एक मन हुआ कि पार्क में बैठी उसकी हमउम्र सहेलियों से पूछ ले कि.. “आखिर दो दिनों से वह कहां गुम हो गई है?”
फिर रुक गया यह सोचकर कि कहीं मेरी इस जिज्ञासा का कोई गलत मतलब ना निकाल ले।
उम्र की ढलान पर ही सही लेकिन है तो औरतें ही,.और उसका उससे कोई दूर या पास का रिश्ता भी तो नहीं था।
एक दूसरे से आमना-सामना होने पर एक हल्की मुस्कान के साथ “नमस्ते” का ही तो सिलसिला था, वह भी हर रोज नहीं कभी-कभार!लेकिन एक दूसरे को रोज पार्क में देखना सहज लगता था।
उसका वह पहला “नमस्ते” उसे याद हो आया जो उस “गुमशुदा” की तरफ से ही था वह भी पूरे ₹500 चुकाने के बाद।
उसे अच्छे से याद है यहां इस कॉलोनी में अपने खुद के मकान में शिफ्ट हुए अभी कुछ दिन ही हुए थे कि बेटा जॉब के सिलसिले में बहू संग कुछ वर्षों के लिए विदेश चला गया था।
पत्नी के गुजरे तो एक अरसा हो चुका था इसलिए उसने अकेलापन दूर करने के ख्याल से एक कुक और घर की देखभाल करने के लिए एक परमानेंट सहायक रख बेटे को अपनी तरफ से निश्चिंत कर दिया था।
रोज सुबह शाम कॉलोनी के पार्क में जाना भी उसने अपनी दिनचर्या में शामिल कर लिया था।
उस दिन सहायक अपने किसी काम से शहर से बाहर गया था और कुक भी देर से आने वाला था।
अतः घर के हॉल और मेन गेट पर ताला लगा वह चाबियों का एक गुच्छा अपने साथ लिए पार्क आ गया था।
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किंतु घर वापस जाते वक्त वह गुच्छा वही बेंच पर छूट गया था,.आदत जो नहीं थी यूं चाबियों को ढ़ोने की।
चाबियों का होश उसे तब आया जब सामने मेन गेट पर ताला लटका पाया, भागकर पार्क के उस बेंच तक पहुंचा था किंतु वहां कोई चाबी का गुच्छा नहीं था और ना ही कोई बताने वाला।
उसने बिना किसी को कुछ कहे ऑनलाइन की-मेकर को बुला ₹500 देकर मेन गेट और हॉल का ताला खुलवाया था।
चाबियों का दूसरा गुच्छा तो हाल में ही खूंटी पर लटका था, किंतु गुम हुए चाबियों की चिंता ने उसे रात भर सोने नहीं दिया था।
सुबह होते ही वह पार्क के उसी बेंच के आसपास की जमीन पर गुच्छे को ढूंढने की कोशिश में बेंच से लेकर मिट्टी तक की खाक छान रहा था।
तभी किसी ने बड़े सहज भाव से “नमस्ते” कहा था।
चेहरा जाना पहचाना था क्योंकि पार्क में लगभग रोज ही वह अपनी हमउम्र दादी-नानी बन चुकी सहेलियों संग कभी टहलती, कभी बेंच पर और कभी घास पर बैठ घर परिवार और कभी योग व्यायाम की बातें करती दिख जाती थी।
वक्त ने मांग का सिंदूर और माथे की बिंदी भले ही छीन लिया था लेकिन चेहरे पर मधुर मुस्कान बरकरार थी।
“जी कहिए?”
परेशान हालत में वह उसके अभिवादन का जवाब भी सवाल में दे गया था
लेकिन उसने हाथ में रखी चाबियों का गुच्छा आगे बढ़ा दिया था।
“अरे!.यह आपको कहां मिला?”
उसके आश्चर्य और खुशी का ठिकाना न था।
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“आप इसे कल यही छोड़ गए थे बेंच पर।” वह मुस्कुराई थी।
“हाँ!..मुझे भी यकीन था कि यह यही छूटा था।”
वह खुद को तसल्ली दे रहा था।
“यहां से घर जाते वक्त यह चाबियां मुझे इस बेंच पर दिख गई थी लेकिन आप आसपास कहीं नहीं दिखे,. इसलिए मैंने इसे अपने साथ ले जाना ही बेहतर समझा था।”
वह सहज भाव से कह रही थी और वह चाबियों का गुच्छा मुट्ठी में पा सुकून के साथ मुस्कुरा रहा था।
“चाबियों के गुम हो जाने से आपको असुविधा तो बहुत हुई होगी,.लेकिन इन्हें यहां ऐसे ही छोड़ भी तो नहीं सकती थी।”
उसने अफसोस के साथ चिंता जताई थी।
“नहीं,. नहीं ऐसी कोई असुविधा नहीं हुई।”
उसने भी उसे चिंता मुक्त करने की कोशिश की थी ।
“अब मैं चलती हूँ!.मैंने आपकी अमानत आपको लौटा दी है आप इनका ख्याल रखिए।”
उसने महसूस किया इतनी सहज और निश्छल मुस्कान देखें हुए उसे एक अरसा बीत गया था।
वह कुछ कदम आगे जा चुकी थी तभी अचानक उसे कुछ याद हो आया था।
“सुनिए,”..
