स्व.विद्यासागर जी का परिवार अपने नगर में प्रतिष्ठित माना जाता था।उनके दो बेटे थे महेंद्र बड़े और सुरेंद्र छोटे।विद्यासागर जी का अपना अच्छा भला व्यापारिक साम्राज्य उनके अंतिम दिनों में ही ध्वस्त हो गया था।बुढ़ापे में स्वयं संभाल नही सकते थे और बेटो की रुचि व्यापार में थी नही।बेबस से विद्यासागर जी दुनिया से यूँ ही अतृप्त चले गये।
दोनो बेटे महेंद्र और सुरेंद्र अलग अलग स्थानों पर अपने पिता के जीवित रहते नौकरी करने लगे थे।विद्यासागर जी दिल मसोस कर रह जाते,कहाँ तो वे अपने व्यवसाय में कितनो को नौकरी देते पर उनके अपने बेटे दूसरों के यहां नौकरी कर रहे हैं।दबी जबान से अपने बेटो को अपनी भावना से उन्होंने अवगत कराया भी,पर दोनो ने ही दो टूक कह दिया बाबूजी हमारे बसका इतना प्रेसर झेलना नही है।नौकरी करते हैं तो घर आकर कोई चिंता तो नही रहती,अपने काम मे तो 24 घंटे खटते रहो।
सुनकर विद्यासागर जी का दिल भर आता।लेकिन कुछ कर नही सकते थे,इसलिये चुप ही रहने लगे।एक अजीब सा खिंचाव परिवार में आ गया था।मशीनीकरण युग मे वैसे भी व्यक्ति मशीन हो गया है,पर यहां तो परिवार का ही मशीनीकरण हो गया था।दोनो बेटे नौकरी पर सुबह चले जाते,वापस आते तो अपने अपने बाल बच्चो के साथ रम जाते।अकेले पड़े रहते विद्यासागर जी,
अपनी अतीत की यादों को संजोय।विद्यासागर जी सोचते क्या आज का परिवेश ही अकेले जीने का हो गया है या उनका परिवार ही बेरंग हो गया है।दोनो बेटो को भी साथ साथ बैठे कई कई दिन हो जाते।उनके समय मे तो ऐसा नही था,पूरा परिवार लगभग रोज ही साथ ठहाके लगाता था,दुःख सुख एक साथ साझे होते थे।
और आज–उन्ही के परिवार में— सोचते सोचते वे शून्य में निहारने लगते।ऐसे ही एक दिन विद्यासागर जी नश्वर शरीर को छोड़ गोलोक को प्रस्थान कर गये।उनके मरने के बाद उनके बेटो ने एक काम तो अवश्य किया कि उनका एक बड़ा सा फोटो घर मे लगा दिया।
समय चक्र घूमता गया।महेंद्र की कंपनी जहां वह नौकरी करता था कर्मचारियों की लंबी हड़ताल के कारण दिवालिया हो गयी और वहां तालाबंदी हो गयी,महेंद्र बेरोजगार हो गये।नयी नौकरी ऐसे ही थोड़े मिलती है।भविष्य अंधकारमय लगने लगा।महेंद्र को अब अपने पिता की याद आ रही थी,कितना समझा रहे थे,
अरे सुरेंद्र तो छोटा है,वह नौकरी करना चाहता है तो करे,पर तू तो बड़ा है,इतना कारोबार फैला है, तू नही संभालेगा तो कौन संभालेगा।किंतु मैंने ही पिता के आग्रह को महत्व ही नही दिया।अगर पिता की बात मान ली होती तो आज ये नौबत नही आती।सोचते सोचते महेंद्र ने सलाह मशविरा को सुरेंद्र के पास जाने का मन बनाया।सुरेंद्र के कमरे के पास पंहुचा ही था कि अंदर से सुरेंद्र और उसकी पत्नी माधवी के बीच हो रही बात उसके कानों में पड़ी।
सुरेंद्र कह रहा था माधवी हमने अपनी सोच और जिद से अपने पिता का दिल दुखाया है,मैं जानता हूं उन्होंने दुःखी हृदय से संसार छोड़ा है,वे चाहते थे भैय्या या मैं उनके द्वारा स्थापित कारोबार को संभाले,पर हमने उनकी उपेक्षा की।
भैय्या की नौकरी चली गयी है,वे परेशान है।देखो परसो होली है,होली पर हम भैय्या को सरप्राइज देंगे।मैंने लोन की व्यवस्था कर ली है,अब हम दोनों भाई पिता के सपने को पूरा करेंगे।बाबूजी को तो हमने खो दिया,अब बड़े भैय्या को हम संभालेंगे।
महेंद्र को सुरेंद्र से बात करने की जरूरत ही नही पड़ी।उसे लग रहा था कि बड़ा भाई वह नही सुरेंद्र है।अपनी भीगी आंखे लिये महेंद्र वापस लौट लिया उसे लग रहा था,होली परसो नही आज ही है,तभी तो उसे घर के हर कोने में बिखरा गुलाल ही गुलाल दिखाई पड़ रहा था।
बालेश्वर गुप्ता, नोयडा
मौलिक एवम अप्रकाशित।