गोपाल प्रसाद की आँखें उस दिन भीग गईं जब बहू मेघना ने उनके हाथ से छीनकर पूजा की थाली उलट दी। “ये ढकोसला बंद करो बाबूजी! मैं इस घर को 21वीं सदी में ले जाऊँगी” वह चिल्लाई।
मेघना आईआईटीयन थी – उसके लिए संस्कार ‘मिथ’, पूजा ‘टाइम वेस्ट’ और सास-ससुर ‘आउटडेटेड सॉफ्टवेयर’ थे। गोपाल प्रसाद की पत्नी कमला देवी रोज मंदिर में भगवान से कहती- “हे राम! मेरी तो तकदीर ही फूट गई जो ऐसी बहू आई।” उसकी आंखों में आंसू देखकर पुजारी जी उसे समझाते हुए कहते, ” सब समय का फेर है बेटी। जी छोटा मत कर ईश्वर सब ठीक करेंगे जिसने दुख दिया है वह सुख का सवेरा भी अवश्य लाएगा।” पंडित जी की ऐसी बातें सुनकर कमला देवी के हृदय को आश्वासन मिलता और वह सोचती ईश्वर सब ठीक कर सकते है, वे ही मेरी बहू की मति को ठीक करेंगे।
एक सर्द रात में गोपाल प्रसाद ने मेघना को अपनी 50 साल पुरानी डायरी दिखाई, जहाँ उनके पिता ने लिखा था – “संस्कार वह सूत्र हैं जो पीढ़ियों को धागे में पिरोते हैं।” इसे पढ़कर मेघना हंसने लगी, “ये सब इमोशनल ब्लैकमेल है बाबूजी! आप मुझे ये दिखाकर क्या जताना चाहते है?
यही की मैं कितनी बुरी बहू हूं। आपको यह समझना होगा कि हर किसी के अपने विचार होते है कोई धर्म में आस्था रखता है कोई नहीं। मैं हर समय घंटी बजाने और राम-राम जपने को पाखंड मानती हूं। जिस तरह मैं आपको गलत लगती हूं मेरी दृष्टि में आप गलत है जो ढोंग करते है सबसे अच्छे बनने का। एक दिन मैं आपको बदलकर ही रहूंगी।” यह सुनकर गोपाल प्रसाद की आंखों में नमी आ गई थी।
वे अपनी आंखों के कोरो को पोंछते हुए बोले, ” बहू बड़ों को इज्जत देना, उनकी सेवा-सत्कार करना, पूजा पाठ करना ये हमारे संस्कार है जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलते आ रहे है। इसी से परिवार में संतुलन व आपसी सामंजस्य बना रहता है। जो एक खुशहाल परिवार की नींव है। तुम अभी यौवनावस्था में हो तुम्हारे शरीर में शक्ति है। बहुत पढ़ी लिखी भी हो इस सब से तुममें अहंकार आ गया है
पर ये सब उस ईश्वर की देन है वो अगर न चाहे तो इस संसार में एक पत्ता भी न हिले और तुम उसकी शक्ति पर शंका कर रही हो। ईश्वर में आस्था का कोई विकल्प नहीं होता। तुम्हें समझना होगा तभी तो तुम अपनी बच्ची को अच्छे संस्कार दे पाओगी, नहीं तो संस्कारविहीन होकर व्यक्ति कही का नहीं रहता। तुमने कभी अंगूरों के गुच्छे से टूटे हुए अंगूरों को देखा है उन्हें कोई नहीं खरीदना चाहता। बहू हमारे संस्कार अंगूरों का वही गुच्छा है, यदि इससे टूटे तो बिखरना ही नियति है।”
“बस कीजिए बाबूजी आपका ये प्रवचन, आज तो आपने हद ही कर दी। मेरी बेटी को भी इस सब में घसीट लिया। आपने दिखा दिया कि अपनी बात को सही सिद्ध करने के लिए आप लोग किसी भी हद तक जा सकते है।” उस दिन के बाद गोपाल प्रसाद और मेघना के मध्य एक अदृश्य खाई की उत्पति हो गई थी।
जिसमें खामोशी थी अब न तो बहू उन्हें कुछ कहती न ही गोपाल प्रसाद अपनी बहू को कुछ समझाते। उन्होंने सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दिया था। दिन बीतते रहे। निर्णायक मोड़ तब आया जब मेघना की 5 साल की बेटी ने दीपावली पर दीया जलाने से मना कर दिया – “मम्मी तो कहती है कि पूजा-पाठ सिर्फ अंधविश्वास है।” उस क्षण मेघना को एहसास हुआ कि वह न सिर्फ परंपराएँ तोड़ रही थी, बल्कि पीढ़ियों का भावनात्मक संबंध भी विच्छेदित कर रही थी। मेघना ने बड़े प्यार से अपनी बेटी को समझाया कि दीप जलाने से घर में समृद्धि आती है और उजाला भी तो होता है। आपको अंधेरा पसंद है या उजाला। उसकी बेटी ने मोमबत्ती जलाते हुए कहा,”उजाला।” सभी हंसने लगते है।
अगले दिन, मेघना ने कमला देवी के साथ माँ सरस्वती की प्रतिमा सजाने में मदद की। गोपाल प्रसाद की आँखों में खुशी के आँसू आ गए थे जब मेघना ने उनके पांव छूते हुए कहा – “माफ करना बाबूजी… मैं नदी के एक किनारे को तोड़कर दूसरा बनाना चाहती थी। पर नदी तो दोनों किनारों से ही बनती है न?”
डॉ. इन्दुमति सरकार