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“जी!.आप कुछ कह रहे थे? उसने पलट कर देखा था।
“जी, नमस्ते!.वह असल में आपके नमस्ते का जवाब उस वक्त मैं दे नहीं पाया था।”
उसकी बात सुन वह हंस पड़ी थी और वह भी मुस्कुराया था। खैर अब तो जब भी पार्क में दोनों आमने-सामने होते वह उसे “नमस्ते” जरूर कहता।
अभिवादन का जवाब वह भी देती थी।
वक्त यूं ही कट रहा था, उस नए माहौल में भी उसे कोई अपना सा लगने लगा था।
कई महीनों से सुबह पार्क से लौटने के बाद वक्त शाम के इंतजार में कैसे कट रहा था पता ही नहीं चल रहा था लेकिन इन दो दिनों में जिंदगी बोझिल सी हो गई थी।
उसने महसूस किया सांझ का उजाला कम हो रहा था,रात अपनी बाहें पसार रही थी। लोग जा चुके थे पार्क पूरी तरह से खाली हो चुका था।
वह अपनी सोच में फैले उसके इंतजार को समेट उठ कर जाने को हुआ लेकिन पार्क से निकलते ही पांव घर की तरफ न जाकर उस गली की ओर मुड़ गए जिधर से वो अक्सर आती-जाती दिख जाती थी।
दो-तीन मकान को पार कर मोड़ से होकर रास्ता कॉलोनी के मेन रोड से मिल जाता था।
लेकिन उस मोड़ पर स्थित एक मकान के सामने आज कुछ भीड़ सी लगी थी। एक एंबुलेंस भी खड़ा था।
स्ट्रीट लाइट की रोशनी में सफेद कपड़े से ढका हॉस्पिटल का स्ट्रेचर दूर से ही नजर आ रहा था शायद किसी की लाश आई थी और लाश को घर के भीतर ले जाने से पहले कुछ तैयारियां चल रही थी ।
थोड़ा करीब जाने पर रोज पार्क में दिखने वाले कुछ महिलाएं भी उसे भीड़ में नजर आई।
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उसके कदम तनिक तेज हो रहे थे शायद उस भीड़ में वह “गुमशुदा” भी दिख जाए!.इस उम्मीद के साथ वह भीड़ के नजदीक पहुंचा और भीड़ में मौजूद एक-एक चेहरे को गौर से देखता हुआ वह स्ट्रेचर पर पड़े लाश के एकदम करीब कब पहुंच गया उसे पता ही नहीं चला।
घर के भीतर लोगों की भीड़ ना बढ़े यह सोचकर किसी ने लाश के चेहरे से कफ़न थोड़ा सरका दिया..और इसके साथ ही उसे वह “गुमशुदा” नजर आई। एकदम शांत-चित्त चेहरे पर निश्छल मुस्कान के साथ,..मानो “नमस्ते” कह रही हो।
“आखिर यह हुआ कैसे?”
आज वह फिर उसके अनकहे अभिवादन का जवाब देने की जगह उससे मन ही मन सवाल कर बैठा था।
“दो दिन पहले इन्हें कार्डिक अरेस्ट आया था,.इमरजेंसी में रखने के बावजूद डॉक्टर इन्हें बचा नहीं पाए।”
भीड़ में मौजूद कोई किसी को बता रहा था।
लाश घर के भीतर जा चुकी थी और वह कुछ देर तक बुत बना वही खड़ा रहा। कदम खुद-ब-खुद कॉलोनी के मेन रोड़ से होते हुए कब घर के दरवाजे तक पहुंच गए थे उसे खबर नहीं।
हॉल में पहुंच खूंटी पर टंगे उन चाबियों के गुच्छे को उसने बड़े गौर से निहारा और खूंटी से उतार उसे अपनी मुट्ठी में भींच फफक कर रो पड़ा।
उन चाबियों को खोने से बचाने के बहाने,..उसकी बोझिल जिंदगी को “नमस्ते” के सिलसिलेे में उलझाकर सुखद अहसास कराने वाली, उसकी अनकही मित्र हमेशा के लिए खो गई थी।
अब उसके लिए वक्त काटना बहुत मुश्किल था क्योंकि इंतजार खत्म हो चुका था, “गुमशुदा” मिल गई थी।
पुष्पा कुमारी “पुष्प”
पुणे (महाराष्ट्र)