांस,रूठना, गुस्साना,सब जाने कहां रफूचक्कर हो गया।

उसे याद भी नहीं कि कब आखिरी बार राम के संग बैठकर उसने चाय पिया है।

बतियाना और अनुनय करना तो छोड़ दो।

अब तो बस बात भी होती है ,तो हिसाब किताब,फीस ड्रेस वगैरा वगैरा वो भी किचन से बैठक के बीच।

वो इसलिए कि एक तो दोनों की नौकरी ऐसी है कि मिलते नही और मिलकर बतियाते भी हैं तो वो रसोई से बोलती है और वो चाय की चुस्कियां लेते लेते बैठक से हूं में हामी भरता रहता है।फिर करना तो अपने मन का होता।

वो भी वक्त और समय पर निर्भर होता।



अब इसी को लेके कभी कभी कहा सुनी भी हो जाती।

पर वो, एक चुप हजार बला टली का फंडा अपनाए एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देता।

पर आज तो हद ही हो गई। जब आधी रात को गुसलखाने में फिसल कर गिरी तो संभलने की जगह बेहोश होकर गिर गई।

अब गिरी तो सन्नाटे में भला उसे उठाने वाला कौन घंटे भर बाद होश आया तो कैसे भी हिम्मत करके बेडरूम तक पहुंची। और राम को हिलाकर जगाते हुए बोली मैं गिर गई हूं।

उठिए। मैं गिर गई हूं तो वो हड़बड़ा कर उठने की जगह नींद में ही बोला अच्छा……… लगी तो नहीं।

जिसे सुन इसे धक्का लगा।

कि अरे इन्हें तो कोई फर्क ही नहीं पड़ा तो क्या मैं सिर्फ खटने के लिए बनी हूं,कोई मेरी परवाह नहीं करता। रिश्ते सब स्वार्थ के है

और दूसरे ही पल सारे शिकवे भुलाकर आत्मविश्वास के साथ उठी और  हर स्त्री को थोड़ा खुद के लिए भी जीना है  सोचा स्वयं ही हल्दी वाला दूध बनाने किचन में चली गई।

आज की इस घटना ने उसे सोचने पर मजबूर कर दिया कि खुद का भी खुद पर हक है और हर किसी को अपने लिए भी जीना चाहिए।

कंचन श्रीवास्तव आरजू

 

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!