गुल्लक टूट गयी… – दीप्ति सिंह

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 पति की तेरहवीं के पश्चात ललिता ने तीनों बेटों के समक्ष एक प्रश्न रखा कि “अब वह अकेली कैसे रहेगी ” ?

बड़े बेटे ने तुरन्त कहा ” माँ !  तुमने ही कहा था यह घर मेरा है अतः मैने भी कह दिया हमें हिस्सा नही चाहिए और ना हम यहाँ रहने आएगें। इसलिए मुझसे तो कोई आशा रखना मत … जिसे हिस्सा चाहिए वो तुम्हारी जिम्मेदारी ले .” बड़ी बहू ने सुन कर चैन की सांस ली।

मंझला बेटा बोलता उससे पहले बहू बोल पड़ी ” हम कैसे रख सकते है? हम तो खुद किराये पर रहते है दो ही तो कमरे हैं हमारे पास ।”

” हाँ ! माँ तुम एक किरायेदार रख लेना ;अकेलापन नही खटकेगा  ।टिफिन लगवा लेना खाने की भी कोई परेशानी नही होगी। ” तीसरे बेटे ने भाभी के सुर में सुर मिला कर सुझाव भी दे दिया।

ललिता तीनों बेटों के विचार सुन कर सन्न रह गयी। नैराश्य भाव ले कर अपने कक्ष में आयी तो दर्पण पर दृष्टि गयी उसमें स्वयं को वैधव्य रूप में देखा तो  दूसरी ललिता खड़ी थी सुहागिन के वेश में थी।

” क्यों दुखी हो रही है? जो बोते है वो तो काटना पड़ता है।”

 “क्या मतलब ?”


 ” पाँच बेटियों के बाद बेटे को जनम दे कर धन्य हो गयी थी तेरी सास। तू उसकी लाडली इकलौती बहु थी।सास ससुर के लाड़ का फायदा उठा कर तूने पति को भी वश में कर लिया।ससुर की मृत्यु के पश्चात खेती की साल भर की कमाई पति के हाथ में आती जिसमें तू नागिन की तरह कुंडली मार कर बैठी रहती फिर भी अफसर पति को दो नम्बर की कमाई के लिए उकसाती।… तूने ही तो बहुओं से कहा था कि ददिया सास की सेवा करने की कोई जरूरत नही है बुढ़िया में अभी बहुत दम है। “

  ” और मंझले बेटे से क्या कहा था “?

” क्या ?”

 ” लगता है पति अपने साथ तेरी याददाश्त भी ले गये। ‘ जितनी तेरी तनख्वाह है उतनी तो हमारी पेंशन आयेगी । खूब मौज करेगें हम दोनों, ब्रेड बटर और देशी घी के हलुए का नाश्ता करा करेगें ‘ बोल कहा हाँ या नही  “

”  हाँ ! कहा था ” वैधव्य ओढे हुए ललिता धीमे स्वर में बोली।

 ” सास ने तो अस्सी वर्ष की आयु में गठिया से टेड़ी पड़ी कंपकपाती उंगलियों के साथ ठंडे पानी से बर्तन साफ कर लिये थे ।तू तो अभी साठ की है तुझमें तो अभी काफी दम खम है …पेंशन आएगी, घर है ,रह ले अकेली …करना हलुए और ब्रेड बटर का नाश्ता।”

दर्पण झूठ नही बोलता … अतीत ने दर्पण सें झांका तो ललिता ने क्रोध में पास में रखा फूलदान दर्पण पर दे मारा और बोली  “कहाँ है मुझमें दम ?  सब कुछ तो उनकी राख के साथ विसर्जित हो गया।”

दर्पण का टुकडों में अब भी एक सुहागिन ललिता थी उसका स्वर गूँजा ” ललिता! घमंड किसी का नही रहा ;  टूटने से पहले गुल्लक को भी यही महसूस होता है कि सारे सिक्कों पर उसी का अधिकार है।”

दीप्ति सिंह ( स्वरचित)

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