गुरु दक्षिणा – भगवती सक्सेना गौड़

वीरेन एक उच्च अधिकारी कुछ काम से अपने बचपन के शहर जा रहे थे, प्लेन तेज़ी सी आकाश में उड़ रहा था और वो बचपन की सारी यादों को चलचित्र की भांति आकाश के स्क्रीन पर देख रहे थे। अम्मा एक मास्टरजी के यहां घर का काम करती थी, कभी उसको भी ले जाती थी।

एक दिन पूछ बैठे, “क्या बाई, तुम्हारा ये बेटा पढ़ता है या नही।”

“नही, साहब, किसी तरह दो जून की रोटी कमाते हैं, फीस कॉपी का खर्च कैसे करेंगे।”

“क्या नाम है, बेटा, कल से रोज शाम को मेरे पास आओ।”

और उस दिन से मास्टरजी ने वीरेन को जो पढ़ाना शुरू किया, अपने खर्चे पर स्नातक तक पढ़ाई करवाई।

माटी कैसी भी हो, शिल्पकार अगर कलाकारी है, तो वो रंग जरूर निखरेगा। फिर सरकारी परीक्षा के फॉर्म भरकर हर परीक्षा में अव्वल दर्जे से पास होते हुए आज एक अधिकारी बन चुके थे। शादी हो चुकी थी।

उसी समय अनाउंसमेंट हुआ, उसका शहर आ चुका है। मन ही मन वीरेन ने फैसला किया, पच्चीस वर्ष बाद आया हूँ, मास्टरजी के घर जाऊंगा।

दूसरे दिन ही अपने गुरु से मिलने उन के घर गए तो दरवाजा यूँ ही भिड़ा था, बहुत बुरी हालत में एक अंधेरी कोठरी में उनको रोते हुए पाया।


“अरे क्या हुआ आपको, सर ?”

“मत पूछो बहुत बुरा हाल है, पार्वती पिछले वर्ष स्वर्ग सिधार गयी, बेटा बहू, नौकरी करते हैं। सुबह रसोइया खाना बनाकर रख जाता है, अभी दोपहर को मैं खड़े होना चाहता था, गिर गया, किसी तरह बिस्तर पर लेट ही पाया, अब उठने में डर लग रहा है, भूख लग रही, पर क्या करूँ। शाम को आएंगे सब।”

वीरेन इस हाल में मास्टरजी को देखकर सकते में आ गया, हे, राम मुझसे कितनी बड़ी गलती हो गयी, मेरे जीवन के कर्णधार की मैंने कोई खबर नहीं ली।

बोले, “बिल्कुल चिंता न करे, मैं आपका वीरेन बेटा आ गया हूँ, अब मैं आपको लेकर जाऊंगा। हमने ही एक चैरिटी पर वृद्धाश्रम खोला है दिल्ली में, हर हफ्ते हम अधिकारी सब चेक करने जाते हैं, सबके साफ सुथरे अलग कमरे हैं, मंदिर भी बना है। अब आप यहां नही रहेंगे।”

“लीजिए, पहले तो मैं आपको खाना खिलाता हूँ। फिर अपने बेटे के आफिस का नंबर दीजिए, बात करूं।”

वीरेन ने बेटे के सामने मास्टरजी से पूछा, “आप बताइए, मेरे साथ चलेंगे या यहां रहेंगे।”

“मुझे ले चलो”

वीरेन अपने साथ मास्टरजी को ले आये, और बेटे को अपना कार्ड देकर कहा, जब मिलना हो आते रहना, मेरा गुरु दक्षिणा देने का वक़्त आ गया है, मैं इनको पूरा समय दूंगा।


वैसे तो करीबी रिश्तों में अब जितने किलोमीटर की दूरी होती है, मन उससे भी दूर पहुँच जाता है, क्योंकि हर कोई अपने जीवन की उलझनों को सुलझाता रहता है। कभी कभी यूँ महसूस होता है मन के रिश्तों की अहमियत खून के रिश्तों से कहीं ज़्यादा हो गयी है।

स्वरचित

भगवती सक्सेना गौड़

बंगलोर

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