“कुसुम! एक साल हो गया, क्या तुम्हें माँ से मिलने का मन नहीं कर रहा है? हाँ भाई अब मैं किस काम की रही, बूढ़ी जो हो गयी हूँ।”
कुसुम अपनी माँ की उलाहना सुनकर बड़े प्यार से उसे समझाने की कोशिश करने लगी।
“ ऐसी बात नहीं है माँ। जब से पैर का ऑपरेशन हुआ है तब से कहीं आना- जाना थोड़ा मुश्किल हो गया है। दिवाली बाद आऊँगी तुम से मिलने।”
गिरने से पैर की हड्डी बुरी तरह से टूट गयी थी। ऑपरेशन के बाद थोड़ा बहुत चलना हो जाता है,लेकिन सीढियाँ वगैरह से परहेज था।
पिता के अवसान के बाद माँ अब भाई के पास रहने को मजबूर थी। वो अपना घर छोड़कर आने को बिल्कुल तैयार नहीं थी।अपना घर, अपना मालिकाना अधिकार भला कैसे छोड़ सकती थी? पाँच साल के बाद जब तबियत खराब रहने लगी तो भाई जबरदस्ती लेकर आ गया। मुम्बई के छोटे घर में माँ को मजबूरन रहना पड़ा। वैसे उसके आने से दूध वाला, सब्जी वाला, ग्रोसरी वाला, पड़ोसी किसी को कोई खास फर्क नहीं पड़ा। बहुत कम लोगों के साथ माँ की पटरी खाती थी। यदि किसी को दो रुपया ज्यादा दे भी दी तो उसे किसी-न-किसी तरह वसूल करना नहीं भूलती थी। शारीरिक रूप से स्वस्थ स्वयं घर का सारा काम सम्भाली हुई थी। जाति- पाति,भेद- भाव इतना कि कोई नौकरानी घर में नहीं आती थी। बेटी, बहू या अपनी विरादरी के हाथों की ही कच्ची रसोई खाती थी। स्वाभिमान की सीमा रेखा से अनभिज्ञ अभिमान के दायरे में आ चुकी थी,लेकिन इस सच्चाई से अनजान थी। मुझे आज भी याद है। पड़ोस में महतो चाचा के बेटे की शादी थी। सगुन के दिन उनकी बेटी कुंती पड़ोस के कुछ औरतों को बुलाने निकली थी। माँ बरामदे में बैठी थी। उसे अनदेखा कर उनकी बेटी आगे बढ़ गयी। सभी को बुलाने के बाद अंत में माँ को बुलाने आई। माँ ने उसे उलाहना देते हुए कहा।
“ इधर से ही होकर गयी हो। मैं सामने बैठी थी और अब अंत में सोच- समझकर शिष्टाचार या लोक- लाज के चलते बुलाने आई हो। क्या मैं ‘नाईन-बारी पवनी’ हूँ?”
कुंती इन बातों से चिढ़ गयी थी, लेकिन उसने लिहाज बस सिर्फ इतना ही कहा-
“ ऐसी बात नहीं है चाची। किसी-न-किसी के लिए तो ‘अंत’ होता ही न।”
फाटक से निकलते- निकलते भुनभुनाती हुई कहती गयी।
“ इतना गुमान भी ठीक नहीं..
परिस्थितियाँ मौसम की तरह जाने कब रंग बदल ले।”
मैं उसे फाटक तक छोड़ने की नियत से पीछे- पीछे आ रही थी। मुझे देखकर चलते- चलते मुझे भी आने को कह गयी।
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आज सचमुच परिस्थितियाँ मौसम की तरह बदल गयी हैं।
न अब कच्ची- पक्की रसोई का भेद- भाव रहा और न ही जाति- पाति की जानकारी। उन्नति की चाहत तो सबको होती है। होनी भी चाहिए, लेकिन उसके साथ- साथ स्वयं को भी लचीला बनाना ही पड़ेगा। बदले परिवेश में धार्मिक आचरण को उतना ही अपनाए जिससे दूसरों को परेशानी न हो। धर्म को अपनाओ आडम्बर को नहीं।
कई बार माँ को समझाने की कोशिश की, लेकिन….
उम्र के इस पड़ाव पर किसी तरह नित्य-कर्म कर पाती हैं,लेकिन वह स्वाभिमान…
नौकरी पेशा बहू, रसोईया रखना उसकी अनिवार्यता थी। मुम्बई जैसे शहर में सहायक मिल जाए वही बहुत है।……
“अरे! भाई नाश्ता वगैरह मिलेगा या नहीं।”
पति की आवाज ने वर्तमान में लौटा दिया।
“माँ का फोन था। मिलने के लिए बुला रही है।”
“ तुमने क्या कहा?”
“यही कि दिवाली बाद मिलने आऊँगी।”
पति ने मजाकिया अंदाज में कहा-
“ आने- जाने में पचास- साठ हजार खर्च है। फ्लाइट के टिकट में ही लगभग आने- जाने में तीस हजार लग जायेंगे, फिर उपहार वगैरह…
रिटायर्ड आदमी से कितना खर्च करवाओगी?”
मायके जाना था तो प्यार से पेश आना मजबूरी थी।
“ चलिए! ससुराल की धोती मिलेगी कन्हावर बाँध कर।”
मुस्कुराते हुए पति ने कहा।
“ अरे! अब क्या धोती पहनेंगे।”…
कार्यक्रम बना और पहुँच गयी मुम्बई।…..
माँ एक कमरे में लेटी थी। वहीं बगल में स्टूल पर पानी की बोतल और एक ग्लास रखा हुआ था। हमलोग को देखकर खुश हो गयी, लेकिन उलाहना देना तो उसका हक बनता है। सभी ने वहीं बैठकर चाय पी। रात्रि भोजन के लिए हम सब डायनिंग टेबुल पर बैठे। अचानक मैं रसोईये से पूछ बैठी।
“ माँ ने खाना खाया?”
“उन्हें तो अंत में दिया जाता है।”
“ क्यों?”
“ मेमसाहब ने कहा है।”
तब- तक भाभी आ गयी।
पूछना चाह कर भी मैं पूछ नहीं पायी। आखिर क्यों?
भैया ने स्वयं स्पष्टीकरण दिया।
“ हमलोग सब खा लेते है तभी अंत में माँ को खाना देकर रसोई समेटने में रजनी को सुविधा होती है।”
मन-ही-मन सोचने लगी- अंत में खाना देने में भाभी को सुविधा…
और बरबस कुंती याद आ गयी। कुंती ने भी तो अंत में माँ को बुलाया था, तब माँ उसके घर नहीं गयी थी और आज…
एक सप्ताह बाद मैं ये सोचती हुई लौट आयी कि अंत की तैयारी अभी से करनी होगी।
स्वरचित
पुष्पा पाण्डेय
राँची,झारखंड।